बहुत लोग मानते हैं कि किसी झूठ को बार-बार दुहराने से वह सच हो जाता है। इसलिये धर्म के नाम पर समर्थन या विरोध में जो भी झूठसच कहा जाय, प्रचार पाकर वही सच हो जायेगा। ऐसे लोग भारत में प्रयुक्त धर्म शब्द के अर्थ को समझने से बचना चाहते हैं। इस सुविधा से तात्कालिक कार्य तो हो जायेगा लेकिन धर्म एवं समाज की न तो समझ हो सकेगी न ही धोखेबाजों और स्वयं उलझे हुए लोगों से बचाव, न ज्ञान का सुख होगा।
भारत में धर्म शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से तीन अर्थों में होता है- 1. स्वभाव, बनावट 2. कर्तब्य/दायित्व 3. व्यवस्था, विधि-विधान, परंपरा। तीसरे वर्गीकरण पर खूब मतांतर होगा ही क्योंकि भारत विविधतापूर्ण देश है। दूसरे पर भी समयानुरूप अंतर आयेगा, राजा ही नहीं तो राजा के प्रति कर्तब्य क्या? अब राज्य के प्रति कर्तब्य भी लोकतंत्र के अनुरूप होगा। अब तो मतदान में भाग लेना ही अनिवार्य धार्मिक कार्य होना चाहिये। पहले वर्गीकरण की बातें दीर्घकालिक प्रकृति की हैं, जिनका स्वभाव नहीं बदला उनका व्यवहार भी नही बदलेगा। सूर्य की गति और प्रकृति मोटे तौर पर वही है।
इसलिये कुछ लोग मूल रहस्य ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। वे व्यवस्थावादियों की परवाह नहीं करते, ऋषि, सिद्ध इसी कोटि में आते हैं। ये सायंटिस्ट की तरह हैं। धर्मशास्त्री कर्तब्य एवं दायित्व को ही धर्म साबित करने में लगे रहते हैं। इन्हें अपने मनोनुकूल या राजा के मनोनुकूल समाज को चलाने की चिंता सताती रहती है। वे धर्म के अन्य पक्षों की निंदा करने तक की गलती करते एवं दंड भोगते हैं। व्यवस्था एवं विधि पद्धति बनाने वाले/विकसित करने वाले पहले दो पक्षों को ध्यान में रख कर जीवन जीने, समाज को संयमित करने आदि की पद्धति विकसित करते हैं। इन्हें समय समय पर उसे बदलते भी रहना पड़ता है। इस कोटि में असली तांत्रिक, कर्मकांडी आदि आते हैं।
और इन सबसे अलग मनमौजी गप्पियों, पैरोडीबाजों, कथाकरों की दुनिया है जो रोज सामने वाले मनोनकूल या उन पर प्रभाव डालने के लिये नई-नई मनोरंजक कहानियों, उपायों में लोगों को फंसाने ही नही स्वयं भी फंसने में रस लेते हैं, किसी का सींग किसी की पूंछ। मैं तो अभी साधारण आदमी हूं। हां, सौभाग्य हो तो ऋषि, नही मौका मिले तो तीसरी कोटि में रहना चाहूंगा। आप चाहें तो अपने को तौल सकते हैं।
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