मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मरने की तैयारी


मरने की तैयारी
विषय विचित्र था। मरने की तैयारी के पूर्व जीवन का आकलन शुरू हुआ कि जीना क्यों जरूरी है? परिवारिक सामाजिक धार्मिक सभी अनिवार्य कार्य पूरे हो गये। संसार तो अनंत काल तक रहेगा। तीन पुरश्चरण (सवा लाख जप) ग्यारह यज्ञ संतानोत्पत्ति, 20 विद्यालयों की स्थापना, आजादी भूदान, प्रवचन, सत्संग, सत्साहित्य प्रचार, भजन-कीर्तन, गीत-संगीत, ध्यान, योग सब तो हो ही गया। इसलिये अब चलना चाहिए।
कार्यक्रम बना -
चलने के पहले जितने संपर्क एवं स्मृति के लोग हैं उनसे क्षमा प्रार्थना जरूरी है बस इस निमित्त एक उत्सव आयोजित हो, दुरस्थो को पत्र लिखा जाय, फिर गहन ध्यान साधना में उतर जाया जाय छोटी बहन को आदेश हुआ पत्र लिखने का पिताजी को बता दिया गया भगवत कथा आयोजित हो। मित्रो रिश्तेदारों को लिख दिया जाया कि मृत्यु पूर्व कथा का आयोजन है अतः अवश्य पधारें। आगे से भोजन में पौष्टिक औषध बंद।
पत्र तो भेजे गये कथा भी हुई किंतु मृत्यु की तैयारी वाली बात लिखी नहीं गई उपस्थिति कम थी। बाबा ने सबसे पूछा अमुक क्यों नही आये। मेरा क्या अपराध जो नहीं आये। पता चला कि मृत्यु की बात की सूचना नहीं थी। दंड का विधान हुआ, पिताजी को पुनः कथा आयोजन का अर्थ मार वहन करना पड़ा। इस बार बहुत लोग आये। पदयात्रा से लेकर सुविधार जनक अन्य चाचाओं के मध्यम से क्षमा-प्रार्थना पूरी की गई। पास के गाँवों में की और अपने गाँव की हर चौखट पर बाबा गये, माफी माँगी। लोगों को उसका यह व्यवहार समझ में हीं नहीं रहा था।
फिर हुई घोषणा - आज से फलाहार भी बंद। अन्नाहार तो वे 1923 से नहीं कर रहे थे। मेरी पेशी हुई मृत्यु का शास्त्र पढ़़ने के लिये। पहला पाठ यह कि मृत्यु के साक्षात्कार का सबसे बड़ा विध्न नींद है। लोग प्रायः सोये में ही मर जाते हैं। कुछ लोग सपने में तरते हैं और कुछ का ध्यान मरते समय अपनी चूतना से भिन्न किसी बात या जीव पर ठिठक जीती है। यह सब ठीक नहीं है। यह होश में मरना नहीं है। अतः भोजन कम करने एवं नींद पर विजय की साधना करनी पड़ेगी। योगभाष्य एवं अन्य ग्रंथो से लक्षणों की मिलान भी की गई। मुझे यह बात पसंद होने पर भी स्तब्ध, टुकुर-टुकुर ताकते रहने की मजबूरी थी।
अगले चरण का आदेश मिला देखो जी मेरी एक इच्छा शेष रह गयी है। लगाव विकसित हो गया है, मेरी साधना में विध होने की आशंका है पर तुम चाहो तो पूरी हो जाय। पुनः आदेश हुआ तुम्हारे जिम्मे हीं पुरी करनी होगी। बाबा बोले खादी वस्त्र सालों से पहन रहा हूँ। मेरी शव यात्रा और अंतिम संस्कार खादी वस्त्र में होना चाहिए। उसके बाद शुद्ध आदि सब तुम लोगों का मामला है।
मैं पूरी शांति से मरने वाला हूँ। कोई आयोजन, प्रदर्शन होगा। कफन की व्यवस्था तुम अग्रिम रूप से पहले कर दो क्योंकि मेरे मरते समय किसी को तमाशा करने का मौका नहीं मिलने वाला मेरी नौकरी नई थी। मैं केवल धोती गमछा की लेकर हीं गाँव गया था। उसे उन्होनें कफन मान कर रखना दिया। बोले अभी भी कभी-कभार नींद जाती है। भीतर की सफाई जरूरी है। तुमसे मुलाकात अंतिम है। मैं गया वापस गया।
गाँव में एक सगोत्र अवकाश प्राप्त शिक्षक एवं वैध रहते हैं। उन्होनें पिताजी एवं उन्हें आगाह किया कि मेरे साथ छेड़-छाड़ मत करना मैं वह कर मरूँगा। ऐसा हो कि जिंदा हीं जला दिया जाऊँ।
दुर्घटना होते-होते बची। एक दिन बाबा की नाड़ी हृदय जाति सब बंद गाँव के लोग जुटने लगे शवयात्रा की तैयारी आरंभ। बिस्तः जमीन पर लिटाया गया। मजबूरन बाबा को पुनः सचेत होना पड़ा दोनो को डाँट पड़ी। सभी डर गये। अनिष्ट टला इतने के बाद पिताजी को विश्वास हुआ कि उनके पिता वस्तुतः कोई साधना था अभ्यास कर रहे हैं। तय हुआ कि चेतना के जाने के बाद भी जब तक शरीर बरबाद होने लगे दाह-कर्म नहीं होगा।
खैर, ऐसी परिस्थिति आई हीं नहीं। बाबा ने घर के लोगों को बताकर घोषित कर अंतिम प्रयास किया। उसके पूर्व की रात में जोरदार बारिश हुई थी। सड़क संपर्क टूट गया था। गाँव के लोग धान की रोपनी में व्यस्त थे। कुछ हीं गिने-चुने लोगों की उपस्थिति मे उसी अधूरे कफन् धोती-गमछे मे दाहकर्म हुआ। मेरी कमाई का अंश उन्होनें स्वीकार किया मेरा गाँव सोन नदी के किनारे है। वहीं दाहकर्म हुआ। रात में बाढ़ आई दाहसंस्कार के बाद उनके पंचतत्व का कोई निशान बाकी नहीं रहा।
इतने से मेरी शिक्षा पुरी नहीं हो पाई। अब पता नहीं मुझे सिखाने की जिम्मेवारी किसने ले रखी है। वैसे भी प्रेतो की नगरी में रहता हूँ। पूरे भारत के हिन्दु अपने पितरों का पिण्डदान करने यहाँ आते हैं।
मेरा घर पिछली चार पीढ़ियों से प्रयोगवादी है। मेेरी तीन पीढ़ी पहले से गीता और मृत्यु पर प्रयोग चल रहा है। बाकी लोग तो मर गए परंतु मेरे पिताजी को गोलियों-बंदूकों के बीच खड़ा होने में मजा आता है। उनकी हत्या के प्रयास हुए परन्तु वे बच गए, साथी मारे गए, तबसे उनकी सनक और बढ़ी। अब बिस्तर पर मौत की प्रतीक्षा में है।
इससे विपरीत मैं मरना नहीं चाहता लेकिन किसी दिन मरना तो पडेगा ही। लेकिन पता नहीं कैसे मौत से खेलने वालों से हर साल दो साल पर कहीं कहीं भेंट हो जाती है। मैं उन्हें पसंद आने लगता हूँ। वे मुझसे खुलकर बातें करना चाहते हैं। मुझे जीना पसंद है फिर भी मरने वाले ने मुझे छोड़ते है से गाकर मैं भी उन्हें छोड़ पाता हूँ।
खैर, एक बार मैंने सुना था कि कुछ लोग ऐसे होेते हैं। जिनकी मृत्यु पर शमशान भी रोता है और कुछ लोग ऐसे उत्सव मूर्ति होते हैं जिनकी मृत्यु पर श्मशान में भी उत्सव होता है। मुझे दुर्भाग्य एवं सौभाग्य के दोनों कार्यक्रमों में सम्मिलित होने का अवसर मिला।

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