मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मृत्यु की शिक्षा


मृत्यु की शिक्षा और साक्षात्कार

इस विषय पर संस्मरण बताने के पहले मैं यह बता देना जरूरी समझता हूँ कि मैं एक डरपोक आदमी हूँ। घर-परिवार के लोग, पिता, पत्नी, भाई-बहन, सभी मुझे महान डरपोक मानते हैं। मुझे भी जीवित एवं मृत दोनो प्रकार के मनुष्य से डर लगता है। किताबी वर्णन एवं सुनी हुई बातों के अतिरिक्त आज तक किसी मृतात्मा से पक्की मुलाकात नहीं हुई, सपनों को छोडकर।
फिर भी जीने की मजबूरी ऐसी रही है कि मौत से डरने के बाद भी उससे साक्षात्कार करने का सिलसिला आज तक जारी है। उपर से मृत्यु संबंधी शिक्षा भी अपने अध्ययन-अध्यापन एवं पेशे का विषय बना रहा, जिस पर मेरा वश नहीं है, एक संयोग मात्र है।
मेरा गॉव सोन नदी के किनारे का गाँव है। नदी की चौड़ाई लगभग 3 कि.मी. लगभग 1. की.मी. में पानी बाकी सब रेत था दियारा। दियारे भी प्रायः बदलते रहते हैं। पानी की धारा भी बदलती रहती है। आस-पास के गाँव के लोग भी शव को रेत में दबाने, पानी में बहाने एवं आग में जलाने तीनो उद्धेश्य से नदी में आते हैं। अराजकता या सहजता ऐसी कि जिसे जहाँ इच्छा हो वहाँ शव को विदा करे। परिणाम पूरा नदी क्षेत्र हीं शमशान है। इसी विस्तृत शमशान में खेलने, शौच जाने, नहाने, पूजा करने, जानवर चराने, रूठकर छुपने, झगड़ा, मार-पीट करने, शवो के दाह-संस्कार में सम्मिलित होने से लेकर चाँदनी रात में घंटो घूमने एवं सावन में नौका पर सवार हो संगीतमय दिवस (झिाझरी खेलना) एवं नौका दौड़ में शामिल होने की पूरी विविध क्रियाएँ पूरी होती रहीं। मेरे लिए जीवन एवं मृत्यु में से किसी को झुठलाना संभव नहीं रहा।
बावजूद इसके मेरे गाँव के मल्लाहों को प्रेत सर्वाधिक पकड़ता है और आज भी प्रेत मुझे जगे में तो नहीं किन्तु सपने में कभी-कभार अवश्य सताते हैं।

बूढ़े बाबा प्रपितामह का स्वर्गारोहण -

शव संस्कार देखने से भी मृत्यु का भय नहीं जाता न मृत्यु के समय और मृत्यु के उपरान्त की बातों का पता चलता है। अतः मेरे पूर्वजों ने मुझे मौत सिखाने का सोचा। बच्चे को मृत्यु को नजदीक से दिखाने समझाने में बहुत कठिनाई है। किसी की हत्या तो की नहीं जा सकती पशुओं को छोड़कर। अतः मरने वाले मनुष्यों, मनुष्य मरते तो सभी हैं अतः अभिप्राय यह कि आसान मृत्यु के वालो के पास रखने की योजना बनी। मेरे घर में दो प्रतिमाए थे। एक 90 के करीब वय के और एक 70 के करीब। 90 वाले को मरणासन्न माना गया था पर वे थे कि मरने को तैयार नहीं थे। छोटे वाले मरने को तैयार थे किन्तु कुछ दिनो बाद जब मेरी शिक्षा का प्रारंभिक पाठ पूरा हो जाय और कम से कम ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसा प्रतिभाशाली हो जाऊँ। इसके लक्ष्य तक मुझे पहुँचाने के लिए उन्हें 7 वर्षो की आवश्यकता थी, उस समय मैं सात वर्ष का था। इसके बाद मरने को तैयार थे किन्तु अपनी योजनानुसार तो कुछ हीं लोग मर पाते हैं।
बड़े प्रपितामह छोटे प्रपितामह की दृष्टि में बड़े ही नाटकीय व्यक्ति थे। हमलोगो की समझ से बूढे तो थे हीं बीमार भी रहते थे और बार-बार मर-मरकर जी जाते थे। दो-तीन बार उनकी शव यात्रा निरश्त करनी पड़ी थी। मुझे उनसे सहानुभूति थी क्योंकि वे बच्चों को बुरी तरह पिटने के विरोधी थे। जो लोग बच्चों की पिटाई के विरूद्ध थे उन सबके प्रति मेरी सहानुभूति थी फिर भी वे भी डराते थे और मैं उनसे बिना डरे शरारत करता था क्योंकि वे विस्तर से उठ तो सकते थे नहीं।
एक दिन निश्चय हुआ कि इन्हे काशी ले चला जाय। निर्णयानुसार उन्हें काशी लाया गया, उनके गुरूजी के आभम के पास रखा गया किन्तु उन्होंने मरने से बगावती अंदाज में मना कर दिया। दरअसल वे थे पक्के रामानंदी वैकाल। शिव की नगरी काशी में मुक्ति में उन्हें केाई रूचि नहीं थी। मेरे पितामह को पिता की यह जिद रास नहीं आई क्योंकि पिता की सेवा हेतु उन्हें भूदान का काम एवं अन्य सामाजिक काम छोड़कर घर पर सेवा हेतु रहना पड़ता था। पंडितो से परामर्श हुआ और तदनुसार तय हुआ कि इन्हें मणिकजिक एवं हरिश्चन्द्र घाट के शमशानो का दर्शन कराया जाय और तब भी मरने का इरादा न हो तो इरादा बदलवाने के लिए जप करवाया जाय। मुझे तो सदैव साथ्ज्ञ रहना था। पता नहीं कब बूढे बाबा को मरने का मुड हो जाय। दोनो प्रयोग असफल हुआ। नौका में बैठे-बैठे बूढ़े बाबा ने मना कर दिया। न मरना है न मुक्त होना है। मुझे यह सब बुरा लगता था। हमलोग वापस गाँव आ गये। मेरी छोटी परदादी और कई औरते डरी हुई एवं नाराज थी कि काग्रेसियों की संगति से मेरे पितामह का संस्कार बिगड़ गया है यद्यपि भीतर ही भीतर सभी उनके तपोबल से डरते थे।

गुपचुप मृत्यु -
अचानक मेरे छोटे प्रपितामह की तबीयत खराब हुई और मेरी शिक्षा अधूरी छोड़ वे दुनिया से चल बसे जाते समय कातर एवं वात्सल्यपूर्ण दृष्टि से उन्होंने मुझे देखा पर वे कब मर गये पता नहीं चला। रात 11-12 बजे के अंधेरे में लालटेन की रोशनी में न तो कुछ समझ में आया न समझने की रूचि या हिम्मत थी। घर में बहुत रोना पीटना हुआ।
इस घटना से दुष्प्रभावित बूढ़े बाबा ने मरने का निश्चय किया और मुक्ति के स्थान पर स्वर्गवास का इरादा पक्का किया। किसी के लिए मृत्यु स्वर्गवास या मुक्ति में कोई अंतर नही हो सकता किन्तु इन मरने वालो के लिए इसका अंतर जीने से कम महत्वपूर्ण नहीं था। एक एकादशी के दिन शुभ मुहर्त में बूढ़े बाबा ने जाने का मन बनाया। सबको बता दिया आज चले जाना है। इस बार बीच रास्ते लौटना नहीं है।
भूमिशय्या की व्यवस्था कर दी गई। मुझे फौरन शिरहाने बैठ कर गीता पाठ करने का आदेश हुआ। मैं अपने काम में लग गया। गीता तो कंठस्थ थी हीं असली काम मृत्यु नामक घटना को देखना था। सभी लोग शांत प्रसन्न, सजग साक्षी थे। गाँव के लोगो को खबर नहीं की गई थी क्या पता कार्यक्रम पक्का है या नहीं? बूढ़े बाबा ने घोषणा कि मेरे स्वर्गारोहन की व्यवस्था पक्की हो गई है। भगवान नारायण के देवदूत मुद्रा सोने के आभूषणो में सजे पीतवस्त्र धारण किए हुए सुंदर सजी पालकी के साथ बरामदे से नीचे के स्थान में प्रतीक्षारत हैं। अब देर करना ठीक नहीं है। मेरे पितामह को उन्होंने आवाज दी सभी लोगो ने तुलसी गंगा जल दे दिया केवल तुम्हारी पारी बाकी है, जल्दी करो जाना है। पितामह ने कहा आपकी यात्रा के लिए ड्योढ़ी एवं रास्ते को मैं गोबर से लिपाई कर रहा हूँ। उसके बाद स्नान कर स्वच्छ धोती पहनकर आपको विदा करूँगा। तब तक आपकेा रूकना है। आप बेफिक्र रहें विष्णु के इन पार्षदों को रूकना हीं पड़ेगा।
इस बार्तालाप से सारे हत्प्रभ। हुआ वही जो पुन ने चाहा। लीप-पोतकर स्नानोपरान्त पिता को विदा का प्रणाम निर्वदित किया। सभी ने जीवित को प्रणाम किया शव को नहीं। अच्छा तो मैं चला और पितामह ने सदैव के लिए आँखे मूँद लीं। गाँव में खबर हुई, शंख, घडियाल की आवाज के साथ अंतिम संस्कार किया गया।
मुझे बस इतना पता चला शांति से अपनी मर्जी से भी मरा जाता है और कुछ लोग बेमर्जी मर जाते हैं।
सधुआइन आजी
सधुआइन आजी मरने के बाद क्या हुआ पता नहीं न यह पता चला कि मरने के बाद घटनाओं की जानकारी संभव है या नहीं। मृत्यु लिखने वाले पितामह के समक्ष मैंने यह प्रश्न स्थापित कर दिया। इस बीच अनेक लोग मरे उनके मरने से कुछ सीखने को नहीं मिला। मैंने वर्षो एकांत, श्मशान, खंडहरो मे रात बिरात यात्राएँ की कुछ पता नहीं चला। अब तक मैं 18-19 साल का हो गया। फिर शुरू हुआ सिलसिला एक दिन पितामह ने कहा आज शुभ काल है। तुम्हें पता है वाक्सिद्ध वाले लोग कैसे होते हैं। मैं चकित, मुझे क्या पता ? उन्होंने कहा गाँव की सधुआइन आजी संगोच परिवार की एक अति सरल, सहृदय, निस्संतान, निरक्षर, पतिव्रता थी जिनके पति महोदय भी उतने हीे सरल किंतु कठोर तपश्वी हठयोगी थे। मुझे विश्वास नहीं हुआ फिर भी आदेश आशिर्वाद लेने का था कि जो भी आशिर्वाद दे वह अवश्य हीं पूरा होगा। यह सब कॉलेज के दिनों की बात है। मैंने तुरंत उनके घर जाकर प्रणाम किया, आशिर्वाद प्राप्त किया, आशीर्वाद याद नहीं। खाया-पिया लौट आया।
वृद्धावस्था में हठयोगी बाबा सनक गये। शरीर से बलिष्ट होने से उन्हें संभालना बहुत कठिन। एक दिन सनक में लाठी चला दी, पत्नी का हाथ्ज्ञ टूट गया। प्लास्टर कराया गया। छोटे भाई के परिवार वाले सेवा करने लगे। बाहरी तौर पर कोई दिक्कत नहीं थी। भीतरी तौर पर पतिव्रता को संकट हो गया, पतिव्रता धर्म टूटने का और अगर कहीे कोई गलत बात मुँह से निकल गई तो। उन्होंने मेरे पितामह को खबर भिजवाई जो उम्र में बडे थे। हठयोगी बाबा को बुलाया गया। समझाया कैसे जाय? वे तो पागल हो गये थे। कुछ हीं दिनों बाद विष्मयकारी समाधान निकल गया।
एक दिन जाड़े के धूप सेक रही सधुआईन आजी ने साथ बैठी औरतों से कहा - तुम लोग मुझसे दूर हट जाओं। औरतों को भी कुछ समझ में नहीं आया। वे हट गई। पीछे की दिवार को आदेश हुआ - तुम मेरे उपर गिर जाओ ताकि मैं मर जाऊँ और मेरा व्रत न टूटे। दीवार आदेशानुसार गिरी, सधुआईन आजी अपने व्रत के साथ संसार से सधवा विदा हो गई। वाकसिद्धि सबने देखी। मुझे भी जब आँखो देखा हाल बताया गया तो बाबा (पितामह) की पूर्व में बताई गई बात पर भरोसा करने के अतिरिक्त कुछ बाकी न रहा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें