आरा का कापालिक संप्रदाय
मुझे बनारस में पो॰ शुकदेव सिंह से पता चला कि मेरे शहर आरा में एक विचित्र पंरपरा के लोग हैं। यह देश विचित्र है। कुछ लोगों की जीवन साधना हीं मरने के बाद शुरू होती है। इस संप्रदाय के लोग जीते जी कुछ बाते सीखते हैं और परिवार को तैयार करते हैं कि वे उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा करें। साथ हीं उनके मर जाने पर जीवन में सहायक बनें। यह अत्यंत गुप्त परंपरा है। मैं इनके बीच ताक-झाँक की कोशिश में लगा था। विवाह बाद पता चला कि वह साधक तो अपने परिवार के हैं। उनकी पत्नी को छोड़ उनके परिवार के लोगों तक को पता नहीं था कि उनके छोटे भाई ने जान बूझकर मृत्यु का आवाहन किया है।
अरूण कुमार जी की भावज
एक है श्री अरूण कुमार जी उर्फ “पानी बाबा“ ये भी अपने आप में एक अदभुत व्यक्ति हैं। भोजन बनाना खाना और खिलाना तीनों में बारंबारता। चिकित्सा मे प्रयोग हेतु मौत से लड़ते रहते हैं। लोगें की दृष्टि में अटपटांग लेख भी लिखते हैं। इनसे भी प्रबल मनो बल वाली मिली इनके छोटे भाई की पत्नी वे कैंसर पीड़ित थी। संयोगवश उनकी मृत्यु के दो दिन पूर्व में दिल्ली मिलने गए। सीधा सा प्रश्न पाठक जी मैं जानती हूँ कि तीन दिनेां के अंदर मुझे मर जाना है। जीवन तो जी चुकी अब बताइये कि मरा कैसे जाय?
एक जीवित व्यक्ति का जिसकी मृत्यु आसन्न है दूसरे जीवित से पूछ रहा है कि मरा कैसे जाय? मुझे क्या पता भाइ? मामला दर असल किताबी शान के प्रति भुन्दर का लोग या मुझ वे कुछ और समझती होगी। मैं मौन वे बोली बेहिचक बोलिए अब औपचारिकता क्या है?
मैं बोला आप जिए मनः शक्ति से कैंसर की पीड़ा पर विजय पई हुई हैं उसी शक्ति के बल पर मृत्यु का तटस्वभाव से स्वागत रें। वैसे बोलने को तो मैं बोल गया पर मैं कौन सा अपनी मृत्यु से साक्षात्कार किया है। मैं दिल्ली से गया लौट गया। दो दिन उन्होनें भी शरीर छोड़ दिया। पता नहीं मरते समय उनका अनुभव कैसा रहा।
अंततः
मृत्यु के अनुभव का प्रश्न हजारों सालों से चर्चित एवं विवाद है। मरा हुआ व्यक्ति लौटकर आता नहीं तो पता कैसे करें। कभी-कभी हाने वाली घटनाओं के विवरण भी चित्र-विचित्र होते हैं। किसके विवरण को सही मानें।
इस प्रश्न को श्रद्धा एवं विश्वास के अनुसार तो लोग हल कर हीं लेते हैं। कुछ तरीके ऐसे भी सुझाये गये हैं, जिनमें केवल विश्वास की जगह अनुभव एवं तर्क को भी स्थान दिया गया है।
भगवान बुद्ध ने इसी प्रश्न का उतर अजातशत्रु को दिया कि आप अपने पूर्व जन्मेां का अनुभव अपने मन के भीतर की गहराईयों में सुरक्षित संस्कारों से निकालकर पा सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने पूर्व जन्मों के अनुभव के साक्षात्कार के बगैर माय-मोह से मुक्त नहीं हो सकता। यह सब ध्यानविधियों से संभव है।
ध्यान कल्पना नहीं तटस्थता एवं साक्षात्कार का प्रयास है। इसमें मरने की जरूरत नहीं है।
दूसरा उतर है तंत्र मार्गियों का पूर्ण कामोत्तेजना के बाद स्खलनकालीन अनुभव प्रथम चरण की समाधि का अनुभव जिसे मूलाधार चक्र के भेदन एवं आशा चक्र से संबंध जुझे का अनुभव कहा जाता है। एक प्रकार का होता है। ध्यान से उत्पन्न ऐसा सुख बिना किसी रतिक्रिया के हेाता है। उस समय साँसे दिल की धड़कन सब थोड़ी देर के लिये बंद फिर भी मस्तिष्क, हृदय, किसी को हानि नहीं, वीर्य स्खलन भी नहीं। इसी अनुभव को आधार बनाकर (जो कि सामान्य मनुष्य को भी हो सकता है) बताया जाता है कि न अर्ध्वारोहण हो न स्खलन तो व्यक्ति मर जाता है। दम घुटने भर मृत्यु के समय लिंग का खड़ा होना एवं वीर्यपात होना आत्महत्या के मामले में भी देखा जाता है।
जो व्यक्ति इस अनुभव को देर तक धारण कर सकें उसे यह सुविधा प्राप्त हो जाती है कि चाहे वह ध्यान की, सुख की गहराई में उतरे संसार में रहकर प्रजनन करे या मृत्यु का वरण करे अन्यथा अंगो के कमजोर होने या चेतना के अव्यवस्थित होने पर तो किसी न किसी क्षण मरना ही है।
मूलाछार, प्रजनन एवं स्खलन के अनुभव का तो मुझे भी अनुभव है परंतु मृत्यु एवं पुनर्जन्म सीखना बाकी है अतः इसे सच मानना न मानना आप की सुविधा एवं खोज का भी विषय हो सकता है।