सोमवार, 11 मई 2015

लोकाचार की समझ

लोकाचार की समझ
गुलामी तो बुरी होती ही है, उसमें भी सबसे बुरी दिमागी गुलामी होती है। दिमागी तौर पर गुलाम आदमी अपने ही परिवार और कौम से नफरत करने लगता है। अपने दुश्मन की तरह ही सोचने लगता है। सबसे दुखद तो तब होता है जब वह समझता है कि मैं गुलामी के खिलाफ लड़ाई कर रहा हूं लेकिन वस्तुतः अपने ही गले की फांस संकरी करने लगता है। 
भारतीय सभ्यता पुरानी सभ्यता है इसका इस बात से कोई मतलब नहीं कि उसमें बुराइयां नहीं होंगी ना ही यूरोप के आधुनिक होने या पश्चिम एशियाई इस्लाम के अति आधुनिक/नया होने से यह निष्कर्ष निकलता है कि उसमें केवल अच्छाइयां ही होंगी।
भारतीय पारंपरिक समाज में छूआछूत जैसी बुराइयां हैं तो दूसरी जगह गुलामी के अन्य प्रकार हैं। ये समस्याएं पुरानी हैं तो ऐसा कैसे मान लिया जाय कि पुराने समय में इन्हें नियंत्रित करने का कोई उपाय ही नहीं किया गया होगा? आज के बुद्धिजीवियों को तो इस बात पर सोचने के लिये फुरसत भी नहीं है कि आखिर ये समस्याएं पैदा कैसे हुईं?
भारतीय समाज लंबे अरसे तक गुलाम रहा, राजनैतिक तौर पर और सोच के स्तर पर भी। आजादी के अनेक रहनुमाओं को लगा कि हम अपनी परंपराओं के कारण ही गुलाम हुए हैं। आजादी तो यूरोप की तरह सोचने एवं जीने से ही आ सकती है अतः आजादी की ईमानदार इच्छा और कोशिशों के बावजूद वैचारिक स्तर पर यूरोपीय दृष्टि और बिंबों की फांस में हमारे अनेक उदार लोग भी फंस गये।
इस गुलामी और लापरवाही में औरत, उसके पारंरिक अधिकार, असवर्ण और दलित जातियों के पारंपरिक अधिकार, समाज में उनका प्रयोग और उसके प्रभाव जैसे बहुत बड़े फलक पर ध्यान देने की कोशिश ही नहीं की गई। एक अजीबोगरीब सिद्धांत बना लिया गया कि जो बात मुझे समझ में न आये, वह झूठी या अंध विश्वास है। इस आधार पर लोकाचार हो या कोई परंपरागत बात उसे समझने की कोशिश ही नहीं की गई। समाज के आधुनिक चित्त वाले वर्ग ने कभी इसे माना कभी पहले से भी अंध विश्वासी हो कर धूर्त बाबाओं के चक्कर में फंसा। 
जिन पर इन परंपरागत बातों को संभालने का दायित्व था, दिली तौर पर वे भी ईशाई और मुसलमान की ही तरह सोच रहे थे या लोकाचार को हीन, वेदविरोधी, भ्रष्ट विधि मान कर व्यवहासर करते रहे। आखिर भय या लोक लाज वश लोकाचार की कीमती बातें, जितनी बच गईं, वहीं कम नहीं है।
इसके समानांतर केवल योग ही नहीं तंत्र पर भी यूरोपीय निगाहें गड़ी रहीं क्योंकि उन्हें पता था कि हमने ही भारतीय बहुसंख्यक समाज की कीमती गठरी उसे बेकार कह कर गायब करने का षडयंत्र रचा है, अतः धीरे-धीरे बचे खुचे लोगों से उन्होंने तंत्र सीखा और नये जमाने के हिसाब से उसकी मार्केटिंग शुरू की। समाज का व्यापक हिस्सा फिर धोखा खा गया। 
मैं जब तंत्र की बात करता हूं तब मेरा विरोध उतना नहीं होता लेकिन जब लोकाचार और लोक प्रचलित तंत्र साधना परंपरा की बात करता हूं, तब लोगों का मुंह लटक जाता है या गुस्से में आ जाते हैं चाहे किसी भी धारा के क्यों न हों क्योंकि मेरी बातें बहाना बनाने की सुविधा में विघ्न डालती हैं, किसी व्यक्ति या समूह विशेष की सत्ता को न बढ़ावा देती हैं न ही उचित मानती हैं। ऐसे किसी आदमी को क्या आप सुनना पढ़ना पसंद कर सकेगे जो कहे कि आप और आपके पास तंत्र साधना की पूरी सुविधा है, यह सहज है, खेल-खेल में आसानी से सीखने के लायक है?
इसीलिये भारतीय लोकाचार इन विधियों से भरा पूरा है। जरूरत है, उन खेलों को समझ कर नये जमाने के अनुकूल बना लेने की जैसा कि पहले भी अनेक बार होता रहा है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें