रविवार, 10 मई 2015

क्या ऐसे भक्ति की साधना होगी?


परंपरागत रूप से वर्तमान समय को भारत में कलि काल कहा जाता है। इसमें भक्ति और नाम स्मरण का महत्त्व बताया गया है। भक्ति ओर प्रेम दोनो शब्द चलन में हैं। कोई इसे लौ लगाना भी कहते हैं।
ईश्वर है या नहीं? इस बहस का यहां कोई मतलब नहीं, उसे मानकर ही भक्ति की साधना होती है। मैं फिलहाल भक्ति या उसके उत्कृष्ट प्रकारों पर चर्चा करने नहीं जा रहा। पहले सामान्य प्रेम और भक्ति के प्रति समाज और खाश कर परिवार का क्या नजरिया है, जरा इसी पर गौर कर लें। क्या ऐसे माहौल में सचमुच प्रेम की साधना शुरू हो सकती है, जहां प्रेम करना पाप करने जैसा हो। जब प्रेम के अभ्यास और विकास का उचित अवसर और काल हो, ठीक उसी समय उन लोगों के बीच भी, जहां प्रेम के विभिन्न रूपों का विकसित होना अनिवार्य हो, जैसे- पति-पत्नी, माता-पिता और उनकी संतानें, वहीं प्रेम करना परिवार विरोधी और समाज विरोधी तक माना जाता हो। जब उम्र बढ़ जाये तब यही बात जरूरी और समाज के अनुकूल कैसे हो जायेगी? आधुनिक नौकरी पेशा समाज की परिस्थिति में काफी बदलाव आया है लेकिन गांव-देहात में अभी भी पुरानी चलन का ही प्रभाव है, जो दो पीढि़यों के संघर्ष का मुख्य कारण है। भाई-भाई में प्रेम हो, बहनों में हो लेकिन अन्य के साथ न हो। मर्द का ससुराल से और औरत का नैहर से प्रेम न हो। यह सामान्य घरों की बात है किसी अंतरजातीय विवाह वाले की नहीं। 
  इन्हीं बातों को आदर्श घोषित किया गया लेकिन सौभाग्य से हर आदर्श की तरह इस आदर्श का भी पूरी तरह पालन समाज ने नहीं किया, इसी कारण घर-परिवार कुछ बचा हुआ है। मेरे मन में यह सवाल बार-बार उभरता है कि क्या ऐसे भी भक्ति की साधना पनप सकती है? जब कुटंब भावना ऐसी रहे तो वसुधैव कुटुंबकम् का क्या होगा?

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