शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

मेरी भैरव साधना

मेरी भैरव साधना

मैं बनारस के नगवाँ गाँव में रहता था। यह गाँव शहर से सटा हुआ था। अस्सी से दक्षिण नगवाँ गाँव है। शहर के पास, लेकिन मजा गाँव का। कष्ट भी वही। मेरा कमरा सड़क के किनारे था, कमरे के सामने बरामदा फिर सड़क, उसके बाद गेंदे की खेती, उसके बाद गंगा, गंगा किनारे कच्चा घाट। एक से एक जादू-टोने के सामान रोज मिलते, आखिर कितना डरा जाय तो हम डरे हीं, नहीं। हमारे जैसे कई ऐसे छात्र थे जो नहीं डरते थे।
एक दिन मैं नागरी नाटक मंडली (शहर का परम्परागत प्रेक्षा गृह) से नाटक देख करीब 12 बजे रात को कमरे में लौटा। बहुत तेज भूख लगी थी। लकड़ी के कोयले की अंगीठी पर खिचड़ी बनी, घर का घी मिलाया, थाली में परोसा। उस समय मेरे पास न पंखा था न टेबुल, न कुर्सी। एक चारपाई, कुश की, सस्ती वाली, दो चटाईयाँ, एक छोटा संदूक, एक साईकिल, यही कुल जमा पूँजी थी।
मैं चटाई पर बैठ गया, संदूक सामने रखा, गंदगी से बचाव एवं पंेट की रक्षा हेतु उस पर कुश की चटाई रखी, उस पर घी के सुगन्ध से युक्त खिचड़ी भरी थाली, बगल में लोटे-ग्लास में पानी। चूँकि खिचड़ी के ठंढे होने तक इंतजार करना ही था अतः पीछे रखी चटाई से पीठ टिकाकर बैठ गया। प्रतीक्षा थी खिचड़ी के ठंढी होने की। पता नहीं कब थकान और खुले दरवाजे से आती गंगा की ठंढी बयार ने मुझे सुला दिया। जब आँख खुली तब तक थाली पूरी साफ हो चुकी थी। मैं मन मसोसकर सो गया।
दूसरे दिन नित्य क्रिया के लिए गंगाजी से वापस लौटा तो मेरे मकान मालिक मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी तरह नतमस्तक। मेरा भूख से बुरा हाल था और वे थे कि मुझे महान साधक सिद्ध किए जा रहे थे।
बार-बार बोल रहे थे - मैं ने अपनी नजर से रात के 2 बजे देखा है कि कमरे में ध्यानस्थ साधक बैठा है और एक महान भैरव (बड़ा काला कुत्ता) मजे से भोग लगा रहा है। सामने पात्र (ग्लास) है, पता नहीं उसमें दक्षिण मार्गी का गंगा जल है या वाम मार्गी की मदिरा (कारणवारि)। ऐसा निर्विघ्न आमंत्रण एवं भैरव को साक्षात् भोग लगाते तो मैं ने कभी देखा ही नहीं। आप सचमुच सिद्ध पुरूष हैं। यह मैं ने देख लिया है। कुछ आशीर्वाद दें, मेरा भी भला हो।
उन्होंने आश्वासन दिया कि अगर आप वाम मार्गी हैं तो भी मैं आपको कमरे से नहीं भगाऊँगा। इतना ही नहीं पूजा सामग्री अर्थात् मांस एवं मदिरा की व्यवस्था मेरी ओर से रहेगी।
मुझे भय सताने लगा कि कहीं मेरी भैरव साधना की चर्चा घर पहुँच गई तो आगे की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा बंद हो जायेगा। मेरी भैरव साधना न करने सफाई कभी नहीं मानी गई।


मेरी काम भावना का विकास
मसूरी से आगे कैम्पटी में एक संस्था है सिद्ध। वहाँ बड़े-बड़े महान समाज सेवकों एवं बुद्धिजीवियों की एक बैठक हो रही थी। श्री अरूण कुमार पानी बाबा की कृपा से मैं भी वहाँ शामिल था, एक अज्ञानी। मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैं ने भी एक लेख लिख मारा - ”शिक्षा में मौन का महत्त्व“। बैठक में शिक्षा से संस्कार एवं संस्कार से ब्रह्मचर्य तक की बात उठी। आदरणीय राधा बहन जी और किसी पॉलिटेकनिक कॉलेज के एक प्राचार्य जी मनुष्य के अन्दर छुपी काम भावना के उन्मूलन में पूर्णतः तत्पर थे। वे दोनो ब्रह्मचारी, मैं पूर्णतः सांसारिक माया वाला आदमी। इनकी बात समझ में ही नहीं आ रही थी। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं ने अपनी उलझन रखी, सो आपको भी बता रहा हूँ।मैं गाँव में पैदा हुआ, वहाँ खेती और पशुपालन दोनो होता था। पशुओं की कामेच्छा, यौनक्रिया, गर्भधारण एवं प्रसव हमारे नित्य पारिवारिक चर्चा का प्रसंग था, क्योंकि गाय/भैस के प्रसव से हमारे दूध मिलने का सीधा रिश्ता था। बनिए के कर्ज की भरपाई खेती से नहीं पशुपालन से ही हो पाती थी। 10-12 साल तक भले ही हमने मनुष्य को रति क्रिया करते न देखा हो किन्तु पता था कि मनुष्य भी कुछ ऐसा ही करते हैं। 16-17 साल तक अपनी जवानी भी चढ़ने लगी थी। 20 साल की उम्र कॉलेज के दिनों की। आए दिन संत महात्मा, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते-सुनाते मिलते तो घर के बड़े लोगों के साथ बहनों की शादी के लिए वर ढूंढ़ने जाने में भी झोला ढोने के लिये बे मन उनका साथ देना पड़ता। मुख्य चिंतन का विषय लड़के-लड़की की कद-काठी, दोनो के भावी दांमपत्य के मूल आधार, कमाई की संभवना, संततियोग एवं शारीरिक संरचना होते। और तो और जब हम जिम्मेारी के लायक माने जाने लगे तो हमें पशु मेले से बछिया और कड़िया (भैस का मादा बच्चा) खरीदना सीखना था। दो बातें मूल थीं कि के आगे बछिया और कड़िया चलकर दुधारू हो, प्रसवकाल में मरे नहीं। पूरी जवान गाय, भैस के शरीर विकास का अनुमान, चमड़ी से हड्डी तक पैनी नजर पहचानने वाली बने, यही तो काम था। जब जानवर समझा तो आदमी भी समझ में आने लगे।
इस प्रकार मेरी काम भावना का विकास होता रहा। बाहर की औरत के पहले हमें तो भीतर की औरत से भंेट कराया गया, उसका मजा ही अलग है। इस प्रसंग को बाद में लिखूँगा। हाँ तो इस प्रकार सृष्टि के नजदीकी सभी रूपों को काम भावना की दृष्टि से देखने-सुनने, विचार करने की प्रक्रिया पर मुझे समाज के किसी सदस्य ने न कभी टोका, न मना किया, इसलिये उस बैठक में समझ में नहीं आया कि मेरी काम भावना के विस्तार से समाज को क्या संकट हुआ ?अब तो अगर अविवाहित लड़के-लड़के दिखे नहीं कि तुरन्त ख्याल आता है कि जोड़ी कैसी रहेगी? ठीक लगी तो लगता है इनकी शादी हो जाती। मेरा बेटा भोपाल में पढ़ता है, उसकी बहू के लिए ख्याल आ ही जाता है। मैंने अपनी तीन बहनों एवं दो भाईयों की शादी में सीधे जिम्मेवारी बड़े भाई के रूप में निभाई। हर साल एक-दो जोड़ी का जुगाड़ बैठाता हूँ। मुझे अपने बेटे के लिए अच्छी बहू के साथ एक अच्छी खूबसूरत समधन भी मिल जाये तो और अच्छा। इससे न तो मेरी पत्नी को समस्या होगी न एक मस्त समधी से मुझे जो हँसी मजाक में रस लेने वाला हो। बुढ़ापे का सुख तो इसी में है कि दूसरे को खेलते-खाते हँसते देख अपनी जवानी और बचपन की बेवकूफियों पर हँसा जाए, नहीं तो जलन का रोग चिता पर चढ़ने से पहले ही जला डालेगा।
मुझे समझ में नहीं आता कि ब्रह्मचर्यवादियों की समस्या क्या है? मेरी काम भावना के विकास से उन्हें क्या कष्ट हो सकता है? उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया। यदि मेरा रास्ता गलत हो तो सुधार का प्रयास इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो किया ही जा सकता है। अन्यथा यह काम भावना पोते-पोतियों की पीढ़ी तक फैलती ही जायेगी। ईश्वर जाने आगे क्या होगा?

7 टिप्‍पणियां:

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    बहुत अच्छे संस्मरण से रू-ब-रू करवाने के लिए साधुवाद।
    उपाध्याय वि.कु.

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