संस्मरण 5
काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
काका साहब की दाढ़ी 1970 के आस-पास काफी लंबी हो चुकी थी। चौड़ा चहेरा और सुंदर सफेद दाढ़ी मुझे अच्छी लगी थी। मेरी उम्र 10-11 साल के करीब होगी।
राजगिर, बिहार में सर्वोदय सम्मेलन था। मैं अपने पितामह के साथ था । किसी फूजी गुरूजी की चर्चा थी। उसी समय राष्ट्रपति के द्वारा शांति स्तूप का उद्घाटन होना था लेकिन मैं राष्ट्रपति से अधिक उनके उड़नखटोले के प्रति उत्सुक था। खैर दोनों केा देख लिया, कुछ खास मजा नहीं आया।
अब बारी महापुरुषों से मिलने की थी। गाँधी से मिल नहीं सकता था। मेरा जन्म 1959 में हुआ, ऐसा लोगों का कहना है। मैंने सोचा कि इस भीड़ में मैं बड़े लोगों से कैसे नजदीक से मिल सकता हूँ। तब बाबा (मेरे पितामह)से पता चला कि सबके अंतरंग क्षण एवं समय भी होते हैं। बिनोबा जी से मिला, ठीक-ठाक काम चलाऊ आदमी थे। खुशी की बात थी कि बच्चों से भी बात कर सकते थे। जयप्रकाश जी को बच्चे समझ में नहीं आते थे। मेरा एक बार उनसे मुकाबला हुआ। मैं अपनी फुलवारी के बिचड़े के लिये उनकी अच्छी सी माला जो उन्होंने उतार कर रख दी थी उसे पाने के प्रयास में था और उन्हें मेरी हरकतें नागवार लग रही थीं। चोर सिपाही के इस खेल में मुझे डर तो लग रहा था पर उन्हें छका कर बड़ा मजा आया। इसका वर्णन अलग से करूंगा।
काका कालेलकर जी के कमरे में हमलोग पहुँचे। उस समय वे राज्य सभा में सांसद थे। मेरे पितामह की भी दाढ़ी थी। पितामह ने पूछा काका साहेब! आपने दाढ़ी क्यों बढ़ाई? काका साहब ने पूछा - दाढ़ी तो आपकी भी बढ़ी हुई है, आपने क्यों बढ़ाई? मेरे पितामह ने कहा मैं तो 1923 से ही बढ़ाए हूँ, उस जमाने कहाँ नाई ढ़ूढ़ता, जो बढ़ गई सो बढ़ती रही। आपने तो बाद में बढ़ाई। काका साहब ने कहा - पाठक जी! दाढ़ी मेरे पूरी फक सफेद है। यह तो मैं अब बुढ़ापे का प्रमाण बना गले में लटकाए फिर रहा हूँ कि कुछ तो आराम मिले वरना लोग मुझे बूढ़ा मानने को तैयार ही नहीं। बाद में मुझे उनके कुछ विनोद पढ़ने को मिले। मैं जब भी पढ़ता मुझे काका कालेलकर जी, उनकी दाढ़ी और वे क्षण याद आ जाते।
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