प्रेत भोजन
1980 की बात है। मै बी0एच0यू0 का छात्र था। हॉस्टल नहीं मिला था। कमरा खाली नहीं था, उस समय हॉस्टल में गुंडों का बर्चस्व था। तात्पर्य है कि पहले छात्र को कमरे पर काबिज होना पड़ता था। आवंटन आदि की औपचारिकता बाद में पूरी कर ली जाती थी।
कला संकाय के छात्रों को बिरला छात्रावास मिलना था। समस्या गंभीर थी, एक तो कमरे का मिलना, फिर गुंडो का आतंक। पता लगाने पर पता चला कि एक कमरा 198 नंबर का खाली है, जिसे कोई लेने को तैयार नहीं है। वह कमरा अभिशप्त माना जाता था। उसमें रहने वाले पूर्ववर्ती 2 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी। उस समय उसमें अस्थाई योग शिक्षक मौर्य जी का भोजन बनता था क्योंकि घर में उन्हें मनोनुकूल भोजन नहीं मिल पाता था। मौर्य जी हठयोगी थे। उनका प्रेशर कूकर 8 लीटर का था। 24 घंटे में एक बार खाना पसंद करते थे। भारतीय होकर भी पूरे अफ्रीकी कद-काठी के थे। उनसे लड़ने का किसी को साहस नहीं था और उनका स्वभाव अति विनम्र।
मौर्य जी ने कमरा देना स्वीकार किया। असली बात यह थी कि मैं रह सकूँगा या नहीं। अप्रैल के महीने में एक रात मेरा ‘कमरा प्रवेश’ हुआ। न बिस्तर, न पंखा, जो चौकी थी उस पर तकिये के रूप र्में इंट पर गमछा रखकर सो गया। सोने में उस्ताद होने पर भी नींद आते ही भय घेरने लगा।
पहले बरामदे में रूनझुन आवाज आई, फिर करूण क्रन्दन, फिर 2 प्रेत दिखाई दिये और उसके बाद प्रेतों का मेला ही लग गया। पता नहीं रात के कितने घंटे बीत गए। मुझे प्रेत नोच रहे थे, कोई गला दबा रहा था। लगता कि अब साँस बंद हो जायेगी और मौत हो जायेगी।
अचानक मेरे मन में विचार आया कि मुसीबत में हनुमान जी काम आते हैं। हनुमान जी का विचार आते हीं मुझमें भी ज्ञान एवं बल का संचार होने लगा। आइडिया की तो बात ही क्या कहिये? विचार आया कि सुरसा जब मुँह फैला कर हुनमान जी को उदरस्थ कर सकती है, तब मैं ही क्यों नहीं इन प्रेतों का भोजन कर लूँ।
आम तौर पर जगे हाल में शाकाहारी ब्यक्ति भयानक प्रेतभोजी हो गया। मैं ने मुहँ फैलाया और साँस के बल पर प्रेतों को खींच खींच कर भोजन करता रहा। भय भयानक आत्म विश्वास में परिवर्तित हो चुका था। आस-पास के सारे प्रेत समाप्त हो चुके थे।
इस क्रम में मेरे पेट के अंदर हवा भरती जा रही थी, आनंद मस्ती अलग। जब भर-पेट भोजन हो तो डकार आयेगी ही। तो मुझे भी लंबी-लंबी डकार आने लगी। उसकी आवाज से पड़ोस के कमरे के लोगों को परेशानी होने लगी कि इस कमरे से ऐसी आवाज क्यों आ रहीं है। उस कमरे में निशाचर प्रकृति के लोग रहते थे। निशाचर मतलब छात्रवेश में छुपे अपराधी। उन्होंने टार्च जलाया, कमरा खुला था, बल्ब तो था ही नहीं। एक शव जैसा देख बे घबराये। साँस एवं डकार के कारण उन्हें मुझे छूने की हिम्मत जुटानी पड़ी। मुझे झकझोर कर जगाया।
मेरा स्वप्न बाधित हो गया था। भोजन से संतुष्टि पूरी नहीं हुई थी। मैं ने चिढ़कर जवाब दिया कितना अच्छा भोजन चल रहा, बीच में ही किसने विघ्र डाल दिया, लगता है तुम्हें ही खाना पडेगा।
उन्होने पूरी तरह जगाया। परिचय पूछा, नींद एवं स्वप्न का हाल बताना पड़ा। वे मुझे डरा नहीं सके। मैं उस कमरे में लगभग 5 महीने रहा। प्रेत भोज के बाद मृतआत्माओं का प्रकोप तो नहीं हुआ किन्तु उन निशाचरों ने बाद मे मुझे बहुत कष्ट दिया।
अद्भुत संस्मरण. वाह...
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