रविवार, 30 जुलाई 2017

आखिर ऐसा क्यों, क्या लिखना ??
इन दिनों मैं लिखना लगभग बंद कर पढ़ने के बकाए काम में लगा हूं। लिखने के कई काम आधे- अधूरे पड़े हैं तो कुछ की शुरुआत ही नहीं हो सकी है। तैयारी में ही लगभग 20 साल बीत  गये।
जिसका आरंभ ही नहीं हो पाया, वह काम है- तंत्रालोक ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद। यह  न केवल कश्मीर शैव परंपरा अपितु भारतीय तंत्र परंपरा के कई धाराओं के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। पता नहीं किसी अन्य भाषा में भी अनुवाद हो पाया या नहीं? अनुवाद के प्रकाशन एवं अनुवाद के मददगार फुटकर मदों में आर्थिक सहयोग की भी समस्या नहीं रही। बिहार योग विद्यालय के श्री स्वामी निरंजनानंद सरस्वती जी इसके लिए सदैव तत्पर रहे।
आज यह बात मैं बहुत भारी मन से लिख रहा हूं। मैं बिना पढ़े आश्वस्त हो गया था कि मैं ने न सही, एक बड़े विद्वान श्री परमहंस मिश्र जी ने यह काम कर दिया और संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से यह ग्रंथ 8 भागों में प्रकाशित भी हो गया।
इस साल मैं ने समय निकाल कर इसे पढ़ना शुरू किया तब मुझे अपने 2 गुरुओं के द्वारा मेरे लेखन के ऊपर लगायी गयी पाबंदी का औचित्य पूरी तरह सामने आ गया।
आदरणीय मिश्रजी ने बहुत भारी श्रम किया है लेकिन यह सावधानी रखी कि बात आसानी से किसी को समझ में न आए, ...... हिन्दी में लिखें भी तो इस तरह कि अर्थ बोध संस्कृत से भी कठिन हो जाए? मेरे मन में सवाल उभरा --- आखिर ऐसा क्यों, क्या लिखना ??
आ. मिश्रजी भी कश्मीर शैव परंपरा के प्रख्यात गुरु एवं विद्वान पूज्य लक्ष्मणदेवजी के शिष्य होने का दावा करते हैं। लक्ष्मणदेवजी एक विद्वान विदेशी शिष्य हैं- जॉन ह्युग्स। उन्होने लक्ष्मणदेवजी के प्रवचनों के आधार पर एक पुस्तक तैयार की - ‘‘कश्मीर शैविज्म: द सिक्रेट सुप्रिम’’। वाह!!! कितनी सरल और सुबोध? एक      साधारण अंग्रेजी पढ़ने वाले के लिए भी सुगम और अर्थों को पगट करने वाला। इन दोनो को मेरा कोटिशः प्रणाम। अफसोस मिश्र जी!! आपने तो अपने गुरु से यही नहीं सीखा, तो क्यों, क्या लिखा?? संस्कृत पढ़े हिन्दी वालों की यह कैसी मानसिकता है?
अब अपने गुरु निर्देश की बात। पहला निर्देश--अपने आध्यात्मिक गुरु स्व. राम सुरेश पाण्डेय जी से मैं ने जब तंत्रालोक के अनुवाद की बात कही तो उन्होंने कहां देखो जी, पंडितों ने बहुत गडबड़ी की है। क्या तुमने इस ग्रंथ को समझ लिया है कि चले अनुवाद करने? अनुवाद क्यों किया जाता है? उसे सरल करके पाठकों तक पहुचाने के लिए, न कि और अधिक उलझा देने के लिए। मैं मना तो नहीं कर सकता लेकिन जब तक  स्वयं समझ में न आये, तब तक किसी भी पुस्तक का अनुवाद मत करना।
यह कैसे पता चले कि बात समझ में आयी या नहीं?? इसका समाधान मेरे एक अन्य गुरु प्रो. केदारनाथ मिश्र जी ने बताया था कि भारतीय धर्म, दर्शन या संस्कृति की बात जब तुम अंगरेजी में कह सको तो समझ लेना कि समझ गये। हिन्दी में कहने में क्या लगता है? उन्ही तत्सम तथा पारिभाषिक शब्दों को ही नहीं, उन्ही सर्वनामों के साथ केवल हिन्दी की विभक्तियों को जोड़ दो, हो गया अनुवाद, खुद समझ में आये न आये।
भारतीय गुरु विदेशियों पर इतने कृपालु क्यों? इसका एक उत्तर तो यह भी मिला कि जो गुरु स्वयं उदार हो कर विषय को प्रगट करना चाहता हो, उसी तरह बोलता हो वह भला क्यों चाहेगा कि उसके देशी या ब्राह्मण शिष्य कोई भी उसे फिर से उलझायें या अति गुप्त दुरूह बना दें।
आखिर ऐसा क्यों, क्या लिखना ?

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