सोमवार, 21 दिसंबर 2015

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1 टिप्पणी:

  1. गीता प्रेस की इस कुशलता का जवाब नहीं है। काफी पहले, अपने कुल्लू प्रवास के पहले और उसके दौरान मैंने प्रयास शुरू किया कि कथा तत्व को अक्षुण्ण रखते हुए वाल्मीकि रचित रामायण का संक्षिप्त हिंदी गद्य रूपांतर प्रस्तुत करूं। लेकिन की गई मिलावटों को देखकर मेरा तीस पृष्ठ पहुंचते-पहुंचते मन खिन्न हो गया और मैंने प्रयास बंद कर दिया।
    दरअसल अपना खाका तैयार कर चुकी लगभग सारी धाराओं का प्रयास होता है कि लोग शास्त्रों को पढं़े ंतो अपनी आंखों से लेकिन अपनी बुद्धि से समझें नहीं। इसी भय से उन पर अंधश्रद्धा का इतना गहरा लेप चढ़ाया जाता है कि सात परत उघाड़ने पर भी सत्य का पता नहीं चले। परिणाम होता है कि जिन लोगों को सत्य का भान होने लगता है वे अंधश्रद्धा से अंध अश्रद्धा की दूसरी अति पर पहुंच जाते हैं और पूरी चीज को ही कूड़ा मान बैठते हैं। वाल्मीकि रामायण का संक्षिप्त रूपांतर प्रस्तुत न करने के प्रयास को यही कहा जा सकता है।
    विडंबना यह है कि भारतीय धर्मग्रंथों के कितने संस्करण हैं और कौन असली है, यह बताना शायद किसी के लिए भी संभव नहीं है। फिर इनके रहस्यों को सुलझाने की जगह उलझाने को ही विद्वत्ता का मापदंड मान लिया गया है। इस स्थिति में इनके असली संस्करणों की पुष्टि और उनका संरक्षण-प्रकाशन एक बड़ा काम है। दूसरी ओर, लोक धर्म और लोक जागृति के लिहाज से इनकी उपयोगिता को स्पष्ट करने का काम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस दिशा में योजनाबद्ध काम से देश-समाज का काफी भला हो सकता है और लोगों को नई दिशा मिल सकती है अन्यथा स्वार्थी और कूपमंडूक लोग तथा फिल्में लोगों को भटकाती ही रहेंगी।
    राज बल्लभ

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