दर्शन-दर्शन का खेल 2
बात 1981 या 1982 की है। मैं शिक्षक पद के लिये साक्षात्कार देने गया । मुझसे एक विशेषज्ञ ने पूछा- आप न्याय-वैशेषिक में शोध कर रहे हैं। भारतीय दर्शन के छात्र हैं तो बताइये कि भारतीय दर्शन में प्रमाण कितने माने गये हैं, और उनका स्वरूप क्या है?
मैं भारी असमंजस में पड़ा कि किस दर्शन को आधार मान कर बताऊं कि प्रमाण का स्वरूप क्या है? यहां तो कई दर्शन हैं और प्रमाण के स्वरूप भी सबके अलग हैं। यह उलझन तो अनेक दर्शनों को एक भारतीय दर्शन मानने से बनती है। वस्तुतः न प्रमाणों की संख्या में एकरूपता है न स्वरूप में। मैं ने सीधा सा उत्तर दिया मैं ने कोई भारतीय दर्शन नहीं पढ़ा। पता नहीं इसका विवरण संस्कृत, पालि या प्राकृत के किस ग्रंथ में है।
मैं अच्छी तरह जानता था कि यह तो स्वनामधन्य दासगुप्ता और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के दिमाग की उपज है। वस्तुतः दर्शन 6 और चार्वाक लोकायत आदि मिला कर कोई 7 कोई 8 कोई 9 भी मानते हैं। सभी के सभी अपने लक्ष्य के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रमाण एवं प्रमेय वाले।
और तो और यदि पुराने में से सांख्य को ही लें तो प्रकृति-पुरुष का वही संबंध और विवरण गीता या कालिदास के शंकुतला नाटक में नहीं मिलता, जो सांख्यकारिका या सांख्य सूत्र में है।
ऐसे में मुझे कहां से अधिकार मिलता है कि मैं यहां की सीेंग और वहां की पूंछ मिला कर एक नये दर्शनीय जीव की सृष्टि कर दूं। जो अपने को समर्थ मानते हैं वे रोज करते रहते हैं। मेरी सीमा यह है कि जहां जो लिखा या कहा गया है, उसे उस संदर्भ में वैसा ही प्रस्तुत करूं।
इस दृष्टि से आगे कुछ नमूने प्रस्तुत करूंगा, आप चाहें खुद मिला कर देखिये। असहमत होना आपका हक है।
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