आज कल अतिवादी धाराओं को अवसर मिल गया है। एक अतिवाद दूसरे का सहारा होता है। एक गाली दे तो फिर आगे का सिलसिला जारी रहता है। इस प्रक्रिया में दोश्ती और दुश्मनी दोनों की असली बातें छूट जाती हैं। ध्यान हट जाता है कि आखिर झगड़े का असली कारण क्या है? उससे किसे लाभ है किसे हानि?
चिंतन और चिंता इस बात पर आ जाती है कि किसकी गाली किसे कितनी चुभती है। गालियां सच में चुभती हैं अन्यथा इतने जतन से न जुगाड़ कर रखी जातीं न ही उनके निशाने की तलाश कर कर उनका प्रयोग किया जाता।
मेरे एक वरिष्ठ विद्वान सहकर्मी थे, लगभग 10 साल वरिष्ठ। 3 भाषाओं की एम.ए. उपाधि में स्वर्णपदक प्राप्त प्रो. ब्रजमोहन पांडेय ‘नलिन’। भाषा विज्ञान पर भी अच्छी पकड़ थी।
उसके बाद उन्होंने दक्षिण बिहार की गालियों पर गहन अघ्ययन किया और नियमित रूप से उसका उपयोग भी खूब किया। मैं भी 2-3 बार शिकार हुआ उसके बाद मैं ने हार मान ली। श्रीमान जी श्वसुर देवता कोटि के थे। बाद में जब उन्हे महसूस हुआ कि गालियों में मेरा रस नहीं है तो बस ‘ दसवां ग्रह’ कह कर संतोष कर लेते थे। जामाता दसमो ग्रहः। दामाद 9 ग्रहों से बड़ा दसवां ग्रह होता है।
उनकी संगति में सहज उपजब्ध गालियों का भाषाई, सामाजिक, आर्थिक संदर्भों पर ध्यान देने पर अनेक अद्भुत बातें समझ में आईं। भाषाई हथियारों में यह सबसे घातक साथ ही आकर्षक और आसान है, बस परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। यह अनेक मनो रोगों को नष्ट भी करता है। आध्यात्मिक जगत में भी इसका बहुत आकर्षण है। जो गाली न दे उसकी साधुता और भक्ति संदिग्ध मानी जाती है।
भारतीय राजनैतिक धाराओं ने भी अनेक गालियां गढ़ीं और कुछ का परिष्कार भी किया। हिंदी की वामपंथी धारा में राहुल सांकृत्यायन ने अपने लिये एक गाली चुन ली और उसका अर्थ ही उनके अनुयायियों ने बदल दिया। ‘महा पंडित’। उसके पहले केवल पंडित होते थे। पंडित ही काफी है, उसमें महा क्या लगाना? महा पंडित तो मूर्ख होगा? खैर तब से महा पंडित की प्रतिष्ठा बढ़ गयी।
ध्यान देने की बात यह कि इसमें किसी का दिल दुखाया नहीं गया। आज कल समाज के असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिये गाली गलौज की खतरनाक प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है। महौल बिगड़ा ही था कि कर्नाटक के एक साहित्यकार कलबुर्गी साहब की हत्या कर दी गयी। तबसे विवाद बढ़ता ही जा रहा है। हत्या तो किसी हत्यारे ने ही की है। उस हत्या से जो प्रसन्न हों वे मानसिक रूप से हत्यापसंद लोग हैं। उन्हें शांति एवं सहजीवन पसंद नहीं है।
हमारा दुर्भाग्य यह है कि भारत में अभी भी हत्यापसंद बुद्धिजीवियों की कोई कमी नहीं है। वे केवल अपने पक्ष के लोगों के मारे जाने पर रोते हैं, हल्ला मचाते हैं दूसरे के समय तो उत्सव मनाने लगते हैं। कोई हत्यारे को क्रांतिकारी कहता है कोई सेवक या कि जेहादी और भक्त। अभी मुझे अंग्रेजी वाला शब्द पता नहीं चला है।
यह बुद्धिजीविता नहीं है। यदि आप असहमत हैं तो पूरी दृढ़ता से कहें, विरोध करें और विरोधी के उग्र होने पर उसकी असहिष्णुता को प्रगट करें, गाली-गलौज मारपीट से हत्या तक जाने की परंपरा स्वयं को नष्ट करने वाली है। यह स्वयं को कैसे नष्ट करती है - इस पर अगली किश्त में।
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