गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

पुराना/नया जीवन

पुराना/नया जीवन शुरू हो रहा है- 
सुनने में बात जितनी अटपटी लगे, सच्चाई में वैसा ही है। हम सभी जैसे जैसे बड़े होते हैं परिवार और समाज  हमें कुछ खांचों में साजने और मांजने लगता है। कुछ लोग बच्चों को ढालने तक की कल्पना करते हैं, जैसे कि उसकी कोई जन्मजात मौलिकता ही नहीं हो। कोई भ्रम चाहे जो पाल ले लेकिन कद-काठी की तरह मन और वाणी की बनावट में भी अनेक बातें जन्मजात रूप से मौलिक होती हैं।
कृत्रिम प्रशिक्षण से जो जितना दूर होता है, उसके व्यक्तित्व का विकास उतना ही अधिक अपनी जन्मजात मौलिकता के अनुरूप होता है।
योग साधना की दृष्टि से अपनी इस जन्मजात मौलिकता के अनुरूप संरचना में रहना स्व-भाव है। इसमें रहने का पहला पुरस्कार स्वास्थ के रूप में मिलता है। स्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ होता है- स्व में स्थित होने का भाव। हमारे यहां निरोगिता और स्वास्थ्य दानों के दो अर्थ हैं। एक योगी रोगी हो सकता है, अस्वस्थ नहीं। अस्वास्थ्य अपने मौलिक रूप में न रहने के कारण होता है। अस्वास्थ्य का आयुर्वेद में पर्यायवाची होगा ‘‘निज रोग’’ जो गलत आहार-व्यवहार और प्रज्ञापराध के कारण उत्पन्न होते हैं। जिनका कारण आंतरिक होता है न कि बाह्य। बाह्य कारण, कीटाणु, विषाणु जैसे रुद्रगण के प्रकोप और दुर्घटना या राजा और प्रकृति के प्रकोप से होने वाले रोग बाहरी हैं, जो आगंतुक हैं। इनसे पूरी तरह बच पाना संभव नहीं है। न ही स्वयं को या किसी अन्य को ऐसे रोगों के लिये दोषी ठहराना उचित है। 
अपने स्वास्थ के लिये अपनी जन्मजात मौलिकता/प्रकृति के अनुरूप जीवन जाना जरूरी होता है। इसलिये  शिक्षण-प्रशिक्षण से आई नकली बातों, मूल प्रकृति के विपरीत बातों से तन-मन को मुक्त कर पुराना/नया जीवन शुरू हो रहा है। पुराना इसलिये कि जन्मजात प्रकृति आधारित है, नया इसलिये कि बीच में प्रशिक्षण एवं भ्रम आधारित जीवन से भिन्न होगा।

1 टिप्पणी:

  1. फिर तो लोगों की निगाह में पागल बनने के लिए तैयार रहिए। उल्टी खोपड़ी वालों को सीधी चीजें उल्टी ही नजर आएंगी। वैसे ऐसी स्थिति के मामले में कुछ अन्य देशांे में भी प्रयास हुए हैं। एक दक्षिण अमेरिकी देश में कुछ उच्चाधिकारियों ने अपने समाज के कल्याण के लिए ईमानदारी से प्रयास शुरू किया। इस दौरान उन्हें अधिकांश कार्यक्रम अपने-अपने उद्देश्यों में असफल नजर आए। कारणों का अध्ययन करने के दौरान उनलोगों ने पाया कि सारे कार्यक्रम जनसमुदाय की रुचि/ मनःस्थिति की उपेक्षा करके बने थे। कारणों की तह में जाने पर उनलोगों ने पाया कि खुद उनलोगों के दिमाग का औपनिवेशीकरण हो गया है। इसके बाद उनलोगांे ने अपने दिमागों का सप्रयास अनौपनिवेशीकरण किया और उसके बाद उनके नेतृत्व में बनी योजनाएं असाधारण रूप से सफल हुईं। ‘डिकोलोनाइजिंग अवर माइंड’ उनलोगांे की लिखी मशहूर पुस्तक है।
    राज बल्लभ

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