सोमवार, 15 सितंबर 2014

जिउतिया की पूर्व संध्या पर

एक बात पहले ही साफ कर दूं कि मैं इन्द्र आदि देवताओं और स्वर्ग में एक पक्षीय श्रद्धा नहीं रखता। अतः अपने 3-4 पोस्टों के माध्यम से स्वयंभू देवभक्तों की गालियां सादर स्वीकृत हैं। चूंकि विष्णु पक्षपाती हैं और कपट में विश्वास करते हैं, इसी परंपरा में एक सिद्धहस्त कपटी की भांति दूसरों को कपटी घोषित कर अंततः दंडित करते हैं अतः वे भी निष्पक्ष नहीं हैं। 
आगे के पोस्टों की कथा एवं सूचनाएं पंरंपरागत तथा ग्रंथों पर आधारित हैं। व्याख्या मेरी है।
इस पृष्ठभूमि में स्मरण करें कि भारत के क्षत्रियों के प्रसिद्ध कुल हैं- सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी बाद में अग्निवंशी भी। ये सभी मुख्यतः मैदानी इलाके वाले हैं, जो बाद में अन्यत्र भी बसते गये। इनके समानांतर छोट या बड़े और मुख्यतः पहाड़ी-पठारी इलाकों में जो राजे रजवाड़े हुए वे हैं नागवंशी। यहां नागवंशी कहने का मतलब कत्तई केवल राजा शिशुनाग और उसके वंशज नहीं है।
नागवंशी राजाओं की कथा भी महाभारत काल से चलती आ रही है। इनके पक्ष विपक्ष में न केवल मैदानी भारत में ध्रुवीकरण होते रहे बल्कि पूरा भारत, चीन तथा दक्षिण एशिया भी राजनतिक तथा सांस्कृतिक वर्चस्व के संघर्ष में लगा रहा।
जीउतिया की कथा इसी वर्चस्व के संघर्ष की कथा है, जिसमें हिंसा पर अहिंसा के विजय की गौरव गाथा तथा श्रद्धांजलि है। जीउतिया के पहले दिन गरुड की हिंसा की भेंट चढ़े विद्याधर हिमालय वासी जीमूतवाहन की पीड़ा का स्मरण कर दिन भर शोक मनाने उसके जीवन रक्षा की कामना करने तथा दूसरे दिन जीवन बच जाने पर उत्सव मनाने का। 
वैष्णव धारा की अहंतुष्टि कि हमे जीमूतवाहन को विष्णु का पार्षद बनाया और बौद्ध धारा की संतुष्टि कि चलिये विष्णु जैसे पक्षपाती और गरुड जैसे क्रूर का भी हृदय परिवर्तन हो गया। इस पूरे घटनाक्रम को हृदय में और जीमूतवाहन के पक्ष में मगध मिथिला की महिलाएं हैं, पुराना बौद्ध समाज है, नागांनद नाटक है। स्थानीय गरीब, दलित लोग हैं, खाश कर भूंइयां और तांती जाति के लोग।
विरोध में काशी कुल के लोग हैं, जो आकर मगध में बसे हैं, उन्हें आदर्श मानने वाले ब्राह्मण हैं। मगध को विष्णु क्षेत्र बनाने वाले श्राद्ध जैसी शैव परंपरा के अनुष्ठान को वैष्णव व्यवसाय बनाने वाले लोग हैं। क्रमशः जारी

5 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा हा... आपने विष्णु जी को पकड़ लिया और गरुड़-नाग और जीमूतवाहन का भी परिचय मिल गया | लेकिन इस जिउतिया में एक कथा और जुडी है- चिल्हो और सियारों की | जिउतिया के सुबह (ब्रह्ममुहुर्त के समय) सरगही करने और चील -सियार के नाम ओठगन (आटे और शक्कर के देशी कूकीज) के टुकड़े फेंकने का रिवाज(?) है | चील तो गरुड़ का प्रतीक समझ में आता है, लेकिन यह सियार क्यूँ? क्या इसमें भी कोई जातक कथा का समावेश है | अपने प्रश्नों का उत्तर जानने कि तीव्र उत्सुकता है | आपके अगले पोस्ट के इन्तजार में....

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  2. जहाँ तक स्वयं को समझता हूँ- अन्धभक्त नहीं हूँ।पक्षपाती भी नहीं कह सकता।औकाद भर खोज में लगा रहता हूँ।इनसबके बावजूद कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है- बिष्णु का पक्ष पात...श्राद्ध का शैवत्व...श्राद्धीय व्यवसाय आदि।हो सकता है अगले पोस्ट से मेरी शंका कुछ दूर हो पाये...या और उलझ ही जाय...।
    प्रस्तुति के लिए साधुवाद।

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  3. मैं ने मानी आपकी बातें, किसी पर निजी टिप्पणी भी नहीं थी। अब मिला कर देखा जाय-
    1 गया की पिंड बेदियों के देवता कौन? गदाधर, विष्णुपद, गदालोल को छोड़ कर सर्वत्र शिव। मृत्यु के देवता शिव, यह तो सहज क्षेत्राधिकार है। विष्णु जी पालनहार तक ही क्यों न रहें? श्राद्ध के बाद से पुनर्जन्म तक यम ब्रह्मादि का क्षेत्राधिकार है न? इसमें दखलंदाजी से ़ित्रदेव व्यवस्था बिगड़ती है।
    2 गया का असली पंडा कौन? धामी जो 12 आने का मालिक या गयावाल जो 4 आने का?
    3 दशगात्र की विधि वाली छोटी पद्धतियों को छोड़ें, इसकी मूल विधि, मृत शरीर वाली जीवात्मा के आवाहन, उसे दीक्षा देने के लिये उसके गात्रों का संयोजन, उसमें काल बोध के लिये छोटे-बड़े संकल्पों का आधार ये सभी कहां वर्णित हैं? शय्यादान और उसमें लक्ष्मी नारायण पूजा का मूल विधि से क्या संबंध है?
    4 जब बिना विष्णु पूजा के श्राद्ध का मूल कर्म संपन्न हो जाये, उसके प्रेतत्व की समाप्ति हो जाय तब वह आगे की अद्वैत की ओर जानेवाली पूर्ण मुक्ति की साधना क्यों न करे उसी शैव मार्ग से जिसकी जगह द्वैत और हीन स्थान वाले वैष्णव लोक या स्वर्ग में जाये। वह ब्रह्माजी वाले या पितर लोक में भी तो रह सकता है।
    5 जब अगदेउआ पिंडदान से गात्रसृष्टि कर सकता है, तो वह गात्रसृष्टि सूक्ष्मशरीर की होगी या स्थूल शरीर की? और जब उसकी मानसिक स्थिति/एकाग्रता/लीनता/संवेदनशीलता आप जो कहें, गात्रसृष्टि कर सकती है तो सहज है कि मृतात्मा से उसका संवाद होगा। फिर मृतात्मा न बतायेगी कि उसकी शेष अतृप्त इच्छाएं क्या हैं। उसकी पूर्ति के लिये उत्तराधिकारी ‘पितरो वाक्यमिच्छंन्ति’ के अनुसार यथा सामर्थ्य जवाबदेह होंगे।
    5 यहां शय्यादान का बना-बनाया लगभग एक ही प्रकार वाला वैष्णव कर्मकांड जोड़ दिया गया, विष्णुजी की पसंद के अनुसार या उनके लोक के अनुसार या पंडितों की पसंद के अनुसार सामान दान करने की व्यवस्था कर दी गई । यह व्यवसाय हुआ कि नहीं? मृतात्मा के शेष संस्कारों के अनुसार क्यों नहीं? क्या पता किसकी कौन सी इच्छा शेष हो।
    5 जिसका शव नहीं मिला, उसके अंतिम संस्कार का ही नहीं, उसमें प्राण संचरण की प्रक्रिया किसी वैष्णव अनुष्ठान विधि में मिलती हो तो क्षमा मांग कर अपनी भूल सुधारने को तत्पर हूं। मेरा भी कोई दुराग्रह नहीं है। कृपया पुराणों को उद्धृत करने के पहले उसके बारे में पक्षबद्धता भी मिला लेंगे।
    6 मेरे अंदाजे से यह ब्रह्मात्मैक्य रूपी अद्वैत मुक्ति की जगह लोगों को स्वर्ग या स्वर्ग सदृश हीन भाव युक्त विषयभोग आधारित किसी अवस्था या लोक में ले जाने का षडयंत्र लगता है। ऐसे आदर्श वाला मनुष्य इस संसार में भी बड़ी राजशाही और छोटी राजशाही की तरह के सामंतवाद का विरोध नहीं करेगा। दासता की जगह केवल पार्षद बनने तक का ही सोच सकेगा। यह हुआ सांसारिक पक्ष, जो गुलामी का समर्थक है, मुक्ति का नहीं। तब ब्रह्मर्षि कैसे बनेंगे?
    7 मगध में वैष्णव मत पूर्ण मोक्ष की जगह स्वर्ग का षडयंत्र करता है। विष्णु का देवताओं का पक्षधर होना पूरी परंपरा में है। अच्छे असुरों को भी सताने, धोखा देने के अनेक वृत्तांत हैं। गया के संदर्भ में गयासुर की छाती पर दान मांग कर चढ़ जाना आपको उचित जान पड़ता हो तो फिर आप मुझे ही पक्षपाती मानें। बाणासुर से झगड़ना और फिर रक्त संबंध भी बना लेना यह सब क्या है? कथाएं अनेक हैं।
    8 नागपुर से पूना तक में बसे मराठी ब्राह्मणों और अहिल्याबाई के माध्यम से मराठा/पेशवा वर्चस्व के विरुद्ध तो शैव संन्यासियों तक को युद्ध करना पड़ा था। गयावाल और पेशवा संबंधों को खंगालेंगे तो भेद खुल जायेंगा। पंचतंत्र के लेखक ‘सहस्रबुद्धि’ वालों का क्यों मजाक उड़ा रहे हैं?
    9 आज शाके की प्रामाणिक संवत्सरीय व्यवस्था को राज्यसत्ता संरक्षण से किसे चिढ़ है? कौन विक्रम संवत्सर के लिये बेचैन है? शंकराचार्य, माघ्वाचार्य आदि साधु, ज्योतिषी या संघ परिवार। क्यों नहीं संक्राति आधारित संवत्सर चलें? क्या ये मराठी गुड़ीपावड़ा को प्रतिबंघित कर लेंगे या लोहड़ी को? खेल गहरे होंगे तो कहा तो जायेगा ही कि पर्दे के पीछे क्या है।

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  4. प्रणाम, प्रश्न सटीक हैं। उत्तर का प्रयास किया है। चूंकि समाज में केवल वैष्णव कह देने से वह जायज और पवितत्रा का पर्याय माना जाने लगता है। अतः इसके मूल पर ध्यानाकर्षण में पुरानी तिकड़मों के खिलाफ स्पष्ट कहने की मजबूरी है, जो कभी-कभी कड़वी हो जाती है। कृपया गया श्राद्ध वाला स्वतंत्र पृष्ठ भी देखें, उसमें कई प्रश्नों के उत्तर हैं।

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  5. दिल की बात
    प्रायः मेरा लेखन सोद्देश्य ही होता है। उसमें रोचकता तो बस सांयोगिक है। जैसे ही चर्चा या लेखन में तथ्य पर रोचकता हावी होने लगती है, मैं स्वयं ही रुक जाता हूं। तथ्य छोड़ मिलने वाली लोकप्रियता को छोड़ते मुझे देर नहीं लगती। हर व्यक्ति कहीं न कहीं किसी न किसी के पक्ष में होता है। कोई घोषित कोई अघोषित तो मैं घोषित रूप से तथ्य का पक्षधर हूं।
    भारतीय संस्कृति की पहेलियों को केवल इतिहास या किंवदंतियों की परंपरा से निकाल कर उनके साधनापरक उदात्त पक्ष और वर्चस्वपरक अनुदात्त पक्ष दोनों को कहता हूं। इसलिये चिल्हो सियारो मेरे लिये कथा परंपरा के सूत्रधार एवं सहायक की भांति हैं। आप एक बार बड़ा वाला आलेख पढ़ लें तब अन्य बातें कुछ अधिक स्पष्ट होंगीं।
    मैं ने रावजी का आलेख पढ़ा। अच्छी जानकारी दी गई है। सूचना के लिये धन्यवाद।

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