शनिवार, 20 अगस्त 2011
भारतीय संस्कृति एवं समाज समझने के सूत्र
भारतीय संस्कृति एवं समाज समझने के सूत्र
मामला केवल शिक्षा का नहीं है। समाज के बारे में समझ का है। बातें आगे बढ़ें उसके पहले मैं आपको अपनी समझ, संदर्भ एवं सीमाओं के बारे में बताना चाहता हूँ।
भारतीय संस्कृति के संबंध में आम आदमी और राज्य व्यवस्था, राजाओं के अनवरत युद्धरत रहने पर भी शिक्षा, शिक्षा प्रणाली, संस्कृति, व्यवसाय का जारी रहना, विभिन्न लोगों का भारत आगमन एवं समाज का भाग बनना आदि बातों पर तो गलत अवधारणाएँ स्थापित की ही गई हैं। सबसे बड़ी समस्या है आम आदमी की जिंदगी में स्थापित प्रायोगिक बातों को एक मिथक या केवल विश्वास मानकर उसे खारिज कर देना। इस अंतिम गलती से तो पूरे समाज को मूर्ख, पागल या अंधविश्वासी मानना ही पड़ेगा।
उलटे अब योग और तंत्र के पीछे फिर दौड़ना भी शुरू हो गया। मैं दोनो ही संदर्भों में सत्य को सामने लाने का प्रयास करता हूँ । प्रायोगिक बातों को, जो अनुष्ठान, चलन, रीतिरिवाजों के रूप में समाज में स्वीकृत हैं स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ। इसे तर्क एवं अनुभव से जाना समझा जा सकता है। इसके पक्ष में परंपरागत प्रयोग पक्षीय योग एवं तंत्र शास्त्र के ग्रंथों को संदर्भ के रूप में उल्लिखित किया जा सकता है। आधुनिक ग्रंथों को जो इन बातों पर विश्वास ही नहीं करते उनका क्या संदर्भ दूँ?
उदाहरण के लिये - चिदाकाश धारणा योग-तंत्र धारा की वह आधारभूमि है जहाँ अनेक छोटी-बड़ी साधनाएँ सीखी जाती हैं। रोग निवारण का काम किया जाता है, छोटे-मोटे चमत्कार होते हैं या फिर ध्यान की गहराई में जाने की साधना होती है। कोई व्यक्ति अगर चिदाकाश धारणा के अस्तित्व को माने तब न आगे की बात समझ में आए। केवल एक मिथक या केवल विश्वास मानकर उसे खारिज कर देने की आधार भूमि में प्रायोगिक बात कैसे समझाई जाय?
मैं तंत्र की लोकोपयोगी बातों को सरलीकृत करके बताता हूँ । एक तरह से तंत्र की सारी बातें एक तरफ से गुप्त हैं लेकिन गोपनियता तो समझें कि है क्या? ऐसी गोपनीयता से समाज का क्या भला-बुरा हो रहा है?
’ समझदार और उदार लोगों के द्वारा लोकोपयोगी उतम बातों को एवं तंत्र की असांप्रदायिक (नन ब्रांडेड) मूल विधियों को स्त्रियों के द्वारा मुख्यतः किये जानेवाले सामाजिक/सामुदायिक अनुष्ठानों में सम्मिलित कर दिया गया।
’ वैदिक पंडित हों या बौद्ध पंडित अथवा नए युग के सेक्युलर बुद्धिजीवी, चाहे सोच-समझ कर इन अनुष्ठानों को नष्ट करनेवाले पुराने/नए संप्रदायों के लोग, किसी का ध्यान भी इनकी तरफ नहीं गया। अनुष्ठान व्यापक रूप से बच गए। दुकानदार दूसरों के माल को खराब कह रहे हैं असली माल आम आदमी के पास है।
’ समाज में स्वीकृति होने के कारण पुराने वैदिक आचार्य हों या नए या साम्यवादी, सर्वोदयी सबके घर में (कुछ कट्टर लोगों को छोड़कर) काशी से पूर्व में बहुसंख्यक स्मार्त (स्मृतियों के अनुरूप चलने वाले) लोगों के बीच तंत्र का वर्चस्व जन्म से श्राद्ध पर्यंत अभी भी चल रहा था नहीं, चल रहा है। इस नासमझी के सुप्रभाव से विधियाँ बची रहीं परंतु शव की तरह, बिना बिजली के पंखे-मोटर की तरह।
’ पहले भी अग्निहोत्री ब्राह्मण के घर भी दो आग ही रहती थी - यज्ञकंुुड की और चूल्हे की। अंतिम आग तीसरी आग तो डोम महाराज के श्मशान कुंड में रहती है या साधक की रीढ़ की हड्डी में। अब न तो घर, न कुंड, न श्मशान कहीं न आग रखी जाती है, न उसकी समझ बाकी है। हां बेमतलब कठोपनिषद पढ़ा जा रहा है- त्रि नाचिकेतस्तृभिरेतदग्नि या इष्टका यावतीर्वा यथा वा। न आग का पता, न ईंट का, फिर हवन हो तो कैसे? मृत्यु के पार जाना तो बहुत दूर की बात हुई।
’ काशी के पूर्व का श्राद्ध चांडाल एवं शूद्रों के साथ भोजन किए बगैर पूरा ही नहीं होता। वेद का चलता कहां है? किस पंरपरागत ब्राह्मण की औकात है कि श्राद्ध से शूद्रों को निकाल बाहर करे?
इस प्रकार देखें तो समझ की समस्या मूल है न कि गोपनियता की। आयुर्वेद एवं ज्योतिष में तो गोपनीयता है ही नहीं। जिनकी गठरी में कुछ है ही नहीं, वे ही अपनी खानदानी विद्या और गोपनीयता का हल्ला अधिक मचाए हुए हैं।
सच पूछिए तो कुल मिलाकर 20-25 अनुष्ठान विधियाँ हैं, इनमें ही सारे पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के उपाय सम्मिलित हैं। सामूहिक किंतु गुप्त रूप से इन्हें तीन-चार साल में सीखा जा सकता है। पारिवारिक/सामाजिक रूप से अधिक से अधिक तीन-चार महीने में। फिर मूर्खों के आडंबर को देखिए और हँसिए। अनुष्ठान भी वही पुराने मगध-मिथिला बंगाल के चिरपरिचित: - संकल्प, न्यास, उद्धार (बीज, मंत्र एवं ऋषि संबंधी) कवच, मटकोर, हल्दी, चुमावन, मंडपाच्छादन, मंडप खोलना आदि ? और कुछ व्रत -
कार्तिक स्नान, माघी मौन, अन्नकूट (गोधन) छठ, नवरात्रि जैसे प्रगट और कुछ गुप्त जैसे अनुष्ठान -गीत गाना, मटकोर, अनुलेपन (उबटन लगाना) विवाह के बाद का चतुर्थी कर्म, लाग बैठना, आशीर्वाद/अभिषेक/चैता गायन, जँतसार गायन, खाट बुनने का गीत गाना, सुतली, सूत जनेऊ बनाने का अनुष्ठान। यही अगर किसी संप्रदाय में दीक्षित होकर ब्रांडेड फार्म में अनेक देवी-देवता या बिना देवी-देवता की जगह किसी एक देवता एवं उनके व्यूह या परिवार के देवता रूपी ब्रांड के साथ सीखा जाय तो 4 से 8 साल लग जायेगा।
मामला तन एवं मन के संबंधों के साथ प्रकृति के से उनके संबंधों को समझने का है, स्वाद, रूप, स्पर्श, ध्वनि, गंध, गीत वन्दना सबको।
एक उदाहरण देखिए -
वैदिक अनुष्ठान में -
कोई व्यक्ति, उपवास या मौन के साथ (जो न के बराबर होता है) मंत्र पढ़ता है, किसी देवता (माना हुआ) को सामग्री अर्पित करता है, ब्राह्मणों को भोजन कराता है, बात समाप्त।
सामाजिक/परिवारिक तंत्र सम्मत में -
भावी वर/वधू को मंडप में सबके समक्ष बिठाया गया। इसके पूर्व कई दिनों से उबटन मालिश चल रही है। साथ ही श्लील-अश्लील चर्चा एवं छेड़-छाड़ भी, वह भी अकेले में नहीं। अब महिलाएँ परीक्षा लेने एवं उसकी अनुभूति को दृढ़ कराने का सम्मिलित अनुष्ठान करती हैं। पंडित मंत्र पढ़ते हैं - कांडात् कांडत् प्ररोहन्ति पुरूषः पुरूषोपरि . . . . .! दूर्वा से हल्दी सभी जोड़ांे पर पैर से शिर तक स्पर्श कराई जा रही है। जैसे दूब की गांठें हैं उसी तरह मानव शरीर में संधियाँ हैं, उनके बीच भी चेतना का प्रवाह है, यह स्मारक (स्मरण दिलाने वाला इशारा करनेवाला) मंत्र है।
भावी वर-वधू न बोल सकता है, न हिल सकता है, बैठे रहना एवं स्पर्श की अनुमूर्ति पर ध्यान केन्द्रित करना है (यही छूट दी गयी है) पहले श्रेष्ठ लोग, फिर हुड़दंग। पूरी होली, हँसी मजाक सब, भाभी वगैरह की छेड़-छाड़ मतलब- स्नायु तंतुओं, मन को उत्तेजित करना, शिथिल होने पर बार-बार उत्तेजित किया जाना और उस सबके बीच सबके समक्ष हाय-हाय! करने की जगह अधिक से अधिक मुस्कुराने की सुविधा के साथ मौन पूर्वक संयमित, शांत रहना।
यह अनुष्ठान तो गाँव-देहात में बचा हुआ है परंतु चेतना तथा स्नायु तंतुओं पर ध्यान देने की बात छूट गई है। स्कूल चल रहा है, शिक्षा नहीं हो रही।
इसी प्रकार से अनेक अन्य उदाहरण हैं। तंत्र के ब्रांडेड फार्म आज भी इंटरनेटी/विदेशी बाजार में खूब उपलब्ध हैं। कामसूत्र जो पूर्णत राजाओं एवं सामंतों की विलास लीला का शास्त्र है, जिसमें कहीं भी समाज एवं संयम नहीं है और चेतना की अंतर्यात्रा का तो रिश्ता ही नहीं है तंत्र शास्त्र का ग्रंथ बन गया है। कहाँ शिव-पार्वती का संबंध और कहाँ काम सूत्र।
मैंने इसीलिए सुरतिसूत्र नाम से एक किताब लिखी है। केवल बाह्यानुभूति पर आधारित जीवन भारतीय जीवन नहीं है। इसी तरह केवल आंतरिक अनुभूति की बात एकांगी है, लोक की उपेक्षा के नकली दावे से भरा पाखंड है। अंतर एवं बाह्य उभयविध अनुभूति के साथ भारतीय जीवन चलता है।
आरंभ से ही दो प्रकार के परस्पर विरोधी उपाय वैदिक, बौद्ध जैन सभी धाराओं में होते रहे -
’ विद्या को सरल, सुलभ लोकोपयोगी बनाने का प्रयास
’ विद्या को हड़पने, ब्रांडिंग करने, अपने समुदाय/समूह के हित एवं वर्चस्व को निरंतर बनाए रखने का प्रयास।
आदिवासी/मूलवासी या सहज विकसित समाज के लोग अपनी विद्या को तो गुप्त या अपने लोगों तक सीमित रखने का प्रयास करते थे पर चालबाजी और ब्रांडिंग नहीं थी। विद्या की जातीय सीमा होने पर भी परस्पर आदान-प्रदान चलता था। संगठित बेईमानी संप्रदाय वालों ने शुरू की। इनके आदि प्रणेता गौतम बुद्ध हुए। उन्होंने ही सत्य/धर्म भले ही वह सापेक्ष हो उसकी बराबरी में संगठन/संघ को लाया। बुद्ध, संघ और धर्म की बराबरी ने अनेक संकट उत्पन्न किए।
भारत को समझने में भूल
भारत को समझने में कई स्तरों पर भूल की जाती है। कुछ भूल भारतीय शैली की है, कुछ आधुनिक एवं पाश्चात्य शैली की। दोनों ही शैलियों में भूल अनजान लोगों से ही होती है, जिसकी अधिकांश भूलों को लोगों के द्वारा दुहराए जाने के लिए संकीर्ण एवं वर्चस्ववादी लोगों ने गलत मापदंड बनाए। भारत में विभिन्न संप्रदायों ने विभिन्न राजे-रजवाड़ों एवं सेठों का सही एवं गलत दोनों प्रकार उपयोग किया।
साम्राज्यवादी लोगों ने अपनी श्रेष्ठता, वर्चस्व और शोषण के लिए भी पूरा वैचारिक स्तर का षडयंत्र किया, जिसके शिकार उनके देश के लोग भी हुए।
इनमें मुख्य भूलें निम्न हैं -
’ सभ्यता विकास की चरणबद्ध प्रक्रिया को ऐतिहासिक काल खंडों के अधीन मानना।
’ मार्क्स के चिंतन को हर मामले में अकाट्य मानना, उसी के अनुसार विकास की व्याख्या करना।
’ आर्य/अनार्य/द्रविड़ जैसे वर्गीकरण को आज की भारतीय समाज व्यवस्था में ढूढ़ना।
’ आधुनिक विज्ञान एवं परंपरा दोनों की सुविधानुसार घालमेल कर पक्षपाती निष्कर्ष निकालना।
’ राज्य, राजा एवं उसकी शासकीय सीमा एवं सांस्कृतिक धार्मिक सीमा को अलग-अलग नहीं मानना, जैसे- मगध को लें तो मगध सांस्कृतिक/धार्मिक रूप से न तो वर्तमान मगध प्रमंडल है, नहीं उज्जैन तक फैला हुआ, न मौर्यकालीन। वह स्थिर है, कर्मनाशा से पूरब, किउल से पश्चिम एवं गंगा से दक्षिण ।
’ स्रौत, स्मार्त धर्म की व्यवस्था के प्रति अनादर ताकि शैव, शाक्त, वैष्णव, आदि विविध संप्रदायों को अखिल भारतीय आचार के रूप में स्थापित किया जा सके।
’ बौद्ध, जैन, लोकायत, सहज प्रकृतिवादियों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करना और चुपके से उनके द्वारा आविष्कृत विद्या को आत्मसात कर लेना।
’ परस्पर एक दूसरे को बिंबों/साधनों/भावों एवं विधियों का स्वयं गलत अर्थ आरोपित कर पुनः उनका व्यर्थ खंडन करना। इसे पूर्व पक्ष को प्रदूषित करना कहा जाता है।
’ शंकराचार्य-मंडनमिश्र के शास्त्रार्थ तक संदर्भहीन अनेकार्थक बातों के प्रयोग को विद्वत्ता माना जाता था। मिथिला में एक जबर्दश्त क्रांतिकारी चिंतन विकसित हुआ कि सटीक संदर्भयुक्त बात बोलना ही ज्ञानी का लक्षण है। इसे नव्य न्याय कहते हैं। नव्य न्याय के अनविष्कार के बाद बात बदलने की सुविधा जब समाप्त हो गई तो आज की पीएच. डी. के विषयों की मौलिकता वाली समस्या आ खड़ी हुई। सारे विद्या वारिधि तो हो नहीं सकते थे तो कुतर्क शास्त्रार्थ को ही शास्त्रार्थ मानना पड़ा।
’ ऐसे अनर्गल दुष्प्रभावों से मुक्त होकर भारतीय संस्कृति को जानने-समझने एवं जीने का सही तरीका भी है -
सही तरीका -
’ सांस्कृतिक क्षेत्रों को पहचानना एवं सांस्कृतिक प्रभावों को समझना ।
’ वेद-से उपनिषदों तक संस्कृति की यात्रा को पूरा न मानकर वेद-उपनिषद सूत्रग्रंथ, स्मृति, पुराण, उपपुराण, निबंध, ग्रंथों के रूप में ग्रंथों की पहचान करना एवं उनके क्षेत्रीय स्वरूप को समझना।
’ इसी प्रकार आगम परंपरा में भी वैदिक, बौद्ध, जैन आगम, तंत्र संप्रदाय, लोक की विविधता के तंत्र में समावेश के तरीके, समयचार एवं काल चक्र तंत्र के एकाकार होने की प्रक्रिया को समझना।
’ अलिखित फिर भी सर्वमान्य मूल्यों की समझ जैसे-पुराणों, आगमों का कोई लेखक नहीं होता किंतु मंत्रों/अनुष्ठानों के प्रवर्तक ऋषि होते हैं, आदि।
’ उपनिषदों को उलट कर पढ़ना एवं संप्रदायों की साधना विधियों तथा मूल चिंतन की समझ।
’ नए देवी-देवता तथा संप्रदायों के आविर्भाव-तिरोभाव की समझ।
इस दृष्टि से जब समझने का प्रयास होगा तभी सही ढंग से भारतीय संस्कृति संबंधी किसी शंका का समाधान हो सकेगा अन्यथा भगवान की लीला कथा के रूप में कृष्ण का सीता से और जानकी का कृष्ण से भी विवाह सिद्ध किया ही जा सकता है।
शुक्रवार, 13 मई 2011
बबन देवी
बबन देवी
बबन देवी से मेरा भावानात्मक लगाव विकसित होने लगा। इसे विकसित होने में 5 साल लगे। एक दिन मैं उनके समक्ष सारे अहंकार तोड़कर विसर्जित होने वाला था। सोचा था उन्हें कपड़े समर्पित करूँ और पैर छूकर प्रणाम करूँ (वे मेरे प्रणाम के लिए थोड़े ही बैठी रहतीं। वे चल बसीं) और प्रार्थना करूँ कि .............................
हे देवी! मुझे समझ में आ गया कि दुनिया एक सराय है केवल ठहर कर जाने के लिए ही नहीं अन्य मामलों में भी। पूरी विवाह संस्था लाभ हानि, उतराधिकारत के लिए बनी हुई है। यौन सुख अल्पकालिक रूचि का विषय है। आपसी प्रेम तो आते दुर्लभ है और दंपति के बीच प्रेम के दुश्मन अनेक है। ये दुश्मन बाहरी कम घरेलू अधिक होते हैं। आरप तो धन्य हैं क्योंकि आपने एकतरफा, आदर्श, आदरणीय सर्व स्वी कार्य प्रेम किया। जवानी से प्रौढ़ावस्था तक बीवी बच्चे से प्रेम निंदनीय है, स्वार्थ है और बुढ़ापे में अगली पीढ़ी से दुश्मनी फिर प्रेम का आपका लग सकता है कि ऐसी कान सी दुर्लभ बात समय कहाँ है। हुई। हाँ, मेरे लिए हुई। बबन देवी गया सराय की तवायक थी। मैंने देरकर दी कह नहीं सका। ववन देवी बुढ़ापे में (जब मेरी उनसे भेंट हुई) इतनी खूबसूरत थीं तो जवानी में कुछ और हीं रही होंगी। उनकी ठुमरी और गजल गान की मशहुर थी। किराए में दो मंजिले मकान के उपर रहती थी। सराय रोड, गया में वे एक खाश सख्तसियत थी। वे तवायक होकर भी किसी घेरलू औरत से कम नहीं थी। अच्छा खाना बनाना सलीके से कपड़े पहनना। मेरे समक्ष बाद के दिनों में कपड़े का बहुत ख्याल नहीं रखती थी। शरीर थक रहा था।
बबन देवी का संबंध मगध वि॰वि॰ के एक पदाधिकारी से ही आजीवन रहा। वे श्रीमान जन्म से तो ब्राह्मण थे किंतु अवगुणों की कोई कभी उन्होंने नहीं रखी। बबन देवी ने दिन दिया तो दे दिया, कोठे पर ज्यादा तो लंपट ही जाते हैं। आप बबन देवी का प्रतिका इसी से समझ सकते हैं कि सराय में तो उनकी सच्चरित्रता की ख्याति थी है। अपने प्रेमी के घर पर भी उनके पुत्र, पुत्री, बहू बच्चे उनका पूरा आदर करते थे। भले ही घर की मालकिन नहीं थी, परंतु नैतिक अभिभावक थीं और मुसीबत में अपनी संगीत पेशे की कमाई भी न्योछावर कर देती थी।
बबन देवी ने स्वयं संतान उत्पन्न नहीं करने का साथ हीं अपने भतीजे-भतीजी सबको वेश्यावृत्ति से बाहर निकालने का निर्णय लिया था। भतीजे को जमीन खरीद कर दी और गाँव में रहकर खेती करने को कहा। भतीजी को अच्छे से पढ़ाया संभवतः उसे ठण्ज्मबीण् किया था या कोई डिप्लोमा कोर्स उनका गाँव पुराने आरा (शाहाबाद) जिले में है और मैं भी उसी जिले का हूँ। दोनों का कार्यक्षेत्र, रोजगार क्षेत्र गया जिला, तो इस बहाने भोजपुरिया लोगों की जिलादारी भी हो जाती थी।
मेरे उपर उमरदार औरतों का प्यार अद्भूत ढंग से बरसता रहा है। मुझे पुत्रवत स्नेह करनेवाली महिलाएँ कुछ साल पहले तक मिलती रहीं। सामाजिक कामों में व्यस्त रहने के दौरान मेरे भोजन, वस्त्र, स्वास्थ्य एवं शरीर रक्षा के प्रति तो थे सजग रही ही उनके मन में यह सजगता बनी रहती थी कि यह युवक कहीं धोखा न खा जाए, किसी मुसीबत में न पड़ जाए क्योंकि मैं महान मूर्ख आदमी हूँ। अक्ल औसत से थोड़े कम है, कभी -कभी अहंकार चढ़ता है तो अपने को बड़ा काबिल आदमी भी मान लेता हूँ। दुनिया को समझने और कुछ करने की इच्छा ने मुझे इतना वात्सल्य दियाया।
एक बार मेरा पैर टूटा था। बबन देवी मिलने आई घर पर न केवल बैठी बल्कि उनका हाथ मेरे सर को सहलाने के लिए आगे बढ़ा, परिचय नया था। सामाजिक कार्यकर्ता कालेज का अध्यापक सराय में सपलीक घूमने वाले दुस्साहसी और अनुशासित लेवक, पुलिस के अपराध अनुसंधान विभाग से मान्यता प्राप्त, आ॰ए॰एस॰ आई॰पी॰एस॰ पदाधिकारियों के साथ उठने-बैठने वाला ये सब बातें वात्सल्य प्रवाह में विध्न पैदा कर रही थीं। ब्राह्मणों के जातीय अहंकार की असलीयत से पूणतः परिचित बबन देवी सहज मुस्कुरा रही थी। उन्होंने मेरे पास खड़े होकर मेरा कंधा पीठ एवं पाँव सहलाया। दुआएँ दी।
उलाहना भी छोड़ती गई पाठक जी कलेक्टर एवं कमीश्नर के कहने पर मैंने भतीजी को वेश्या के घर का बताया जबकि मैंने उसकी शादी कर दी है। उमीद थी कि कोई नौकरी मिल जाएगी सो वह भी नहीं मिली और यह जो आपने आँगन बाड़ी केन्द्र खुलवाया है, इसमें कौन जाएगा पढ़ने और कौन सी नाचने वाली जाएगी पढ़ाने? एक लड़की जो एम॰ए॰ हिन्दी में पढ़ रही थी मैं उसके घर गया। संयोग से उसे इस छोटी नौकरी की जरूरत नहीं पड़ी वह हाई स्कूल में टीचर हो गई।
एक बार बबन देवी के घर गए काफी दिन हो गए तो फिर उलाहना। क्या पाठक जी! अभी भी मुझ से मिलने में शर्म आती है? मैं क्या बोलता? दरअसल मैं जब भी कोठे पर जाता तो विधिवत् एक डरपोक की तरह जाता। यह सावधानी अमृतलाल नागरजी के उपन्यास थे कोठे बालिया, अमृता प्रतिमा का काल गर्ल एवं संस्कृत की सुप्रसिद्ध पुस्तक कृट्टनीमतम पढ़कर ।ण्ैण्भ्ण्प् नामक सरकारी मान्यता प्राप्त (किंतु गया में पूर्णतः विवादास्पद) संगठन के जिला सचिव की हैसियत का कवच पहन कर जाता। इसके बाद भी तीन संरक्षण खोल और शहर के संभ्रात महिला संगठन की बुर्जुग अनुभवी महिलाओं का संरक्षण, पास के रिहायसी इलाके के वेश्यावृत्ति निरोधक संगठन के कार्यकर्ताओं के माध्यम से संवाद, अंत में अपनी प्रखर एवं दुस्साहसी पत्नी की सहभागिता एवं समर्थन की व्यस्था भी साथ थी।
डरपोक वाली बात में इस मामले में लागू नहीं होती एक व्यवहारिक दृष्टि थी कि कोठे पर जाने के पहले उस महिला नाचने वाली को खबरकर दी जाय और दिन के 12 बजे से 3 बजे के गैर कारोबारी पारिवारिक/व्यक्तिगत समय में जाया जाय। इस समय आम तौर पर मुजरा सुनने वाले या देह-सुख भोगने वाले नहीं आते फिर भी स्थाई संबंध वाले ग्राहक तो आही जाते थे।
बबन देवी के यहाँ तो यह खतरा भी नहीं था। या तो बे समारोहों/रेडियों पर गाती या उनके प्रेमी एवं अन्य परिवारों में सम्मानित सलाहकार बुजुर्ग की तरह जाती है।
मैं स्वंय लज्जित हो गया। सोचा एक बार हिम्मत करके अपने मन की सारी दुविधा उनसे कह दूँगॉ/ आप तो मेरी माँ समान हैं, वंदनीय, पूजनीय है। मेरा घर कब आपके लिए कब बंद हुआ परंतु अवसर चूक गया, बबन देवी इस दुनिया से कर्तव्य पूरा कर विदा हो गई। क्षमा प्रार्थना सहित, उन्हें प्रणाम।
बबन देवी से मेरा भावानात्मक लगाव विकसित होने लगा। इसे विकसित होने में 5 साल लगे। एक दिन मैं उनके समक्ष सारे अहंकार तोड़कर विसर्जित होने वाला था। सोचा था उन्हें कपड़े समर्पित करूँ और पैर छूकर प्रणाम करूँ (वे मेरे प्रणाम के लिए थोड़े ही बैठी रहतीं। वे चल बसीं) और प्रार्थना करूँ कि .............................
हे देवी! मुझे समझ में आ गया कि दुनिया एक सराय है केवल ठहर कर जाने के लिए ही नहीं अन्य मामलों में भी। पूरी विवाह संस्था लाभ हानि, उतराधिकारत के लिए बनी हुई है। यौन सुख अल्पकालिक रूचि का विषय है। आपसी प्रेम तो आते दुर्लभ है और दंपति के बीच प्रेम के दुश्मन अनेक है। ये दुश्मन बाहरी कम घरेलू अधिक होते हैं। आरप तो धन्य हैं क्योंकि आपने एकतरफा, आदर्श, आदरणीय सर्व स्वी कार्य प्रेम किया। जवानी से प्रौढ़ावस्था तक बीवी बच्चे से प्रेम निंदनीय है, स्वार्थ है और बुढ़ापे में अगली पीढ़ी से दुश्मनी फिर प्रेम का आपका लग सकता है कि ऐसी कान सी दुर्लभ बात समय कहाँ है। हुई। हाँ, मेरे लिए हुई। बबन देवी गया सराय की तवायक थी। मैंने देरकर दी कह नहीं सका। ववन देवी बुढ़ापे में (जब मेरी उनसे भेंट हुई) इतनी खूबसूरत थीं तो जवानी में कुछ और हीं रही होंगी। उनकी ठुमरी और गजल गान की मशहुर थी। किराए में दो मंजिले मकान के उपर रहती थी। सराय रोड, गया में वे एक खाश सख्तसियत थी। वे तवायक होकर भी किसी घेरलू औरत से कम नहीं थी। अच्छा खाना बनाना सलीके से कपड़े पहनना। मेरे समक्ष बाद के दिनों में कपड़े का बहुत ख्याल नहीं रखती थी। शरीर थक रहा था।
बबन देवी का संबंध मगध वि॰वि॰ के एक पदाधिकारी से ही आजीवन रहा। वे श्रीमान जन्म से तो ब्राह्मण थे किंतु अवगुणों की कोई कभी उन्होंने नहीं रखी। बबन देवी ने दिन दिया तो दे दिया, कोठे पर ज्यादा तो लंपट ही जाते हैं। आप बबन देवी का प्रतिका इसी से समझ सकते हैं कि सराय में तो उनकी सच्चरित्रता की ख्याति थी है। अपने प्रेमी के घर पर भी उनके पुत्र, पुत्री, बहू बच्चे उनका पूरा आदर करते थे। भले ही घर की मालकिन नहीं थी, परंतु नैतिक अभिभावक थीं और मुसीबत में अपनी संगीत पेशे की कमाई भी न्योछावर कर देती थी।
बबन देवी ने स्वयं संतान उत्पन्न नहीं करने का साथ हीं अपने भतीजे-भतीजी सबको वेश्यावृत्ति से बाहर निकालने का निर्णय लिया था। भतीजे को जमीन खरीद कर दी और गाँव में रहकर खेती करने को कहा। भतीजी को अच्छे से पढ़ाया संभवतः उसे ठण्ज्मबीण् किया था या कोई डिप्लोमा कोर्स उनका गाँव पुराने आरा (शाहाबाद) जिले में है और मैं भी उसी जिले का हूँ। दोनों का कार्यक्षेत्र, रोजगार क्षेत्र गया जिला, तो इस बहाने भोजपुरिया लोगों की जिलादारी भी हो जाती थी।
मेरे उपर उमरदार औरतों का प्यार अद्भूत ढंग से बरसता रहा है। मुझे पुत्रवत स्नेह करनेवाली महिलाएँ कुछ साल पहले तक मिलती रहीं। सामाजिक कामों में व्यस्त रहने के दौरान मेरे भोजन, वस्त्र, स्वास्थ्य एवं शरीर रक्षा के प्रति तो थे सजग रही ही उनके मन में यह सजगता बनी रहती थी कि यह युवक कहीं धोखा न खा जाए, किसी मुसीबत में न पड़ जाए क्योंकि मैं महान मूर्ख आदमी हूँ। अक्ल औसत से थोड़े कम है, कभी -कभी अहंकार चढ़ता है तो अपने को बड़ा काबिल आदमी भी मान लेता हूँ। दुनिया को समझने और कुछ करने की इच्छा ने मुझे इतना वात्सल्य दियाया।
एक बार मेरा पैर टूटा था। बबन देवी मिलने आई घर पर न केवल बैठी बल्कि उनका हाथ मेरे सर को सहलाने के लिए आगे बढ़ा, परिचय नया था। सामाजिक कार्यकर्ता कालेज का अध्यापक सराय में सपलीक घूमने वाले दुस्साहसी और अनुशासित लेवक, पुलिस के अपराध अनुसंधान विभाग से मान्यता प्राप्त, आ॰ए॰एस॰ आई॰पी॰एस॰ पदाधिकारियों के साथ उठने-बैठने वाला ये सब बातें वात्सल्य प्रवाह में विध्न पैदा कर रही थीं। ब्राह्मणों के जातीय अहंकार की असलीयत से पूणतः परिचित बबन देवी सहज मुस्कुरा रही थी। उन्होंने मेरे पास खड़े होकर मेरा कंधा पीठ एवं पाँव सहलाया। दुआएँ दी।
उलाहना भी छोड़ती गई पाठक जी कलेक्टर एवं कमीश्नर के कहने पर मैंने भतीजी को वेश्या के घर का बताया जबकि मैंने उसकी शादी कर दी है। उमीद थी कि कोई नौकरी मिल जाएगी सो वह भी नहीं मिली और यह जो आपने आँगन बाड़ी केन्द्र खुलवाया है, इसमें कौन जाएगा पढ़ने और कौन सी नाचने वाली जाएगी पढ़ाने? एक लड़की जो एम॰ए॰ हिन्दी में पढ़ रही थी मैं उसके घर गया। संयोग से उसे इस छोटी नौकरी की जरूरत नहीं पड़ी वह हाई स्कूल में टीचर हो गई।
एक बार बबन देवी के घर गए काफी दिन हो गए तो फिर उलाहना। क्या पाठक जी! अभी भी मुझ से मिलने में शर्म आती है? मैं क्या बोलता? दरअसल मैं जब भी कोठे पर जाता तो विधिवत् एक डरपोक की तरह जाता। यह सावधानी अमृतलाल नागरजी के उपन्यास थे कोठे बालिया, अमृता प्रतिमा का काल गर्ल एवं संस्कृत की सुप्रसिद्ध पुस्तक कृट्टनीमतम पढ़कर ।ण्ैण्भ्ण्प् नामक सरकारी मान्यता प्राप्त (किंतु गया में पूर्णतः विवादास्पद) संगठन के जिला सचिव की हैसियत का कवच पहन कर जाता। इसके बाद भी तीन संरक्षण खोल और शहर के संभ्रात महिला संगठन की बुर्जुग अनुभवी महिलाओं का संरक्षण, पास के रिहायसी इलाके के वेश्यावृत्ति निरोधक संगठन के कार्यकर्ताओं के माध्यम से संवाद, अंत में अपनी प्रखर एवं दुस्साहसी पत्नी की सहभागिता एवं समर्थन की व्यस्था भी साथ थी।
डरपोक वाली बात में इस मामले में लागू नहीं होती एक व्यवहारिक दृष्टि थी कि कोठे पर जाने के पहले उस महिला नाचने वाली को खबरकर दी जाय और दिन के 12 बजे से 3 बजे के गैर कारोबारी पारिवारिक/व्यक्तिगत समय में जाया जाय। इस समय आम तौर पर मुजरा सुनने वाले या देह-सुख भोगने वाले नहीं आते फिर भी स्थाई संबंध वाले ग्राहक तो आही जाते थे।
बबन देवी के यहाँ तो यह खतरा भी नहीं था। या तो बे समारोहों/रेडियों पर गाती या उनके प्रेमी एवं अन्य परिवारों में सम्मानित सलाहकार बुजुर्ग की तरह जाती है।
मैं स्वंय लज्जित हो गया। सोचा एक बार हिम्मत करके अपने मन की सारी दुविधा उनसे कह दूँगॉ/ आप तो मेरी माँ समान हैं, वंदनीय, पूजनीय है। मेरा घर कब आपके लिए कब बंद हुआ परंतु अवसर चूक गया, बबन देवी इस दुनिया से कर्तव्य पूरा कर विदा हो गई। क्षमा प्रार्थना सहित, उन्हें प्रणाम।
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
इस बार सत्तू पर एकादशी की चोट और बृहस्पति का प्रकोप
इस बार भी सत्तू खाने के उत्सव वाला दिन आ ही गया। इस दिन की प्रतीक्षा अनेक लोगों को रहती है। नए चने का सत्तू, बौराया हुआ आम या टिकोरा, शुद्ध घी, दूध ,गुड़ के साथ सना सत्तू, नए घड़े/सुराही का पकी मीट्टी की सोंधी खुशबू वाला पानी सब नया-नया, सबका मजा लाजवाब। कुछ लोग खश की जड़ पानी में डाल देते हैं। मुझे पीने में खश पसंद नहीं है।
आज मेष की संक्रांति है, खरमास समाप्त हो गया। रूखा-सूखा, उदास टाइप वाला समय गया। शादी-विवाह अन्य उत्सव मंगल मनाने और अपने घर में अवसर न हो तो दूसरों की शादी से भी मजा लेने की आज से पूरी छूट है। बाजर-बिजनेश की रौनक अलग।
फिर भी इस खुशी के मौके पर एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों का संकट हो गया। सतुआन साल में बस एक दिन आता है ये एकादशी जी का क्या, महीने में दो बार पधारते हैं और वृहस्पतिवार को हर हफ्ते आना ही है। एकादशी के दिन फलाहार होता है। एकादशी करने वाला महान माना जाता है।
सत्तू की प्रतिष्ठा अब बढ़ी है, जब से लोगों को गैस एवं एसिडिटी की बीमारी पकड़ी है। मैं तो सामान्य आदमी हूँ, एकादशी नहीं कर सकता। न तो अभाव में दुःखी रह सकता हूँ, न महँगे फलाहार एवं नृत्य-संगीत वाली एकादशी का खर्च जुटा सकता हूँ अतः मैं सत्तू वाले सतुआन के पक्ष में हूँ। बुरा हो उनका, जिन्होंने सास टाइप खाली बैठी घरेलू औरतों के लिए सप्तवार व्रत की पोथी निकाल दी है। हर दिन के खाने-पीने के नियम अलग-अलग बना डाले हैं।
ये नियम अगर सतुआन की तरह ‘अवश्य खाने’ के बारे में रहें तो मुझे कोई दिक्कत नहीं लेकिन कुछ लोग तपस्वी बनने की चक्कर में ‘न खाने’ के नियम अधिक बनाते हैं। इन्हें दूसरों को और बस न चले तो अपने को सताने में मजा आता है। नियम बनाया कि वृहस्पतिवार को चना, सत्तू, भूँजा या भूँज कर पिसा हुआ अन्न न खाएं। इस चक्कर में मेरा सतुआन फँस गया था। श्रीमती जी ने एकादशी की, व्रत रखा और बेचारे सतुआन को छोड़ दिया।
मैं ने पूरा मजा लिया - प्रातः काल नाश्ते में सत्तूू, घी, दूध, गुड़ आम के टिकौरे के साथ और दोपहर में सत्तू, भूना जीरा, नमक (दोनों सादा एवं काला) नींबू और छोटी सी हरी मिर्च के साथ थोड़ी सी गोलमिर्च मिलाकर विधिवत खाया। सत्तू खाने की शास्त्रीय विधि है। खाने की ही नहीं बनाने की भी विधि वैदिक काल से वर्णित है। सत्तू एक वैदिक भोजन है। देवता हिमालय में रहते हैं इसलिए तिब्बत, चीन एवं संपूर्ण उत्तरी भारत में सत्तू खाया जाता है। सत्तू बनाना एवं खाना ज्ञानी लोगों का काम है - वेद में कहा गया है -
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र घीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते,भद्रैषा लक्ष्मीर्निहिताधिवाची।।
भावार्थ - जैसे बुद्धिमान व्यक्ति चलनी से सतू को साफ करता है, उसी प्रकार धीर व्यक्ति मन से वाणी को शुद्ध कर लेता है, भित्रता करने वाला व्यक्ति मैत्री की ठीक पहचान रखता है। हे सज्जन व्यक्ति यह जो लक्ष्मी है, वह वाणी (सुंदर) में प्रतिष्ठित है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्तू खाने के लिए सुंदर वैदिक मंत्र भी उपलब्ध है। गौरवशाली इतिहास है, उत्सव है और भला चाहिए क्या? इसके बावजूद देवगुरू वृहस्पति को सतू से कब नाराजगी हो गई इसका इतिहास नहीं मिलता। ठीक इसी तरह फिल्मों के माध्यम से प्रचारित संतोषी माता के प्रभाव के पहले शुक्रवार को खटाई खाने पर पाबंदी नहीं थी। दही और नींबू से साल में 50 दिन का वैर तो संपूर्ण भारतीय भोजन संस्कृति से बगावत है, यह धार्मिक हो ही नहीं सकता। संतोषी माता के व्रत में प्रसाद खाने वालों पर भी पाबंदी है, यह तो और खतरनाक है।
तो मैं शुक्र और वृहस्पति दोनों की नाराजगी मोल लेने को तैयार हूँ और हर साल सतुआन मनाऊँगा उस दिन एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों आकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं अगर धर्मशास्त्री बनूँगा तो प्रावधान करूँगा कि सालाना उत्सवों के दिन अगर एकादशी जैसे व्रत की तिथि आ जाय तो उस दिन की एकादशी में अवश्य सतू खाना चाहिए।
आशा है, आप मुझसे अभी सहमत न भी हों तो अगले साल सतुआन तक सहमत हो जायेंगे।
आज मेष की संक्रांति है, खरमास समाप्त हो गया। रूखा-सूखा, उदास टाइप वाला समय गया। शादी-विवाह अन्य उत्सव मंगल मनाने और अपने घर में अवसर न हो तो दूसरों की शादी से भी मजा लेने की आज से पूरी छूट है। बाजर-बिजनेश की रौनक अलग।
फिर भी इस खुशी के मौके पर एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों का संकट हो गया। सतुआन साल में बस एक दिन आता है ये एकादशी जी का क्या, महीने में दो बार पधारते हैं और वृहस्पतिवार को हर हफ्ते आना ही है। एकादशी के दिन फलाहार होता है। एकादशी करने वाला महान माना जाता है।
सत्तू की प्रतिष्ठा अब बढ़ी है, जब से लोगों को गैस एवं एसिडिटी की बीमारी पकड़ी है। मैं तो सामान्य आदमी हूँ, एकादशी नहीं कर सकता। न तो अभाव में दुःखी रह सकता हूँ, न महँगे फलाहार एवं नृत्य-संगीत वाली एकादशी का खर्च जुटा सकता हूँ अतः मैं सत्तू वाले सतुआन के पक्ष में हूँ। बुरा हो उनका, जिन्होंने सास टाइप खाली बैठी घरेलू औरतों के लिए सप्तवार व्रत की पोथी निकाल दी है। हर दिन के खाने-पीने के नियम अलग-अलग बना डाले हैं।
ये नियम अगर सतुआन की तरह ‘अवश्य खाने’ के बारे में रहें तो मुझे कोई दिक्कत नहीं लेकिन कुछ लोग तपस्वी बनने की चक्कर में ‘न खाने’ के नियम अधिक बनाते हैं। इन्हें दूसरों को और बस न चले तो अपने को सताने में मजा आता है। नियम बनाया कि वृहस्पतिवार को चना, सत्तू, भूँजा या भूँज कर पिसा हुआ अन्न न खाएं। इस चक्कर में मेरा सतुआन फँस गया था। श्रीमती जी ने एकादशी की, व्रत रखा और बेचारे सतुआन को छोड़ दिया।
मैं ने पूरा मजा लिया - प्रातः काल नाश्ते में सत्तूू, घी, दूध, गुड़ आम के टिकौरे के साथ और दोपहर में सत्तू, भूना जीरा, नमक (दोनों सादा एवं काला) नींबू और छोटी सी हरी मिर्च के साथ थोड़ी सी गोलमिर्च मिलाकर विधिवत खाया। सत्तू खाने की शास्त्रीय विधि है। खाने की ही नहीं बनाने की भी विधि वैदिक काल से वर्णित है। सत्तू एक वैदिक भोजन है। देवता हिमालय में रहते हैं इसलिए तिब्बत, चीन एवं संपूर्ण उत्तरी भारत में सत्तू खाया जाता है। सत्तू बनाना एवं खाना ज्ञानी लोगों का काम है - वेद में कहा गया है -
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र घीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते,भद्रैषा लक्ष्मीर्निहिताधिवाची।।
भावार्थ - जैसे बुद्धिमान व्यक्ति चलनी से सतू को साफ करता है, उसी प्रकार धीर व्यक्ति मन से वाणी को शुद्ध कर लेता है, भित्रता करने वाला व्यक्ति मैत्री की ठीक पहचान रखता है। हे सज्जन व्यक्ति यह जो लक्ष्मी है, वह वाणी (सुंदर) में प्रतिष्ठित है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्तू खाने के लिए सुंदर वैदिक मंत्र भी उपलब्ध है। गौरवशाली इतिहास है, उत्सव है और भला चाहिए क्या? इसके बावजूद देवगुरू वृहस्पति को सतू से कब नाराजगी हो गई इसका इतिहास नहीं मिलता। ठीक इसी तरह फिल्मों के माध्यम से प्रचारित संतोषी माता के प्रभाव के पहले शुक्रवार को खटाई खाने पर पाबंदी नहीं थी। दही और नींबू से साल में 50 दिन का वैर तो संपूर्ण भारतीय भोजन संस्कृति से बगावत है, यह धार्मिक हो ही नहीं सकता। संतोषी माता के व्रत में प्रसाद खाने वालों पर भी पाबंदी है, यह तो और खतरनाक है।
तो मैं शुक्र और वृहस्पति दोनों की नाराजगी मोल लेने को तैयार हूँ और हर साल सतुआन मनाऊँगा उस दिन एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों आकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं अगर धर्मशास्त्री बनूँगा तो प्रावधान करूँगा कि सालाना उत्सवों के दिन अगर एकादशी जैसे व्रत की तिथि आ जाय तो उस दिन की एकादशी में अवश्य सतू खाना चाहिए।
आशा है, आप मुझसे अभी सहमत न भी हों तो अगले साल सतुआन तक सहमत हो जायेंगे।
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011
मौके की मदद
मौके की मदद
एक बार हमलोग अर्थात् पति-पत्नी एवं दो साल के पुत्र के साथ मोटर साईकिल यात्रा कर रहे थे। उत्तरी एवं मध्य भारत के सुदूर गाँव के जंगलों में समाज सेवा करने वालों से मिलने एवं वादियों में घूमने का निर्णय हुआ।
उसी क्रम में हमलोग एक मित्र के यहाँ कटनी में रूके थे। वह दौर हमारे अर्थसंकट का दौर था। तय किया गया कि कटनी से जबलपुर जाकर शाम तक वापस आया जा सकता है। हमलोग सुबह रवाना हुए। भेड़ा घाट में स्नान हुआ। कुल सौ रूपये में से भोजन वगैरह में 50 रूपये खर्च हो गए। शहर से बाहर निकलते ही मोटर सायकिल पंचर। मरम्मती बाद बढ़े कि फिर पंचर, इस प्रकार तीन बार पंचर। हिम्मत जुटाकर वापस चले।
रास्ते के जंगल में जोर की वर्षा और ओले। किसी तरह बेटे को बीच में छुपाया। हेलमेट और बैग से जान बचाई। तीन-चार कीलोमीटर पर एक बाजार या छोटे कस्बेनुमा आबादी में पहुंचे तो पता चला कि यहां एक लॉज है, जिसमें रात बिताइ जा सकती है। हमने मोटरसायकिल खड़ी की। लॉजवाले से सिगल कमरा मांगा क्योंकि हमारे पास पैसे बहुत कम थे, कुल मात्र 45 रुपये। खैरियत थी कि पेट्रोल था। लॅाजवाले किसी हाल में तैयार नहीं। वह 65 रुपये के डबल बेड पर टड़ा था। हम भींगे हुए कांप रहे थे। कपड़े भी अतिरिक्त नहीं थे। उसी समय दो और सज्जन उसी लॉज में भींगे पहुंचे। उन्हे कुछ आशंका हुई तो पूछा कि आपको डबल बेड लेने से एतराज क्यों है?
हमने अपनी सच्चाई बताईं उन्हें दया आ गई। उन्होंने 45 रुपये दिये। डबल बेड लिया गया। कृतज्ञतापूर्वक पूर्वक उनका पता पूछा ताकि उनके रुपयों को मनिआर्डर से वापस किया जा सके। हमें पता नहीं मिला। हाँ, एक सुझाव मिला कि अगर कोई आपको भी मुसीबत में मिले तो यह राशि उसे दे कर समझियेगा कि कर्ज की वापसी हो गई।
एक बार हमलोग अर्थात् पति-पत्नी एवं दो साल के पुत्र के साथ मोटर साईकिल यात्रा कर रहे थे। उत्तरी एवं मध्य भारत के सुदूर गाँव के जंगलों में समाज सेवा करने वालों से मिलने एवं वादियों में घूमने का निर्णय हुआ।
उसी क्रम में हमलोग एक मित्र के यहाँ कटनी में रूके थे। वह दौर हमारे अर्थसंकट का दौर था। तय किया गया कि कटनी से जबलपुर जाकर शाम तक वापस आया जा सकता है। हमलोग सुबह रवाना हुए। भेड़ा घाट में स्नान हुआ। कुल सौ रूपये में से भोजन वगैरह में 50 रूपये खर्च हो गए। शहर से बाहर निकलते ही मोटर सायकिल पंचर। मरम्मती बाद बढ़े कि फिर पंचर, इस प्रकार तीन बार पंचर। हिम्मत जुटाकर वापस चले।
रास्ते के जंगल में जोर की वर्षा और ओले। किसी तरह बेटे को बीच में छुपाया। हेलमेट और बैग से जान बचाई। तीन-चार कीलोमीटर पर एक बाजार या छोटे कस्बेनुमा आबादी में पहुंचे तो पता चला कि यहां एक लॉज है, जिसमें रात बिताइ जा सकती है। हमने मोटरसायकिल खड़ी की। लॉजवाले से सिगल कमरा मांगा क्योंकि हमारे पास पैसे बहुत कम थे, कुल मात्र 45 रुपये। खैरियत थी कि पेट्रोल था। लॅाजवाले किसी हाल में तैयार नहीं। वह 65 रुपये के डबल बेड पर टड़ा था। हम भींगे हुए कांप रहे थे। कपड़े भी अतिरिक्त नहीं थे। उसी समय दो और सज्जन उसी लॉज में भींगे पहुंचे। उन्हे कुछ आशंका हुई तो पूछा कि आपको डबल बेड लेने से एतराज क्यों है?
हमने अपनी सच्चाई बताईं उन्हें दया आ गई। उन्होंने 45 रुपये दिये। डबल बेड लिया गया। कृतज्ञतापूर्वक पूर्वक उनका पता पूछा ताकि उनके रुपयों को मनिआर्डर से वापस किया जा सके। हमें पता नहीं मिला। हाँ, एक सुझाव मिला कि अगर कोई आपको भी मुसीबत में मिले तो यह राशि उसे दे कर समझियेगा कि कर्ज की वापसी हो गई।
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
प्रेत भोजन
प्रेत भोजन
1980 की बात है। मै बी0एच0यू0 का छात्र था। हॉस्टल नहीं मिला था। कमरा खाली नहीं था, उस समय हॉस्टल में गुंडों का बर्चस्व था। तात्पर्य है कि पहले छात्र को कमरे पर काबिज होना पड़ता था। आवंटन आदि की औपचारिकता बाद में पूरी कर ली जाती थी।
कला संकाय के छात्रों को बिरला छात्रावास मिलना था। समस्या गंभीर थी, एक तो कमरे का मिलना, फिर गुंडो का आतंक। पता लगाने पर पता चला कि एक कमरा 198 नंबर का खाली है, जिसे कोई लेने को तैयार नहीं है। वह कमरा अभिशप्त माना जाता था। उसमें रहने वाले पूर्ववर्ती 2 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी। उस समय उसमें अस्थाई योग शिक्षक मौर्य जी का भोजन बनता था क्योंकि घर में उन्हें मनोनुकूल भोजन नहीं मिल पाता था। मौर्य जी हठयोगी थे। उनका प्रेशर कूकर 8 लीटर का था। 24 घंटे में एक बार खाना पसंद करते थे। भारतीय होकर भी पूरे अफ्रीकी कद-काठी के थे। उनसे लड़ने का किसी को साहस नहीं था और उनका स्वभाव अति विनम्र।
मौर्य जी ने कमरा देना स्वीकार किया। असली बात यह थी कि मैं रह सकूँगा या नहीं। अप्रैल के महीने में एक रात मेरा ‘कमरा प्रवेश’ हुआ। न बिस्तर, न पंखा, जो चौकी थी उस पर तकिये के रूप र्में इंट पर गमछा रखकर सो गया। सोने में उस्ताद होने पर भी नींद आते ही भय घेरने लगा।
पहले बरामदे में रूनझुन आवाज आई, फिर करूण क्रन्दन, फिर 2 प्रेत दिखाई दिये और उसके बाद प्रेतों का मेला ही लग गया। पता नहीं रात के कितने घंटे बीत गए। मुझे प्रेत नोच रहे थे, कोई गला दबा रहा था। लगता कि अब साँस बंद हो जायेगी और मौत हो जायेगी।
अचानक मेरे मन में विचार आया कि मुसीबत में हनुमान जी काम आते हैं। हनुमान जी का विचार आते हीं मुझमें भी ज्ञान एवं बल का संचार होने लगा। आइडिया की तो बात ही क्या कहिये? विचार आया कि सुरसा जब मुँह फैला कर हुनमान जी को उदरस्थ कर सकती है, तब मैं ही क्यों नहीं इन प्रेतों का भोजन कर लूँ।
आम तौर पर जगे हाल में शाकाहारी ब्यक्ति भयानक प्रेतभोजी हो गया। मैं ने मुहँ फैलाया और साँस के बल पर प्रेतों को खींच खींच कर भोजन करता रहा। भय भयानक आत्म विश्वास में परिवर्तित हो चुका था। आस-पास के सारे प्रेत समाप्त हो चुके थे।
इस क्रम में मेरे पेट के अंदर हवा भरती जा रही थी, आनंद मस्ती अलग। जब भर-पेट भोजन हो तो डकार आयेगी ही। तो मुझे भी लंबी-लंबी डकार आने लगी। उसकी आवाज से पड़ोस के कमरे के लोगों को परेशानी होने लगी कि इस कमरे से ऐसी आवाज क्यों आ रहीं है। उस कमरे में निशाचर प्रकृति के लोग रहते थे। निशाचर मतलब छात्रवेश में छुपे अपराधी। उन्होंने टार्च जलाया, कमरा खुला था, बल्ब तो था ही नहीं। एक शव जैसा देख बे घबराये। साँस एवं डकार के कारण उन्हें मुझे छूने की हिम्मत जुटानी पड़ी। मुझे झकझोर कर जगाया।
मेरा स्वप्न बाधित हो गया था। भोजन से संतुष्टि पूरी नहीं हुई थी। मैं ने चिढ़कर जवाब दिया कितना अच्छा भोजन चल रहा, बीच में ही किसने विघ्र डाल दिया, लगता है तुम्हें ही खाना पडेगा।
उन्होने पूरी तरह जगाया। परिचय पूछा, नींद एवं स्वप्न का हाल बताना पड़ा। वे मुझे डरा नहीं सके। मैं उस कमरे में लगभग 5 महीने रहा। प्रेत भोज के बाद मृतआत्माओं का प्रकोप तो नहीं हुआ किन्तु उन निशाचरों ने बाद मे मुझे बहुत कष्ट दिया।
1980 की बात है। मै बी0एच0यू0 का छात्र था। हॉस्टल नहीं मिला था। कमरा खाली नहीं था, उस समय हॉस्टल में गुंडों का बर्चस्व था। तात्पर्य है कि पहले छात्र को कमरे पर काबिज होना पड़ता था। आवंटन आदि की औपचारिकता बाद में पूरी कर ली जाती थी।
कला संकाय के छात्रों को बिरला छात्रावास मिलना था। समस्या गंभीर थी, एक तो कमरे का मिलना, फिर गुंडो का आतंक। पता लगाने पर पता चला कि एक कमरा 198 नंबर का खाली है, जिसे कोई लेने को तैयार नहीं है। वह कमरा अभिशप्त माना जाता था। उसमें रहने वाले पूर्ववर्ती 2 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी। उस समय उसमें अस्थाई योग शिक्षक मौर्य जी का भोजन बनता था क्योंकि घर में उन्हें मनोनुकूल भोजन नहीं मिल पाता था। मौर्य जी हठयोगी थे। उनका प्रेशर कूकर 8 लीटर का था। 24 घंटे में एक बार खाना पसंद करते थे। भारतीय होकर भी पूरे अफ्रीकी कद-काठी के थे। उनसे लड़ने का किसी को साहस नहीं था और उनका स्वभाव अति विनम्र।
मौर्य जी ने कमरा देना स्वीकार किया। असली बात यह थी कि मैं रह सकूँगा या नहीं। अप्रैल के महीने में एक रात मेरा ‘कमरा प्रवेश’ हुआ। न बिस्तर, न पंखा, जो चौकी थी उस पर तकिये के रूप र्में इंट पर गमछा रखकर सो गया। सोने में उस्ताद होने पर भी नींद आते ही भय घेरने लगा।
पहले बरामदे में रूनझुन आवाज आई, फिर करूण क्रन्दन, फिर 2 प्रेत दिखाई दिये और उसके बाद प्रेतों का मेला ही लग गया। पता नहीं रात के कितने घंटे बीत गए। मुझे प्रेत नोच रहे थे, कोई गला दबा रहा था। लगता कि अब साँस बंद हो जायेगी और मौत हो जायेगी।
अचानक मेरे मन में विचार आया कि मुसीबत में हनुमान जी काम आते हैं। हनुमान जी का विचार आते हीं मुझमें भी ज्ञान एवं बल का संचार होने लगा। आइडिया की तो बात ही क्या कहिये? विचार आया कि सुरसा जब मुँह फैला कर हुनमान जी को उदरस्थ कर सकती है, तब मैं ही क्यों नहीं इन प्रेतों का भोजन कर लूँ।
आम तौर पर जगे हाल में शाकाहारी ब्यक्ति भयानक प्रेतभोजी हो गया। मैं ने मुहँ फैलाया और साँस के बल पर प्रेतों को खींच खींच कर भोजन करता रहा। भय भयानक आत्म विश्वास में परिवर्तित हो चुका था। आस-पास के सारे प्रेत समाप्त हो चुके थे।
इस क्रम में मेरे पेट के अंदर हवा भरती जा रही थी, आनंद मस्ती अलग। जब भर-पेट भोजन हो तो डकार आयेगी ही। तो मुझे भी लंबी-लंबी डकार आने लगी। उसकी आवाज से पड़ोस के कमरे के लोगों को परेशानी होने लगी कि इस कमरे से ऐसी आवाज क्यों आ रहीं है। उस कमरे में निशाचर प्रकृति के लोग रहते थे। निशाचर मतलब छात्रवेश में छुपे अपराधी। उन्होंने टार्च जलाया, कमरा खुला था, बल्ब तो था ही नहीं। एक शव जैसा देख बे घबराये। साँस एवं डकार के कारण उन्हें मुझे छूने की हिम्मत जुटानी पड़ी। मुझे झकझोर कर जगाया।
मेरा स्वप्न बाधित हो गया था। भोजन से संतुष्टि पूरी नहीं हुई थी। मैं ने चिढ़कर जवाब दिया कितना अच्छा भोजन चल रहा, बीच में ही किसने विघ्र डाल दिया, लगता है तुम्हें ही खाना पडेगा।
उन्होने पूरी तरह जगाया। परिचय पूछा, नींद एवं स्वप्न का हाल बताना पड़ा। वे मुझे डरा नहीं सके। मैं उस कमरे में लगभग 5 महीने रहा। प्रेत भोज के बाद मृतआत्माओं का प्रकोप तो नहीं हुआ किन्तु उन निशाचरों ने बाद मे मुझे बहुत कष्ट दिया।
रविवार, 10 अप्रैल 2011
काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
संस्मरण 5
काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
काका साहब की दाढ़ी 1970 के आस-पास काफी लंबी हो चुकी थी। चौड़ा चहेरा और सुंदर सफेद दाढ़ी मुझे अच्छी लगी थी। मेरी उम्र 10-11 साल के करीब होगी।
राजगिर, बिहार में सर्वोदय सम्मेलन था। मैं अपने पितामह के साथ था । किसी फूजी गुरूजी की चर्चा थी। उसी समय राष्ट्रपति के द्वारा शांति स्तूप का उद्घाटन होना था लेकिन मैं राष्ट्रपति से अधिक उनके उड़नखटोले के प्रति उत्सुक था। खैर दोनों केा देख लिया, कुछ खास मजा नहीं आया।
अब बारी महापुरुषों से मिलने की थी। गाँधी से मिल नहीं सकता था। मेरा जन्म 1959 में हुआ, ऐसा लोगों का कहना है। मैंने सोचा कि इस भीड़ में मैं बड़े लोगों से कैसे नजदीक से मिल सकता हूँ। तब बाबा (मेरे पितामह)से पता चला कि सबके अंतरंग क्षण एवं समय भी होते हैं। बिनोबा जी से मिला, ठीक-ठाक काम चलाऊ आदमी थे। खुशी की बात थी कि बच्चों से भी बात कर सकते थे। जयप्रकाश जी को बच्चे समझ में नहीं आते थे। मेरा एक बार उनसे मुकाबला हुआ। मैं अपनी फुलवारी के बिचड़े के लिये उनकी अच्छी सी माला जो उन्होंने उतार कर रख दी थी उसे पाने के प्रयास में था और उन्हें मेरी हरकतें नागवार लग रही थीं। चोर सिपाही के इस खेल में मुझे डर तो लग रहा था पर उन्हें छका कर बड़ा मजा आया। इसका वर्णन अलग से करूंगा।
काका कालेलकर जी के कमरे में हमलोग पहुँचे। उस समय वे राज्य सभा में सांसद थे। मेरे पितामह की भी दाढ़ी थी। पितामह ने पूछा काका साहेब! आपने दाढ़ी क्यों बढ़ाई? काका साहब ने पूछा - दाढ़ी तो आपकी भी बढ़ी हुई है, आपने क्यों बढ़ाई? मेरे पितामह ने कहा मैं तो 1923 से ही बढ़ाए हूँ, उस जमाने कहाँ नाई ढ़ूढ़ता, जो बढ़ गई सो बढ़ती रही। आपने तो बाद में बढ़ाई। काका साहब ने कहा - पाठक जी! दाढ़ी मेरे पूरी फक सफेद है। यह तो मैं अब बुढ़ापे का प्रमाण बना गले में लटकाए फिर रहा हूँ कि कुछ तो आराम मिले वरना लोग मुझे बूढ़ा मानने को तैयार ही नहीं। बाद में मुझे उनके कुछ विनोद पढ़ने को मिले। मैं जब भी पढ़ता मुझे काका कालेलकर जी, उनकी दाढ़ी और वे क्षण याद आ जाते।
काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
काका साहब की दाढ़ी 1970 के आस-पास काफी लंबी हो चुकी थी। चौड़ा चहेरा और सुंदर सफेद दाढ़ी मुझे अच्छी लगी थी। मेरी उम्र 10-11 साल के करीब होगी।
राजगिर, बिहार में सर्वोदय सम्मेलन था। मैं अपने पितामह के साथ था । किसी फूजी गुरूजी की चर्चा थी। उसी समय राष्ट्रपति के द्वारा शांति स्तूप का उद्घाटन होना था लेकिन मैं राष्ट्रपति से अधिक उनके उड़नखटोले के प्रति उत्सुक था। खैर दोनों केा देख लिया, कुछ खास मजा नहीं आया।
अब बारी महापुरुषों से मिलने की थी। गाँधी से मिल नहीं सकता था। मेरा जन्म 1959 में हुआ, ऐसा लोगों का कहना है। मैंने सोचा कि इस भीड़ में मैं बड़े लोगों से कैसे नजदीक से मिल सकता हूँ। तब बाबा (मेरे पितामह)से पता चला कि सबके अंतरंग क्षण एवं समय भी होते हैं। बिनोबा जी से मिला, ठीक-ठाक काम चलाऊ आदमी थे। खुशी की बात थी कि बच्चों से भी बात कर सकते थे। जयप्रकाश जी को बच्चे समझ में नहीं आते थे। मेरा एक बार उनसे मुकाबला हुआ। मैं अपनी फुलवारी के बिचड़े के लिये उनकी अच्छी सी माला जो उन्होंने उतार कर रख दी थी उसे पाने के प्रयास में था और उन्हें मेरी हरकतें नागवार लग रही थीं। चोर सिपाही के इस खेल में मुझे डर तो लग रहा था पर उन्हें छका कर बड़ा मजा आया। इसका वर्णन अलग से करूंगा।
काका कालेलकर जी के कमरे में हमलोग पहुँचे। उस समय वे राज्य सभा में सांसद थे। मेरे पितामह की भी दाढ़ी थी। पितामह ने पूछा काका साहेब! आपने दाढ़ी क्यों बढ़ाई? काका साहब ने पूछा - दाढ़ी तो आपकी भी बढ़ी हुई है, आपने क्यों बढ़ाई? मेरे पितामह ने कहा मैं तो 1923 से ही बढ़ाए हूँ, उस जमाने कहाँ नाई ढ़ूढ़ता, जो बढ़ गई सो बढ़ती रही। आपने तो बाद में बढ़ाई। काका साहब ने कहा - पाठक जी! दाढ़ी मेरे पूरी फक सफेद है। यह तो मैं अब बुढ़ापे का प्रमाण बना गले में लटकाए फिर रहा हूँ कि कुछ तो आराम मिले वरना लोग मुझे बूढ़ा मानने को तैयार ही नहीं। बाद में मुझे उनके कुछ विनोद पढ़ने को मिले। मैं जब भी पढ़ता मुझे काका कालेलकर जी, उनकी दाढ़ी और वे क्षण याद आ जाते।
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011
मेरी भैरव साधना
मेरी भैरव साधना
मैं बनारस के नगवाँ गाँव में रहता था। यह गाँव शहर से सटा हुआ था। अस्सी से दक्षिण नगवाँ गाँव है। शहर के पास, लेकिन मजा गाँव का। कष्ट भी वही। मेरा कमरा सड़क के किनारे था, कमरे के सामने बरामदा फिर सड़क, उसके बाद गेंदे की खेती, उसके बाद गंगा, गंगा किनारे कच्चा घाट। एक से एक जादू-टोने के सामान रोज मिलते, आखिर कितना डरा जाय तो हम डरे हीं, नहीं। हमारे जैसे कई ऐसे छात्र थे जो नहीं डरते थे।
एक दिन मैं नागरी नाटक मंडली (शहर का परम्परागत प्रेक्षा गृह) से नाटक देख करीब 12 बजे रात को कमरे में लौटा। बहुत तेज भूख लगी थी। लकड़ी के कोयले की अंगीठी पर खिचड़ी बनी, घर का घी मिलाया, थाली में परोसा। उस समय मेरे पास न पंखा था न टेबुल, न कुर्सी। एक चारपाई, कुश की, सस्ती वाली, दो चटाईयाँ, एक छोटा संदूक, एक साईकिल, यही कुल जमा पूँजी थी।
मैं चटाई पर बैठ गया, संदूक सामने रखा, गंदगी से बचाव एवं पंेट की रक्षा हेतु उस पर कुश की चटाई रखी, उस पर घी के सुगन्ध से युक्त खिचड़ी भरी थाली, बगल में लोटे-ग्लास में पानी। चूँकि खिचड़ी के ठंढे होने तक इंतजार करना ही था अतः पीछे रखी चटाई से पीठ टिकाकर बैठ गया। प्रतीक्षा थी खिचड़ी के ठंढी होने की। पता नहीं कब थकान और खुले दरवाजे से आती गंगा की ठंढी बयार ने मुझे सुला दिया। जब आँख खुली तब तक थाली पूरी साफ हो चुकी थी। मैं मन मसोसकर सो गया।
दूसरे दिन नित्य क्रिया के लिए गंगाजी से वापस लौटा तो मेरे मकान मालिक मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी तरह नतमस्तक। मेरा भूख से बुरा हाल था और वे थे कि मुझे महान साधक सिद्ध किए जा रहे थे।
बार-बार बोल रहे थे - मैं ने अपनी नजर से रात के 2 बजे देखा है कि कमरे में ध्यानस्थ साधक बैठा है और एक महान भैरव (बड़ा काला कुत्ता) मजे से भोग लगा रहा है। सामने पात्र (ग्लास) है, पता नहीं उसमें दक्षिण मार्गी का गंगा जल है या वाम मार्गी की मदिरा (कारणवारि)। ऐसा निर्विघ्न आमंत्रण एवं भैरव को साक्षात् भोग लगाते तो मैं ने कभी देखा ही नहीं। आप सचमुच सिद्ध पुरूष हैं। यह मैं ने देख लिया है। कुछ आशीर्वाद दें, मेरा भी भला हो।
उन्होंने आश्वासन दिया कि अगर आप वाम मार्गी हैं तो भी मैं आपको कमरे से नहीं भगाऊँगा। इतना ही नहीं पूजा सामग्री अर्थात् मांस एवं मदिरा की व्यवस्था मेरी ओर से रहेगी।
मुझे भय सताने लगा कि कहीं मेरी भैरव साधना की चर्चा घर पहुँच गई तो आगे की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा बंद हो जायेगा। मेरी भैरव साधना न करने सफाई कभी नहीं मानी गई।
मेरी काम भावना का विकास
मसूरी से आगे कैम्पटी में एक संस्था है सिद्ध। वहाँ बड़े-बड़े महान समाज सेवकों एवं बुद्धिजीवियों की एक बैठक हो रही थी। श्री अरूण कुमार पानी बाबा की कृपा से मैं भी वहाँ शामिल था, एक अज्ञानी। मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैं ने भी एक लेख लिख मारा - ”शिक्षा में मौन का महत्त्व“। बैठक में शिक्षा से संस्कार एवं संस्कार से ब्रह्मचर्य तक की बात उठी। आदरणीय राधा बहन जी और किसी पॉलिटेकनिक कॉलेज के एक प्राचार्य जी मनुष्य के अन्दर छुपी काम भावना के उन्मूलन में पूर्णतः तत्पर थे। वे दोनो ब्रह्मचारी, मैं पूर्णतः सांसारिक माया वाला आदमी। इनकी बात समझ में ही नहीं आ रही थी। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं ने अपनी उलझन रखी, सो आपको भी बता रहा हूँ।मैं गाँव में पैदा हुआ, वहाँ खेती और पशुपालन दोनो होता था। पशुओं की कामेच्छा, यौनक्रिया, गर्भधारण एवं प्रसव हमारे नित्य पारिवारिक चर्चा का प्रसंग था, क्योंकि गाय/भैस के प्रसव से हमारे दूध मिलने का सीधा रिश्ता था। बनिए के कर्ज की भरपाई खेती से नहीं पशुपालन से ही हो पाती थी। 10-12 साल तक भले ही हमने मनुष्य को रति क्रिया करते न देखा हो किन्तु पता था कि मनुष्य भी कुछ ऐसा ही करते हैं। 16-17 साल तक अपनी जवानी भी चढ़ने लगी थी। 20 साल की उम्र कॉलेज के दिनों की। आए दिन संत महात्मा, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते-सुनाते मिलते तो घर के बड़े लोगों के साथ बहनों की शादी के लिए वर ढूंढ़ने जाने में भी झोला ढोने के लिये बे मन उनका साथ देना पड़ता। मुख्य चिंतन का विषय लड़के-लड़की की कद-काठी, दोनो के भावी दांमपत्य के मूल आधार, कमाई की संभवना, संततियोग एवं शारीरिक संरचना होते। और तो और जब हम जिम्मेारी के लायक माने जाने लगे तो हमें पशु मेले से बछिया और कड़िया (भैस का मादा बच्चा) खरीदना सीखना था। दो बातें मूल थीं कि के आगे बछिया और कड़िया चलकर दुधारू हो, प्रसवकाल में मरे नहीं। पूरी जवान गाय, भैस के शरीर विकास का अनुमान, चमड़ी से हड्डी तक पैनी नजर पहचानने वाली बने, यही तो काम था। जब जानवर समझा तो आदमी भी समझ में आने लगे।
इस प्रकार मेरी काम भावना का विकास होता रहा। बाहर की औरत के पहले हमें तो भीतर की औरत से भंेट कराया गया, उसका मजा ही अलग है। इस प्रसंग को बाद में लिखूँगा। हाँ तो इस प्रकार सृष्टि के नजदीकी सभी रूपों को काम भावना की दृष्टि से देखने-सुनने, विचार करने की प्रक्रिया पर मुझे समाज के किसी सदस्य ने न कभी टोका, न मना किया, इसलिये उस बैठक में समझ में नहीं आया कि मेरी काम भावना के विस्तार से समाज को क्या संकट हुआ ?अब तो अगर अविवाहित लड़के-लड़के दिखे नहीं कि तुरन्त ख्याल आता है कि जोड़ी कैसी रहेगी? ठीक लगी तो लगता है इनकी शादी हो जाती। मेरा बेटा भोपाल में पढ़ता है, उसकी बहू के लिए ख्याल आ ही जाता है। मैंने अपनी तीन बहनों एवं दो भाईयों की शादी में सीधे जिम्मेवारी बड़े भाई के रूप में निभाई। हर साल एक-दो जोड़ी का जुगाड़ बैठाता हूँ। मुझे अपने बेटे के लिए अच्छी बहू के साथ एक अच्छी खूबसूरत समधन भी मिल जाये तो और अच्छा। इससे न तो मेरी पत्नी को समस्या होगी न एक मस्त समधी से मुझे जो हँसी मजाक में रस लेने वाला हो। बुढ़ापे का सुख तो इसी में है कि दूसरे को खेलते-खाते हँसते देख अपनी जवानी और बचपन की बेवकूफियों पर हँसा जाए, नहीं तो जलन का रोग चिता पर चढ़ने से पहले ही जला डालेगा।
मुझे समझ में नहीं आता कि ब्रह्मचर्यवादियों की समस्या क्या है? मेरी काम भावना के विकास से उन्हें क्या कष्ट हो सकता है? उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया। यदि मेरा रास्ता गलत हो तो सुधार का प्रयास इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो किया ही जा सकता है। अन्यथा यह काम भावना पोते-पोतियों की पीढ़ी तक फैलती ही जायेगी। ईश्वर जाने आगे क्या होगा?
मैं बनारस के नगवाँ गाँव में रहता था। यह गाँव शहर से सटा हुआ था। अस्सी से दक्षिण नगवाँ गाँव है। शहर के पास, लेकिन मजा गाँव का। कष्ट भी वही। मेरा कमरा सड़क के किनारे था, कमरे के सामने बरामदा फिर सड़क, उसके बाद गेंदे की खेती, उसके बाद गंगा, गंगा किनारे कच्चा घाट। एक से एक जादू-टोने के सामान रोज मिलते, आखिर कितना डरा जाय तो हम डरे हीं, नहीं। हमारे जैसे कई ऐसे छात्र थे जो नहीं डरते थे।
एक दिन मैं नागरी नाटक मंडली (शहर का परम्परागत प्रेक्षा गृह) से नाटक देख करीब 12 बजे रात को कमरे में लौटा। बहुत तेज भूख लगी थी। लकड़ी के कोयले की अंगीठी पर खिचड़ी बनी, घर का घी मिलाया, थाली में परोसा। उस समय मेरे पास न पंखा था न टेबुल, न कुर्सी। एक चारपाई, कुश की, सस्ती वाली, दो चटाईयाँ, एक छोटा संदूक, एक साईकिल, यही कुल जमा पूँजी थी।
मैं चटाई पर बैठ गया, संदूक सामने रखा, गंदगी से बचाव एवं पंेट की रक्षा हेतु उस पर कुश की चटाई रखी, उस पर घी के सुगन्ध से युक्त खिचड़ी भरी थाली, बगल में लोटे-ग्लास में पानी। चूँकि खिचड़ी के ठंढे होने तक इंतजार करना ही था अतः पीछे रखी चटाई से पीठ टिकाकर बैठ गया। प्रतीक्षा थी खिचड़ी के ठंढी होने की। पता नहीं कब थकान और खुले दरवाजे से आती गंगा की ठंढी बयार ने मुझे सुला दिया। जब आँख खुली तब तक थाली पूरी साफ हो चुकी थी। मैं मन मसोसकर सो गया।
दूसरे दिन नित्य क्रिया के लिए गंगाजी से वापस लौटा तो मेरे मकान मालिक मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी तरह नतमस्तक। मेरा भूख से बुरा हाल था और वे थे कि मुझे महान साधक सिद्ध किए जा रहे थे।
बार-बार बोल रहे थे - मैं ने अपनी नजर से रात के 2 बजे देखा है कि कमरे में ध्यानस्थ साधक बैठा है और एक महान भैरव (बड़ा काला कुत्ता) मजे से भोग लगा रहा है। सामने पात्र (ग्लास) है, पता नहीं उसमें दक्षिण मार्गी का गंगा जल है या वाम मार्गी की मदिरा (कारणवारि)। ऐसा निर्विघ्न आमंत्रण एवं भैरव को साक्षात् भोग लगाते तो मैं ने कभी देखा ही नहीं। आप सचमुच सिद्ध पुरूष हैं। यह मैं ने देख लिया है। कुछ आशीर्वाद दें, मेरा भी भला हो।
उन्होंने आश्वासन दिया कि अगर आप वाम मार्गी हैं तो भी मैं आपको कमरे से नहीं भगाऊँगा। इतना ही नहीं पूजा सामग्री अर्थात् मांस एवं मदिरा की व्यवस्था मेरी ओर से रहेगी।
मुझे भय सताने लगा कि कहीं मेरी भैरव साधना की चर्चा घर पहुँच गई तो आगे की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा बंद हो जायेगा। मेरी भैरव साधना न करने सफाई कभी नहीं मानी गई।
मेरी काम भावना का विकास
मसूरी से आगे कैम्पटी में एक संस्था है सिद्ध। वहाँ बड़े-बड़े महान समाज सेवकों एवं बुद्धिजीवियों की एक बैठक हो रही थी। श्री अरूण कुमार पानी बाबा की कृपा से मैं भी वहाँ शामिल था, एक अज्ञानी। मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैं ने भी एक लेख लिख मारा - ”शिक्षा में मौन का महत्त्व“। बैठक में शिक्षा से संस्कार एवं संस्कार से ब्रह्मचर्य तक की बात उठी। आदरणीय राधा बहन जी और किसी पॉलिटेकनिक कॉलेज के एक प्राचार्य जी मनुष्य के अन्दर छुपी काम भावना के उन्मूलन में पूर्णतः तत्पर थे। वे दोनो ब्रह्मचारी, मैं पूर्णतः सांसारिक माया वाला आदमी। इनकी बात समझ में ही नहीं आ रही थी। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं ने अपनी उलझन रखी, सो आपको भी बता रहा हूँ।मैं गाँव में पैदा हुआ, वहाँ खेती और पशुपालन दोनो होता था। पशुओं की कामेच्छा, यौनक्रिया, गर्भधारण एवं प्रसव हमारे नित्य पारिवारिक चर्चा का प्रसंग था, क्योंकि गाय/भैस के प्रसव से हमारे दूध मिलने का सीधा रिश्ता था। बनिए के कर्ज की भरपाई खेती से नहीं पशुपालन से ही हो पाती थी। 10-12 साल तक भले ही हमने मनुष्य को रति क्रिया करते न देखा हो किन्तु पता था कि मनुष्य भी कुछ ऐसा ही करते हैं। 16-17 साल तक अपनी जवानी भी चढ़ने लगी थी। 20 साल की उम्र कॉलेज के दिनों की। आए दिन संत महात्मा, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते-सुनाते मिलते तो घर के बड़े लोगों के साथ बहनों की शादी के लिए वर ढूंढ़ने जाने में भी झोला ढोने के लिये बे मन उनका साथ देना पड़ता। मुख्य चिंतन का विषय लड़के-लड़की की कद-काठी, दोनो के भावी दांमपत्य के मूल आधार, कमाई की संभवना, संततियोग एवं शारीरिक संरचना होते। और तो और जब हम जिम्मेारी के लायक माने जाने लगे तो हमें पशु मेले से बछिया और कड़िया (भैस का मादा बच्चा) खरीदना सीखना था। दो बातें मूल थीं कि के आगे बछिया और कड़िया चलकर दुधारू हो, प्रसवकाल में मरे नहीं। पूरी जवान गाय, भैस के शरीर विकास का अनुमान, चमड़ी से हड्डी तक पैनी नजर पहचानने वाली बने, यही तो काम था। जब जानवर समझा तो आदमी भी समझ में आने लगे।
इस प्रकार मेरी काम भावना का विकास होता रहा। बाहर की औरत के पहले हमें तो भीतर की औरत से भंेट कराया गया, उसका मजा ही अलग है। इस प्रसंग को बाद में लिखूँगा। हाँ तो इस प्रकार सृष्टि के नजदीकी सभी रूपों को काम भावना की दृष्टि से देखने-सुनने, विचार करने की प्रक्रिया पर मुझे समाज के किसी सदस्य ने न कभी टोका, न मना किया, इसलिये उस बैठक में समझ में नहीं आया कि मेरी काम भावना के विस्तार से समाज को क्या संकट हुआ ?अब तो अगर अविवाहित लड़के-लड़के दिखे नहीं कि तुरन्त ख्याल आता है कि जोड़ी कैसी रहेगी? ठीक लगी तो लगता है इनकी शादी हो जाती। मेरा बेटा भोपाल में पढ़ता है, उसकी बहू के लिए ख्याल आ ही जाता है। मैंने अपनी तीन बहनों एवं दो भाईयों की शादी में सीधे जिम्मेवारी बड़े भाई के रूप में निभाई। हर साल एक-दो जोड़ी का जुगाड़ बैठाता हूँ। मुझे अपने बेटे के लिए अच्छी बहू के साथ एक अच्छी खूबसूरत समधन भी मिल जाये तो और अच्छा। इससे न तो मेरी पत्नी को समस्या होगी न एक मस्त समधी से मुझे जो हँसी मजाक में रस लेने वाला हो। बुढ़ापे का सुख तो इसी में है कि दूसरे को खेलते-खाते हँसते देख अपनी जवानी और बचपन की बेवकूफियों पर हँसा जाए, नहीं तो जलन का रोग चिता पर चढ़ने से पहले ही जला डालेगा।
मुझे समझ में नहीं आता कि ब्रह्मचर्यवादियों की समस्या क्या है? मेरी काम भावना के विकास से उन्हें क्या कष्ट हो सकता है? उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया। यदि मेरा रास्ता गलत हो तो सुधार का प्रयास इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो किया ही जा सकता है। अन्यथा यह काम भावना पोते-पोतियों की पीढ़ी तक फैलती ही जायेगी। ईश्वर जाने आगे क्या होगा?
शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011
संस्मरण 4 मौन में व्याख्यान
संस्मरण 4 मौन में व्याख्यान
भारतीय संस्कृति के अनेक पक्षों में महत्वपूर्ण पक्ष अध्यात्म, योग वगैरह की साधना, उसकी विविध पद्धतियों एवं उसकी लंबी परम्परा को भी माना जाता है। तन, मन एवं सृष्टि के साथ उसके संबंधों पर कई जन्मों तक में न पढ़ी जा सकने लायक किताबें लिखी-पढ़ी, बिखरी पड़ी है। पोथियों के खिलाफ बोलनेवालों की भी पोथिंयाँ आ गई हैं। यह पोथी विरोध समझ में नहीं आता था।
मेरे गाँव-इलाके यूँ कहिए कि जिले के आरा, सासाराम रोड पर पीरो बिक्रमगंज के बीच दुर्गा डीह नामक गाँव में एक महान व्यक्ति पैदा हुए, 1920 के आस-पास। बचपन में साधु होकर घर से निकले। हिमालय आदि में साधना सीखी। साधना पूरी हो गई। अब बारी आई सिखाने की। गुरूजी ने दक्षिणा-बिदाई के अवसर पर कहा - ऋषिकेश वाले शिवानंद जी के शिष्य देश-विदेश में योग सिखा रहे हैं। तुम भी सिखाओ।
नये साधु का नामकरण स्वामी मधुसूदनदास जी हो गया था। स्वामी मधुसुदन दास जी ठहरे अनपढ़। अनपढ के द्वारा योग शिक्षा, वह भी देश एवं विदेश में। आसन-प्राणायम हठयोग सिखाना नहीं, सिखाना राजयोग, ध्यान योग, कुंडलिनी, साधना वगैरह। स्वामी मधुसुदन दास जी की मजबूरी में उनके भीतर के असली गुरू का स्वरूप उभरा और उन्होंने ऐसी विधि प्रचलित की, जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सका।
स्वामी मधुसूदन दास जी पूरे परिवार को एक दरी पर पाँच-छः फूट की दूरी पर बिठाते। उन्हें आँख मूंदने को कहते और अपने सामर्थ्य से उनकी अंतर्यात्रा शुरू करा देते।
आँख बंद किए हुए ही अपने शरीर एवं मन के संस्कारों के अनुरूप सबकी साधना शुरू। आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, धारणा, ध्यान एवं एक साथ होने लगते। मजेदार यह कि किसी को पता नहीं कि मेरी साधना के इस मार्ग को क्या कहते हैं, उनकी प्रगति का स्तर क्या है और उसका महत्व क्या है? परिणाम यह कि कोई अहंकार नहीं। केाई ढांेग नहीं, न दुविधा, न प्रश्न, न उत्तर, बस सभी लगे रहे।
संकट मेरे जैसे किताब वालों को कि अदभुत विधि है? कितनी प्रामाणिक और सरल। जब बाहर से ही पता इतना चल जाता है तो भीतर का क्या अनुमान करें। दुर्भाग्य ऐसे सच्चे साधु को लोग समझ नहीं सके। अब तो उनके चेले भी किताब लिख रहे हैं। इनका आश्रम गुजरात में है।
भारतीय संस्कृति के अनेक पक्षों में महत्वपूर्ण पक्ष अध्यात्म, योग वगैरह की साधना, उसकी विविध पद्धतियों एवं उसकी लंबी परम्परा को भी माना जाता है। तन, मन एवं सृष्टि के साथ उसके संबंधों पर कई जन्मों तक में न पढ़ी जा सकने लायक किताबें लिखी-पढ़ी, बिखरी पड़ी है। पोथियों के खिलाफ बोलनेवालों की भी पोथिंयाँ आ गई हैं। यह पोथी विरोध समझ में नहीं आता था।
मेरे गाँव-इलाके यूँ कहिए कि जिले के आरा, सासाराम रोड पर पीरो बिक्रमगंज के बीच दुर्गा डीह नामक गाँव में एक महान व्यक्ति पैदा हुए, 1920 के आस-पास। बचपन में साधु होकर घर से निकले। हिमालय आदि में साधना सीखी। साधना पूरी हो गई। अब बारी आई सिखाने की। गुरूजी ने दक्षिणा-बिदाई के अवसर पर कहा - ऋषिकेश वाले शिवानंद जी के शिष्य देश-विदेश में योग सिखा रहे हैं। तुम भी सिखाओ।
नये साधु का नामकरण स्वामी मधुसूदनदास जी हो गया था। स्वामी मधुसुदन दास जी ठहरे अनपढ़। अनपढ के द्वारा योग शिक्षा, वह भी देश एवं विदेश में। आसन-प्राणायम हठयोग सिखाना नहीं, सिखाना राजयोग, ध्यान योग, कुंडलिनी, साधना वगैरह। स्वामी मधुसुदन दास जी की मजबूरी में उनके भीतर के असली गुरू का स्वरूप उभरा और उन्होंने ऐसी विधि प्रचलित की, जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सका।
स्वामी मधुसूदन दास जी पूरे परिवार को एक दरी पर पाँच-छः फूट की दूरी पर बिठाते। उन्हें आँख मूंदने को कहते और अपने सामर्थ्य से उनकी अंतर्यात्रा शुरू करा देते।
आँख बंद किए हुए ही अपने शरीर एवं मन के संस्कारों के अनुरूप सबकी साधना शुरू। आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, धारणा, ध्यान एवं एक साथ होने लगते। मजेदार यह कि किसी को पता नहीं कि मेरी साधना के इस मार्ग को क्या कहते हैं, उनकी प्रगति का स्तर क्या है और उसका महत्व क्या है? परिणाम यह कि कोई अहंकार नहीं। केाई ढांेग नहीं, न दुविधा, न प्रश्न, न उत्तर, बस सभी लगे रहे।
संकट मेरे जैसे किताब वालों को कि अदभुत विधि है? कितनी प्रामाणिक और सरल। जब बाहर से ही पता इतना चल जाता है तो भीतर का क्या अनुमान करें। दुर्भाग्य ऐसे सच्चे साधु को लोग समझ नहीं सके। अब तो उनके चेले भी किताब लिख रहे हैं। इनका आश्रम गुजरात में है।
रविवार, 27 मार्च 2011
बहुरंग : रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण
मेरे जाने-अनजाने मित्र गण! नमस्कार।
मैं ने भी ब्लाग की दुनिया में पैर रखा है। 30 साल की घुमक्कड़ी विविध सामाजिक प्रयोग एवं दुर्लभ व्यक्तियों के संपर्क के साथ मेरी मूर्खता ने मुझे रंगीन दुनिया के कई रंगों से परिचित कराया। उन पर मैं ने संस्मरण लिखा।
इस ब्लॉग में मेरे संस्मरण हैं। ये बहुरंगी दुनिया के कुछ रोचक और कुछ रहस्यमय परतों में आपको ले जायेंगे। मेरी इस दुनिया में अनेक प्रकार के लोग हैं - गृहस्थ, संन्यासी, घुमक्कड़, साधु, बौद्ध भिक्षु, अपराधी, इतिहासकार, पुरातत्त्वविद, वैज्ञानिक, कवि, लेखक, पुलिस पदाधिकारी, राजनेता, वेश्याएं, जुआरी, सामाजिक कार्यकर्ता, तांत्रिक, औघड़, पंडे, पुरोहित, वैद्य, कलाकार, पूर्व नक्सली, पत्रकार, उद्योगपति, स्वतंत्रता सेनानी, चरवाहे, नाविक, अति स्वाभिमानी और पूर्ण निर्लज्ज, मेरे मित्र एवं घर-परिवार के लोगतथ्यपरक एवं ज्ञानवर्धक सामग्री के लिये मेरा अन्य ब्लॉग है - दूसरा पहलू ।
इस ब्लाग की सारी सामग्री एक साथ पाकर मेरे मित्र एवं पाठक घबराने लगे और कुछेक को इतना अच्छा लगा कि वे इसे पढ़ने के लिये पता नहीं कब समय निकालेंगे। इसलिये मैं ने सोचा है कि किश्तवार कभी रोचक, कभी ज्ञानवर्द्धक एवं कभी आपकी जडता और एक रसता को तोड़ने वाली सामग्री पेश करूंगा।
फिलहाल अपने कुछ संस्मरणों की सूची दे रहा हूॅँ , जो अगले अंकों में आयेंगे--
बहुरंग: रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण
1 नींद का चमत्कार
2 समाधिस्थ बालक का सच
3 कर्फ्यू-पास
4 मौन में व्याख्यान
5 मेरी काम भावना का विकास
6 काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
7 मेरी भैरव साधना
8 मौके की मदद
9 भुइयाँ एवं संथाल का तिरगुन फाँस
10 गोआम
11 प्रेत भोजन
12 गन्ने की खेती का रस
13 मेरे बाबा
14 मुत्यु की शिक्षा और साक्षात्कार
इसके बाद के संस्मरणों की सूची टाइपिस्ट महाशय के यहां से सामग्री आने के बाद मिलेगी
बहुरंग : रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण
संस्मरण- 1
नींद का चमत्कार
सन् 81-82 की बात है। मैं उस समय का0 हि0 वि0 वि0, वाराणसी, में शोध छात्र था। मेरा गाँव, बिहार के भोजपुर जिले में पड़ता है, जहाँ के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध योद्धा बाबू वीर कुँवर सिंह रहे हैं। उनके गाँव जगदीशपुर में आज उनके किले के खंडहर के एक भाग को जो तुलनात्मक रूप से ठीक है, बिहार सरकार ने संग्रहालय घोषित कर रखा है। उनकी शेष संपत्तियों की ब्रिटिश काल में ही नीलामी हो चुकी है।
मुझे अपने अध्ययन के दौरान जैसे ही पता चला कि कुँवर सिंह की स्मृति में बने संग्रहालय पर उसी जिले के कुख्यात अपराधियांे का कब्जा है मैं निदेशक पुरातत्व से मिला तो उन्होने भी पुष्टि की और बात-बात में यह चुनौती सामने आई कि क्या इन अपराधियों से कोई संवाद भी हो सकता है? दरअसल ये इतने कुख्यात थे कि इनकी दृष्टि में सिगरेट का एक कश और एक हत्या में कोई फर्क नहीं था और ये सभी संपन्न घरों के बिगडै़ल जवान/प्रौढ़ थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच और मेरी 21-22 की थी।
संवाद की सबसे बड़ी बाधा उनके द्वारा देखते ही संदेह होने पर गोली चला देने की थी। मैं ने उस समूह के एक सरगना (आज स्व0) माल बाबू के एक शिक्षक से भेंटकर एक पत्र प्राप्त किया कि मुझे उनकी मदद की जरूरत है।
एक गर्मी की शाम 6.00 बजे मैं उनकी महफिल में पहुँचा। पहुँचते ही अपना परिचय देकर शिक्षक का नाम बताया और कहा कि जो भी व्यक्ति माल बाबू हों पत्र प्राप्त कर लें।
करीब 40-50 लोग बंदूक-रायफल वगैरह से लैस थे। मुझे एक चौकी पर (तख्त) बैठने को कहा गया। शाम की ठंढी हवा एवं थकान के कारण मुझे कब नींद आई, पता नहीं चला। नींद भी ऐसी कि रात मंे जगाने की सामान्य कोशिश के बाद भी नहीं खुली।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं भीतर से घबराया हुआ था और अपने आप को कोश रहा था और माल बाबू विस्मित, थके मुझे निहार रहे थे। मेरी उम्र के कारण झेंप रहे थे नहीं तो साष्टंाग दंडवत की मुद्रा में उन्होने कहा - बाबा (पाठक, ब्राह्मण होने के कारण) आप एकदम असाधारण चमत्कारी मनुष्य हैं, मैं यह भी समझ गया हूँ कि आप कोई छोटी-मोटी बात कहने नहीं आए होंगे फिर भी आपके बिना कहे भी यह मैं वादा करता हूँ कि आप जो भी कहेंगे उसका अक्षरशः पालन होगा, केवल वह बात सम्मान के विरूद्ध नहीं होनीं चाहिए।
मैं ने अपनी नींद को कोसा, माफी माँगी कि आपको मेरी रक्षा में रात भर जगना पड़ा। माल बाबू ने कहा - जिसके भय से पूरा इलाका थर्राता है। जनता-प्रशासन ठीक से सो नहीं पाती उस दल के बीच ऐसी नींद तो किसी असाधारण आदमी को ही आ समती है, आप महान हैं, मैं आपको गुरू बनाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं स्वयं सहमा और ग्लानि ग्रस्त था। मैं स्वये जानता हूं कि मैं सनक में न रहूं तो कितना बड़ा डरपोक हूं।
मैं ने उस संग्रहालय भवन को खाली करने का प्रस्ताव रखा। माल बाबू हँसे, बोले, एकदम ठीक, मैंने ठीक समझा था। मैं फिर फेरे में पड़ा, मालबाबू फिर हँसे, बोले बाबा आज के पहले माल बाबू से कोई यह बात कह नहीं सका। आप नहीं जानते कि अब तक गोली आपको छेद चुकी होती और आप यह नहीं समझ रहे कि कितनी बड़ी बात आपने मुझसे कही और माँगी है। माल बाबू अड्डा छोड़ दें, कारोबार छोड़ दें, रुतबा छोड़ दंे सचमुच मेरी लिए भी बड़ी बात है फिर भी वादा सो वादा।
इसका सम्मान जनक राश्ता यह निकाला गया कि माल बाबू स्वयं संग्रहालय की मरम्मत कर सभा आयोजन कर विदा होंगे।
बड़े सम्मान से मुझे बस में बिठाया गया। मैं जब पुरातत्व निदेशक के पास पहुँचा तो ेपहले तो वे चकित हुए फिर जातिवादी पेंच फंसाया कि कुंवर सिंह तो ठाकुर/राजपूत थे। आप को इस पचड़े से क्या लेना वगैरह-वगैरह। मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
माल बाबू तो मान गए लेकिन जातिवादी रंग मे रंगे निदेशक श्री सीताराम जी को कुँवर सिंह, खटकते रहे क्योंकि वे उनकी जाति के नहीं थे।
एक दिन आरा (जिला मुख्यालाय) की कचहरी पर मालबाबू गिरोह के सभी सदस्य मिल गए। मुझे बचते देख माल बाबू ने बुलाया सबसे परिचय कराया मुझे गुरु बताया। मेरी भारी दुर्गति, डर कि घर तक खर खबर जायेगी कि मैं गुडांे की टीम में हूँ। खैर, मैंने हार मानी, निदेशक वाली बात बताई। माल बाबू की आँखो में मेरी विवशता पर आँसू आ गए। कुछ वर्षों बाद पला चला कि माल बाबू की भी हत्या हो गई।
संस्मरण-2
मुझे पढ़ाने के लिए विद्वानों की बैठक बुलाकर शिक्षा पद्धति तय की गई। तय यह हुआ कि इस बच्चे को (क) बच्चों की संगति से दूर रखा जायेगा (ख) विद्यालय नहीं भेजा जायेगा (ग) स्वतंत्र पाठ्यक्रम बनाकर घर पर पढ़ाया जायेगा (घ) परदादा जी की निगरानी में पढ़ाई होगी (ड़) 12-14 साल तक शास्त्रार्थ सभा में विजेता बनाया जाएगा।
मेरा गाँव सुदूर देहात में है। मेरे दो प्रपितामह थे। छोटे वाले सांख्य, वेदांत, व्याकरण साहित्य में 4 विषयों में तीर्थ अर्थात स्नातकोत्तर उपाधिधारी थे।
7 वर्ष तक में मुझे गीता एवं अमरकोश, एक कांड कंठस्थ हो गया। मैं स्वयं खिलौना हो गया। घर रिश्तेदारी के बच्चे मुझे भोंपू कहते थे, ननिहाल में बहुत मजाक उड़ता था। जैसे ग्रामोफोन ; उस जमाने में वही थाद्ध की कुंडली, घुमाकर रिकार्ड/तवा बजता वैसे ही मेरे काम में आदेश मिलते ही बुजुर्गों के सामने गीता पाठ करना एवं मिठाई फल वगैरह खाना पड़ता था। वस्तुतः मैं बहुद उदास और दुखी रहता था।खेलने पर मनाही थी और बेवजह खूब पिटाई भी होती थी। इसके साथ बुजुर्गों की अपसी बहस भी समानांतर चलती रहती कि बच्चे को पीटने से लाभ है या हानि। इस पर मैं भीतर ही भीतर सुलगता रहता क्योंकि कुछ कर तो सकता था नहीं।
एक बार मेरे बड़े प्रपितामह को काशीवास के लिए बनारस लाया गया। अस्सी घाट पर नहाकर गीता सुनाने की मेरी ड्यूटी लगी। मैं भी स्नान कर पालथी मारकर ”धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे“ से शुरू हो गया। पाठ चालू, सामने मिठाई, फल, हो सकता है कुछ भक्तों ने कुछ सिक्के भी रखे होंगे, किसी ने मना किया होगा कि हमें दान नहीं लेना। मैं तो रोज के गीता पाठ से ऊबा गंगा की धारा में खड़ी बड़ी नौका, और उसपार पतंग उड़ाते बच्चे को देख रहा था। बच्चे और पतंग में इतन निमग्न था कि मुझे न तो आस-पास का दृश्य दिखाई दे रहा था, न ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, मैं एकटक बस पंतग देख रहा था। स्नानार्थी भक्त आते-जाते रहे, टोक-टाक का भी असर नहीं हुआ तो लोगों ने घेर लिया कि कोई दिव्य, चमत्कारी बालक आया हैं। खुली आँख से समाधि लगाता है। मेरे पितामह ताड़ गए वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होेंने झकझोर कर सचेत किया। मैं फल-मिठाई लेकर डेरे पर लौटा।
बडे़ प्रपितामह तो नहीं मरे छोटे प्रपितामह मर गए। अनौपचारिक शिक्षा बंद हो गई। मेरी रुचि एवं पीड़ा को ध्यान में रखकर पितामह ने स्वयं पतंग खरीदा एवं मुझे पतंग उड़ाना सिखाया। पतंग उडाने में मुझे बहुत मन लगा।
बाद में मैं ने एक निबंध लिखा - पतंगबाजी: बच्चांे की चिदाकाश धारणा।
कायदे से पतंग उड़ाने से बच्चों की आँख की कई बीमारियाँ ठीक होती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत प्रयोग है। यह संस्मरण गांधी मार्ग में छप गया है।
संस्मरण - 3
कर्फ्यू-पास
बात 1982-83 की है। मैं का0 हि0 वि0 वि0 में शोध छात्र था। हम लोगों की एक मंडली थी। उसमें कई जूनियर-सीनियर छात्र थे।
बनारस शहर में उन दिनों प्रतिवर्ष हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते थे। दंगा होते ही कर्फ्यू लागू। हमलोग छात्रावास में रहते थे। बस परिसर तक हमारी गतिविधियां हों या जो घर जाना चाहें उन्हें सुरक्षित बस से स्टेशन भेजा जाता था।
शहर में दंगा था, जाड़े का समय, मैं लान में चटाई पर लेटा रेडियो के लिए नाटक लिख रहा था। स्कालरशिप 400 रुपये की थी, हास्य रूपक में मुझे 250 रुपये मिलते तो मंडली का खर्चा चलता। बी0ए0 का एक छात्र आया और ताना मारा कि शहर जल रहा है और भैया आप इतने निश्ंिचत होकर हास्य रूपक लिख रहे हैं, कहाँ गई आपकी संवेदनशीलता?
मैंने समझाया - भाई कर्फ्यू में क्या करें?
उसनेे कहा - यही सोचिए कि क्या करें?
तय यह हुआ कि परिस्थिति का अध्ययन कर कुछ रिलीफ सामग्री वि.वि. से जमा कर दंगा पीड़ितो में बाँटा जाय, कुछ बयान बाजी हो। फिर समस्या सामने आई कि बिना कफर््यू पास के जायें तो कैसे जाएँ।
मेरे मित्र श्री बैकुंठ पाण्डेय जी भी शोध छात्र थे। अंततः हम दोनों ने तय किया कि तत्कालीन जिलाधिकारी भूरे लाल (जो ईमानदारी एवं कड़ाई के लिए कुख्यात थे।) उनसे ही मिला जाय।
योजना यूं बनी कि एक बड़े सादे कागज पर हास्टल में उपलब्ध सभी प्रकार की मुहरें लगाई जायं एवं फर्जी दस्तख्त कर दिए जायँ। हमलोगों ने वैसा ही किया और गली-दरगली घूमते पत्रकार बने श्री भूरे लाल तक पहुँच गए। कर्फ्यू में घूमने का अनुभव विवित्र था। पुलिस वाले कुत्तों को खदेड़ रहे थे। एक सिपाही तो पोल पर ही लाठियाँ बरसा रहा था। बैत की लाठी झाडू की तरह आगे के शिरे पर हो गई थी।
किसी तरह जब हमलोग जिलाधिकारी के पास पहुँचे तो श्रीमान् भूरेलाल स्तब्ध। हमने अपनी मंशा/योजना बताई। वे हँसे, बोले आप लोगों ने कानून का मजाक बना रखा है, तब तक नगर पुलिस उपाधीक्षक श्री द्विवेदी आ गए वे और चकित। उन्होंने पूछा ये लोग क्या चाहते हैं? कर्फ्यू पास? जिलाधिकारी पुनः हँसे - भाई हमारा कर्फ्यू पास तो आधे पोस्टकार्ड आकार का है आप लोग अपनी कोट पर जिना बड़ा र्क्फ्यू पास चिपकाए हैं उतना बड़ा तो छापा ही नहीं।
इस पास पर जब आप भूरे लाल के सामने खड़े हैं और मैं आपको जेल नहीं भेज रहा हूँ तो समझिये कि आप लोगों के लायक हमारे पास कर्फ्यू पास हमारे पास नहीं है। जरा बचकर लौटिएगा और जाने के पहले गली-मुहल्लों का समाचार भी बताते जाइए।
बाद में हमने दंगा निरोधक तंत्र एवं शास्त्र भी विकसित किया एवं सन् 1985 तक दंगा रोकने में पूरी सफलता पाई। गया में भी मेरा सामाजिक जीवन इसी कार्य से प्रारंभ हुआ।
मैं ने भी ब्लाग की दुनिया में पैर रखा है। 30 साल की घुमक्कड़ी विविध सामाजिक प्रयोग एवं दुर्लभ व्यक्तियों के संपर्क के साथ मेरी मूर्खता ने मुझे रंगीन दुनिया के कई रंगों से परिचित कराया। उन पर मैं ने संस्मरण लिखा।
इस ब्लॉग में मेरे संस्मरण हैं। ये बहुरंगी दुनिया के कुछ रोचक और कुछ रहस्यमय परतों में आपको ले जायेंगे। मेरी इस दुनिया में अनेक प्रकार के लोग हैं - गृहस्थ, संन्यासी, घुमक्कड़, साधु, बौद्ध भिक्षु, अपराधी, इतिहासकार, पुरातत्त्वविद, वैज्ञानिक, कवि, लेखक, पुलिस पदाधिकारी, राजनेता, वेश्याएं, जुआरी, सामाजिक कार्यकर्ता, तांत्रिक, औघड़, पंडे, पुरोहित, वैद्य, कलाकार, पूर्व नक्सली, पत्रकार, उद्योगपति, स्वतंत्रता सेनानी, चरवाहे, नाविक, अति स्वाभिमानी और पूर्ण निर्लज्ज, मेरे मित्र एवं घर-परिवार के लोगतथ्यपरक एवं ज्ञानवर्धक सामग्री के लिये मेरा अन्य ब्लॉग है - दूसरा पहलू ।
इस ब्लाग की सारी सामग्री एक साथ पाकर मेरे मित्र एवं पाठक घबराने लगे और कुछेक को इतना अच्छा लगा कि वे इसे पढ़ने के लिये पता नहीं कब समय निकालेंगे। इसलिये मैं ने सोचा है कि किश्तवार कभी रोचक, कभी ज्ञानवर्द्धक एवं कभी आपकी जडता और एक रसता को तोड़ने वाली सामग्री पेश करूंगा।
फिलहाल अपने कुछ संस्मरणों की सूची दे रहा हूॅँ , जो अगले अंकों में आयेंगे--
बहुरंग: रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण
1 नींद का चमत्कार
2 समाधिस्थ बालक का सच
3 कर्फ्यू-पास
4 मौन में व्याख्यान
5 मेरी काम भावना का विकास
6 काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
7 मेरी भैरव साधना
8 मौके की मदद
9 भुइयाँ एवं संथाल का तिरगुन फाँस
10 गोआम
11 प्रेत भोजन
12 गन्ने की खेती का रस
13 मेरे बाबा
14 मुत्यु की शिक्षा और साक्षात्कार
इसके बाद के संस्मरणों की सूची टाइपिस्ट महाशय के यहां से सामग्री आने के बाद मिलेगी
बहुरंग : रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण
संस्मरण- 1
नींद का चमत्कार
सन् 81-82 की बात है। मैं उस समय का0 हि0 वि0 वि0, वाराणसी, में शोध छात्र था। मेरा गाँव, बिहार के भोजपुर जिले में पड़ता है, जहाँ के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध योद्धा बाबू वीर कुँवर सिंह रहे हैं। उनके गाँव जगदीशपुर में आज उनके किले के खंडहर के एक भाग को जो तुलनात्मक रूप से ठीक है, बिहार सरकार ने संग्रहालय घोषित कर रखा है। उनकी शेष संपत्तियों की ब्रिटिश काल में ही नीलामी हो चुकी है।
मुझे अपने अध्ययन के दौरान जैसे ही पता चला कि कुँवर सिंह की स्मृति में बने संग्रहालय पर उसी जिले के कुख्यात अपराधियांे का कब्जा है मैं निदेशक पुरातत्व से मिला तो उन्होने भी पुष्टि की और बात-बात में यह चुनौती सामने आई कि क्या इन अपराधियों से कोई संवाद भी हो सकता है? दरअसल ये इतने कुख्यात थे कि इनकी दृष्टि में सिगरेट का एक कश और एक हत्या में कोई फर्क नहीं था और ये सभी संपन्न घरों के बिगडै़ल जवान/प्रौढ़ थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच और मेरी 21-22 की थी।
संवाद की सबसे बड़ी बाधा उनके द्वारा देखते ही संदेह होने पर गोली चला देने की थी। मैं ने उस समूह के एक सरगना (आज स्व0) माल बाबू के एक शिक्षक से भेंटकर एक पत्र प्राप्त किया कि मुझे उनकी मदद की जरूरत है।
एक गर्मी की शाम 6.00 बजे मैं उनकी महफिल में पहुँचा। पहुँचते ही अपना परिचय देकर शिक्षक का नाम बताया और कहा कि जो भी व्यक्ति माल बाबू हों पत्र प्राप्त कर लें।
करीब 40-50 लोग बंदूक-रायफल वगैरह से लैस थे। मुझे एक चौकी पर (तख्त) बैठने को कहा गया। शाम की ठंढी हवा एवं थकान के कारण मुझे कब नींद आई, पता नहीं चला। नींद भी ऐसी कि रात मंे जगाने की सामान्य कोशिश के बाद भी नहीं खुली।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं भीतर से घबराया हुआ था और अपने आप को कोश रहा था और माल बाबू विस्मित, थके मुझे निहार रहे थे। मेरी उम्र के कारण झेंप रहे थे नहीं तो साष्टंाग दंडवत की मुद्रा में उन्होने कहा - बाबा (पाठक, ब्राह्मण होने के कारण) आप एकदम असाधारण चमत्कारी मनुष्य हैं, मैं यह भी समझ गया हूँ कि आप कोई छोटी-मोटी बात कहने नहीं आए होंगे फिर भी आपके बिना कहे भी यह मैं वादा करता हूँ कि आप जो भी कहेंगे उसका अक्षरशः पालन होगा, केवल वह बात सम्मान के विरूद्ध नहीं होनीं चाहिए।
मैं ने अपनी नींद को कोसा, माफी माँगी कि आपको मेरी रक्षा में रात भर जगना पड़ा। माल बाबू ने कहा - जिसके भय से पूरा इलाका थर्राता है। जनता-प्रशासन ठीक से सो नहीं पाती उस दल के बीच ऐसी नींद तो किसी असाधारण आदमी को ही आ समती है, आप महान हैं, मैं आपको गुरू बनाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं स्वयं सहमा और ग्लानि ग्रस्त था। मैं स्वये जानता हूं कि मैं सनक में न रहूं तो कितना बड़ा डरपोक हूं।
मैं ने उस संग्रहालय भवन को खाली करने का प्रस्ताव रखा। माल बाबू हँसे, बोले, एकदम ठीक, मैंने ठीक समझा था। मैं फिर फेरे में पड़ा, मालबाबू फिर हँसे, बोले बाबा आज के पहले माल बाबू से कोई यह बात कह नहीं सका। आप नहीं जानते कि अब तक गोली आपको छेद चुकी होती और आप यह नहीं समझ रहे कि कितनी बड़ी बात आपने मुझसे कही और माँगी है। माल बाबू अड्डा छोड़ दें, कारोबार छोड़ दें, रुतबा छोड़ दंे सचमुच मेरी लिए भी बड़ी बात है फिर भी वादा सो वादा।
इसका सम्मान जनक राश्ता यह निकाला गया कि माल बाबू स्वयं संग्रहालय की मरम्मत कर सभा आयोजन कर विदा होंगे।
बड़े सम्मान से मुझे बस में बिठाया गया। मैं जब पुरातत्व निदेशक के पास पहुँचा तो ेपहले तो वे चकित हुए फिर जातिवादी पेंच फंसाया कि कुंवर सिंह तो ठाकुर/राजपूत थे। आप को इस पचड़े से क्या लेना वगैरह-वगैरह। मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
माल बाबू तो मान गए लेकिन जातिवादी रंग मे रंगे निदेशक श्री सीताराम जी को कुँवर सिंह, खटकते रहे क्योंकि वे उनकी जाति के नहीं थे।
एक दिन आरा (जिला मुख्यालाय) की कचहरी पर मालबाबू गिरोह के सभी सदस्य मिल गए। मुझे बचते देख माल बाबू ने बुलाया सबसे परिचय कराया मुझे गुरु बताया। मेरी भारी दुर्गति, डर कि घर तक खर खबर जायेगी कि मैं गुडांे की टीम में हूँ। खैर, मैंने हार मानी, निदेशक वाली बात बताई। माल बाबू की आँखो में मेरी विवशता पर आँसू आ गए। कुछ वर्षों बाद पला चला कि माल बाबू की भी हत्या हो गई।
संस्मरण-2
समाधिस्थ बालक का सचबचपन में मेरे पास खिलौने एवं खेलने वाले दोनों की कमी थी। संयुक्त परिवार में चौथी पीढ़ी का पहला एवं दुर्लभतुल्य बालक था।
मुझे पढ़ाने के लिए विद्वानों की बैठक बुलाकर शिक्षा पद्धति तय की गई। तय यह हुआ कि इस बच्चे को (क) बच्चों की संगति से दूर रखा जायेगा (ख) विद्यालय नहीं भेजा जायेगा (ग) स्वतंत्र पाठ्यक्रम बनाकर घर पर पढ़ाया जायेगा (घ) परदादा जी की निगरानी में पढ़ाई होगी (ड़) 12-14 साल तक शास्त्रार्थ सभा में विजेता बनाया जाएगा।
मेरा गाँव सुदूर देहात में है। मेरे दो प्रपितामह थे। छोटे वाले सांख्य, वेदांत, व्याकरण साहित्य में 4 विषयों में तीर्थ अर्थात स्नातकोत्तर उपाधिधारी थे।
7 वर्ष तक में मुझे गीता एवं अमरकोश, एक कांड कंठस्थ हो गया। मैं स्वयं खिलौना हो गया। घर रिश्तेदारी के बच्चे मुझे भोंपू कहते थे, ननिहाल में बहुत मजाक उड़ता था। जैसे ग्रामोफोन ; उस जमाने में वही थाद्ध की कुंडली, घुमाकर रिकार्ड/तवा बजता वैसे ही मेरे काम में आदेश मिलते ही बुजुर्गों के सामने गीता पाठ करना एवं मिठाई फल वगैरह खाना पड़ता था। वस्तुतः मैं बहुद उदास और दुखी रहता था।खेलने पर मनाही थी और बेवजह खूब पिटाई भी होती थी। इसके साथ बुजुर्गों की अपसी बहस भी समानांतर चलती रहती कि बच्चे को पीटने से लाभ है या हानि। इस पर मैं भीतर ही भीतर सुलगता रहता क्योंकि कुछ कर तो सकता था नहीं।
एक बार मेरे बड़े प्रपितामह को काशीवास के लिए बनारस लाया गया। अस्सी घाट पर नहाकर गीता सुनाने की मेरी ड्यूटी लगी। मैं भी स्नान कर पालथी मारकर ”धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे“ से शुरू हो गया। पाठ चालू, सामने मिठाई, फल, हो सकता है कुछ भक्तों ने कुछ सिक्के भी रखे होंगे, किसी ने मना किया होगा कि हमें दान नहीं लेना। मैं तो रोज के गीता पाठ से ऊबा गंगा की धारा में खड़ी बड़ी नौका, और उसपार पतंग उड़ाते बच्चे को देख रहा था। बच्चे और पतंग में इतन निमग्न था कि मुझे न तो आस-पास का दृश्य दिखाई दे रहा था, न ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, मैं एकटक बस पंतग देख रहा था। स्नानार्थी भक्त आते-जाते रहे, टोक-टाक का भी असर नहीं हुआ तो लोगों ने घेर लिया कि कोई दिव्य, चमत्कारी बालक आया हैं। खुली आँख से समाधि लगाता है। मेरे पितामह ताड़ गए वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होेंने झकझोर कर सचेत किया। मैं फल-मिठाई लेकर डेरे पर लौटा।
बडे़ प्रपितामह तो नहीं मरे छोटे प्रपितामह मर गए। अनौपचारिक शिक्षा बंद हो गई। मेरी रुचि एवं पीड़ा को ध्यान में रखकर पितामह ने स्वयं पतंग खरीदा एवं मुझे पतंग उड़ाना सिखाया। पतंग उडाने में मुझे बहुत मन लगा।
बाद में मैं ने एक निबंध लिखा - पतंगबाजी: बच्चांे की चिदाकाश धारणा।
कायदे से पतंग उड़ाने से बच्चों की आँख की कई बीमारियाँ ठीक होती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत प्रयोग है। यह संस्मरण गांधी मार्ग में छप गया है।
संस्मरण - 3
कर्फ्यू-पास
बात 1982-83 की है। मैं का0 हि0 वि0 वि0 में शोध छात्र था। हम लोगों की एक मंडली थी। उसमें कई जूनियर-सीनियर छात्र थे।
बनारस शहर में उन दिनों प्रतिवर्ष हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते थे। दंगा होते ही कर्फ्यू लागू। हमलोग छात्रावास में रहते थे। बस परिसर तक हमारी गतिविधियां हों या जो घर जाना चाहें उन्हें सुरक्षित बस से स्टेशन भेजा जाता था।
शहर में दंगा था, जाड़े का समय, मैं लान में चटाई पर लेटा रेडियो के लिए नाटक लिख रहा था। स्कालरशिप 400 रुपये की थी, हास्य रूपक में मुझे 250 रुपये मिलते तो मंडली का खर्चा चलता। बी0ए0 का एक छात्र आया और ताना मारा कि शहर जल रहा है और भैया आप इतने निश्ंिचत होकर हास्य रूपक लिख रहे हैं, कहाँ गई आपकी संवेदनशीलता?
मैंने समझाया - भाई कर्फ्यू में क्या करें?
उसनेे कहा - यही सोचिए कि क्या करें?
तय यह हुआ कि परिस्थिति का अध्ययन कर कुछ रिलीफ सामग्री वि.वि. से जमा कर दंगा पीड़ितो में बाँटा जाय, कुछ बयान बाजी हो। फिर समस्या सामने आई कि बिना कफर््यू पास के जायें तो कैसे जाएँ।
मेरे मित्र श्री बैकुंठ पाण्डेय जी भी शोध छात्र थे। अंततः हम दोनों ने तय किया कि तत्कालीन जिलाधिकारी भूरे लाल (जो ईमानदारी एवं कड़ाई के लिए कुख्यात थे।) उनसे ही मिला जाय।
योजना यूं बनी कि एक बड़े सादे कागज पर हास्टल में उपलब्ध सभी प्रकार की मुहरें लगाई जायं एवं फर्जी दस्तख्त कर दिए जायँ। हमलोगों ने वैसा ही किया और गली-दरगली घूमते पत्रकार बने श्री भूरे लाल तक पहुँच गए। कर्फ्यू में घूमने का अनुभव विवित्र था। पुलिस वाले कुत्तों को खदेड़ रहे थे। एक सिपाही तो पोल पर ही लाठियाँ बरसा रहा था। बैत की लाठी झाडू की तरह आगे के शिरे पर हो गई थी।
किसी तरह जब हमलोग जिलाधिकारी के पास पहुँचे तो श्रीमान् भूरेलाल स्तब्ध। हमने अपनी मंशा/योजना बताई। वे हँसे, बोले आप लोगों ने कानून का मजाक बना रखा है, तब तक नगर पुलिस उपाधीक्षक श्री द्विवेदी आ गए वे और चकित। उन्होंने पूछा ये लोग क्या चाहते हैं? कर्फ्यू पास? जिलाधिकारी पुनः हँसे - भाई हमारा कर्फ्यू पास तो आधे पोस्टकार्ड आकार का है आप लोग अपनी कोट पर जिना बड़ा र्क्फ्यू पास चिपकाए हैं उतना बड़ा तो छापा ही नहीं।
इस पास पर जब आप भूरे लाल के सामने खड़े हैं और मैं आपको जेल नहीं भेज रहा हूँ तो समझिये कि आप लोगों के लायक हमारे पास कर्फ्यू पास हमारे पास नहीं है। जरा बचकर लौटिएगा और जाने के पहले गली-मुहल्लों का समाचार भी बताते जाइए।
बाद में हमने दंगा निरोधक तंत्र एवं शास्त्र भी विकसित किया एवं सन् 1985 तक दंगा रोकने में पूरी सफलता पाई। गया में भी मेरा सामाजिक जीवन इसी कार्य से प्रारंभ हुआ।
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