शनिवार, 10 सितंबर 2016

भाषा बोध 1

वागर्थ 4
भाषा बोध -
अन्विताभिधान वाद और अभिहितान्वय वाद
प्रश्न यह है कि यह जो मुंह से निकलने वाली बैखरी वाणी है, जो निकलते ही बिखर जाती है, उससे शब्द अर्थ के बीच के संबंध का बोध किस तरह होता है?
लोगों ने इस पर ध्यान दिया तो पहली बात यह समझ में आई कि गाय शब्द और उस चौपाया पशु के बीच का जो सबंध है कि यह गाय है, ऐसे संबंधों की समझ धीरे-धीरे बचपन से शुरू हो कर बढ़ती है। इस संबंध को भारतीय लोगों ने एक तकनीकी नाम दिया ‘अन्वय’। जब तक संबंध नहीं समझ में आए तब तक यदि कोई दूसरा व्यक्ति किसी भी भाषा के शब्द का उच्चारण करे, उसे समझ पाना नामुमकिन है। इस पर लगभग सहमति रही कि हां, यह तो जरूरी है।
इसके बाद प्रश्न यह उठा कि शब्द अर्थ के बीच के संबंध को बचनप में समझा कैसे जाता है? उसमें भी प्रश्न उठा कि बच्चा/बच्ची पहले शब्द एवं उसके अर्थ के बीच के संबंध को समझते हैं या सीधे वाक्य एवं उसके अर्थ को? यह मामला आज बहुत लंबे समय से आज तक विवादास्पद बना हुआ है। ऐसा नहीं है कि आप यदि चाहें तो गौर फरमा कर इसे समझ नहीं सकते लेकिल न लोग प्रयास करते हैं न सत्तावादी लोग इस समझ को विकसित होने देते हैं कि यदि सामान्य मनुष्य अपने सामान्य ज्ञान से एवं तर्क से ऐसे रहस्यमय लगने वाले प्रश्नों का हल खोजने लगे तो वह मानव सभ्यता कही जाने वाली व्यवस्था के लिए मुसीबत हो जायेगा।
दर्शन, राजनीति, धर्म, शिक्षा पद्धति, योग साधना जैसे विषयों की प्रयोग शाला किश्म के एक उत्पाती परिवार तथा क्षेत्र में मैं बदकिश्मती से पैदा हो गया। उसमें भी दुर्योग से मैं एक प्रयोग के पात्र के रूप में चुन लिया गया। दर्द यह कि किस प्रयोग का क्या परिणाम आ रहा है, जो मुझ पर हो रहा है, यह मुझसे कोई पूछता ही नहीं था। उलटे मनोनुकूल परिणाम न आने पर प्रयोग कर्ता मेरी ही पिटाई करने लगते। इसलिए मैं जानता हूं कि सच में होता क्या है, भले ही शिक्षाशास्त्रियों को बात समझ में न आई हो। मुझे तब सबसे अधिक मजा आता था जब सिखाने वाले आपस में लड़ जाते और मेरी शिक्षा बंद कर दी जाती। मेरी किताबें, कापियां स्लेट वगैरह वे ही फाड़ देते या फेंक देते। यी अपने आप में एक रोचक लेकिन मेरे लिए दर्दनाक मामला रहा है।
जो लोग चलनवादी और व्यवस्थावादी हैं उनका वर्णमाला, व्याकरण, शब्दकोश, सही उच्चारण आदि के प्रति अनुराग होता है। बच्चा चाहे जैसे सीखता हो ये अपने इन साधनों के गौरव को कम होने नहीं देना चाहते। ये सिखाते भी उसी तरह हैं और उसे ही न केवल सही वरन सत्य मनवाने के लिए हर जोर आजमाइश को उचित मानते हैं, मारपीट तक को। हमारे शिक्षण संस्थान तथा तथा शिक्षक लगभग इन्हीं की गिरफ्त में हैं। इनकी मान्यता है कि पहले वर्णमाला, फिर शब्द, फिर व्याकरण सहित वाक्य के माध्यम से शब्द और अर्थ के बीच के संबंध का बोध होता है।
ये मूर्ख पंडित निरक्षरों के भाषा बोध की क्या व्याख्या करेंगे?
आज इतना ही चर्चा जारी रहेगी

बुधवार, 7 सितंबर 2016

वर्णमाला एवं शब्दार्थ

वर्णमाला एवं शब्दार्थ संबंध
भारत देश अन्य देशों से इस मामले में भिन्न है कि यहां जितना ध्यान शब्दों पर दिया गया, उससे कई गुना अधिक ध्यान वर्णों के स्वरूप और उनकी विशेषताओं पर दिया गया। बहुत थोड़े अंतर से भारतीय भाषाओं की वर्णमाला लगभग एक है। मैं यहां उर्दू को नहीं गिन रहा। वर्णमाला का विशेष महत्व बीज मंत्रों की संरचना या धारिणी मंत्रों में होती है। उस परिप्रेक्ष्य में वैदिक, बौद्ध, जैन सभी एक हैं। वर्ण अर्थहीन नहीं होते। वे स्वयं नाम एवं अर्थ देानो हैं।
कुछ शब्द सुनने में एक वर्ण लगते हैं लेकिन वे पूरे शब्द होते हैं, जैसे- ‘क’, जिसका अर्थ होता है- जल, ‘ख’- जिसका अर्थ होता है- आकाश, वगैरह लेकिन सभी वर्णों के इसी तरह अर्थ भी हों यह जरूरी नहीं है। एक या एक से अधिक वर्णों के योग से शब्द बनते हैं, ये किसी अर्थ, मतलब वस्तु, क्रिया या भाव के नाम होते हैं। इन नामों को सुनने या सुनाने में एक अर्थ बोध होता हैै। उस प्रक्रिया को जोड़ कर भाषा बन जाती है।
इस संदर्भ में लोगों ने जानने की कोशिश की कि आखिर शब्द और अर्थ के बीच का संबंध हमारे दिलोदिमाग में बैठता कैसे है? कैसे कैसे शब्द से ले कर वाक्य तक की जटिलता को हमारा मस्तिष्क समझता और याद रखता है। इस मुद्दे पर शिक्षा शास्त्री, भाषाविद और शिक्षा शास्त्री दो खेमें में बहुत पहले से बंटे हुए हैं। जब से खड़ी बोली हिंदी का निर्माण हुआ, तबसे यह विवाद इधर भी आ गया। हमारे जमाने में ही प्राथमिक हिन्दी पुस्तक में यह विवाद आ गया था। मनोहर पोथी, गीताप्रेस की किताबें वर्ण माला, फिर शब्द तब वाक्य सिखाने के पक्ष में रहीं। इनके विपरीत ‘लिखो-पढ़ो’ शृंखला की सरकारी पुस्तकें सीधे वाक्य सिखाने वाली थीं। इस मामले में यह जानना रोचक होगा कि इस बहस का पुराना शास्त्रीय नाम क्या है और इनके तर्क क्या हैं? वैसे उस जमाने के हिंन्दी शिक्षक इसे नूतन खोज या आविष्कार की ही तरह पेश करते थे और पुराने शिक्षकों को हिकारत से देखते थे और पुराने शिक्षक अपने ज्ञान को परंपरागत तथा अनुभव सिद्ध बताते थे और नये वालों को कुतर्की सरकारी गुलाम बताते थे।
परंपरागत शास्त्रों में इस बहस को अन्विताभिधानवाद और अभिहितान्वय वाद के नाम से जाना जाता है। यह मजेदार चर्चा अगली पोस्ट में जिसमें बकरी, गाय, एक बच्चा और कुछ अन्य लोग मुख्य किरदार का रोल निभाएंगे।

रविवार, 4 सितंबर 2016

वागर्थ 2 --- शब्द, नाद, वाक्


शब्द, नाद, वाक्
ये तीनो नाम चलते हैं। शब्द और अर्थ तो सभी जानते हैं, नाद प्रायः ध्वनि के लिए प्रयुक्त होता है। नाद किसी भी प्रकार की ध्वनि को कहा जा सकता है। वाक् लगभग मानव की ध्वनि के लिए रूढ़ जैसा हो गया है।
इन तीनों को मिला कर शब्द के चार स्तर माने गए हैं। बैखरी- जो मुंह से बाहर निकलती है, जिसके आधार पर शब्द और अर्थ के बीच संबंध बनते हैं। मध्यमा- लगभग भुनभुनाने जैसी मानवीय आवाज, जो दूसरे को ठीक से सुनाई न पड़े। परा- मन के भीतर की आवाज, जो दूसरे को सुनाई न पड़े। पश्यंती- प्राकृतिक, सूक्ष्मतम ध्वनि, जिसे ध्यान भूमि में तटस्थ भाव से देखा/अनुभव किया जाए।
इस संार में ज्यादा उलझनें और चालाकियां बैखरी और परा के साथ है। विशेषज्ञ बैखरी स्तर के नाद का भी उचित-अनुचित अनेक प्रयोग करते हैं। यह काम केवल भारत में ही नहीं होता, लगभग सभी जगहों पर होता है।
सुविधा के लिए पहले बैखरी की कार्यप्रणाली और उससे संबंधित सामाजिक खेल को समझने का प्रयास करेंगे।
अगले पोस्ट में -
वर्णमाला एवं शब्दार्थ संबंध

शनिवार, 3 सितंबर 2016

बहुरंग: वागर्थ

बहुरंग: वागर्थ

वागर्थ

वागर्थ 1
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे, पार्वती-परमेश्वरौ।।
वाक्-वाणी एवं उसका अर्थ मिलकर हुए वागर्थ। ये आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े रहते हैं। ऐसे वागर्थ की तरह जुड़े हुए, संसार के माता-पिता पार्वती एवं परमेश्वर की मैं वंदना करता हूं, वाक्-वाणी एवं उसके अर्थ की ठीक समझ के लिए।
मैं बचपन से महा कवि कालिदास एवं गोस्वामी तुलसीदास जी की, रामचरित मानस वाली  मंगलाचरण वंदना दुहरा रहा हूं।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
 वाक्-वाणी एवं उसके अर्थ की ठीक समझ के प्रयास में मैं भी लगा हुआ हूं। कुछ समझा भी बाकी का शेष है। जब कालिदास/तुलसीदास जी जैसे लोग लगे हुए रहे तो मुझे देर लग रही है तो इसमें बहुत घबराने की बात नहीं है। बात ही बहुत तगड़ी है- पहले तो वाक् एवं उसके अर्थ के स्वरूप को समझना, फिर वाक् एवं उसके अर्थ के बीच जुड़ाव को समझना, फिर इस संसार में इनकी व्यापक भूमिका को पहचानना होगा तब जा कर कहा सकूंगा कि हां, अब मैं ने भी ठीक से समझ लिया है।
आप चाहे तुलसीदास जी को मानें न मानें, आस्तिक हों या नास्तिक, वैदिक हों या बौद्ध या अन्य मतावलंबी वाक् एवं उसके अर्थ की व्यूह रचना से बच नहीं सकते। हमारे जीवन में परस्पर संबंधों का बहुत बड़ा भाग इसी सरल या जटिल व्यूह रचना पर आधारित है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और हम कई बार पता नहीं सच या झूठ गौरवान्वित महसूस कराए जाते हैं कि भाषा हमें अन्य जीवों से विशिष्ट बनाती है। मैं ने सोचा कि कोई व्यक्ति यदि मुझे अन्य जीवों-योनियों में घूमने की विद्या सिखा दे तभी कह सकूंगा कि मनुष्य की अभिव्यक्ति एवं अन्य जीवों की अभिव्यक्ति में क्या अंतर है क्योंकि अभिव्यक्ति और संवाद तो अन्य जीवों में भी हो ही रहा है।
खैर, फिलहाल अन्य जीवों की बात छोडि़ए जरा मनुष्य के भीतर ही वाक् एवं उसके अर्थ की स्थिति को जानने-समझने का प्रयास किया जाए। यह एैसा विषय है कि आप नहीं कह सकते कि आप इसे परिचित नहीं है या इसकी आपको कोई जरूरत नहीं है। उलटे आप भी रोजमर्रे में इसकी समस्या से जूझते-जुझाते, कुंढते-हंसते या अपनी चालाकी पर मंद-मंद मुस्कराते हुए अथवा अट्टाहास करते हुए जीते हैं। फिर भी यह वागथ्र हमारे कब्जे में आता ही नहीं है, यह हमारी बेचैनियों में से एक है। हममें से जो जितने पढ़े लिखे औब बातों का व्यवसाय करने वाले या बातों के माध्यम से जीवन चलाने वाले होते हैं, उन्हें यह समस्या बहुत सताती है। धर्म, राजनीति, बाजार, सत्ता के विभिन्न केन्द्र और उनके प्रतिद्वंद्वियों तथा प्रतिस्पधिंयों के बीच रातदिन वाक्-युद्ध चलता रहता है। भारत के लोगों ने इसे अपने ढंग से समझने का प्रयास किया, बहुत विस्तार और गहराई में जा कर।
मैं अपने पश्चिम प्रेमी वामपंथी और दक्षिण पंथी दोनो प्रकार के मित्रों से उनके इस प्रचार के विरुद्ध जाने के लिए क्षमा भी नहीं मांग सकता कि भारत में तो कोई ज्ञान-चिंतन कभी था ही नहीं, न आज की समस्याओं की व्याख्या करने की उसमें क्षमता है, फिर भला समाधान कैसे मिलेगा? सच यह है कि आपने तो यह शब्कि पाखंड ही इसलिए किया ताकि हमारी विशाल ज्ञान राशि और वांग्मय में आपके मौलिक होने का दावा ही न डूब जाए। कई अन्य कारण भी हैं, फिलहाल हम रुकेंगे केवल वाक् एवं उसके अर्थ तक।
इसके लिए भारतीय चिंतन-ज्ञान परंपरा में एक यायावरी करते हैं और देखते हैं कि कहां क्या मिल जाता है और किसके काम का, उसमें से क्या निकलता है? आप साथ देंगे तो मेरी यात्रा का एकांत मुझे कम सतायेगा। वैसे मैं यह तो कह नहीं सकता कि यह पूर्णतः स्वांतः सुखाय है लेकिन उसके मूल में वह जरूर है क्योंकि इस यात्रा का निपर्णय तो मैं ने स्वयं लिया है।
मेरी यह यात्रा कथा नाना पुराण-निगम-आगम से सम्मत ही रहेगी। मैं इस लायक ही नहीं कि कोई नई बात कह सकूं। मुझमें कोई नयापन है ही क्या? न आप लोगों से पूर्णतः भिन्न ऐसी कोई मौलिकता है जो कुछ नया कहने की औकात दे सके। इसीलिए मुझे अपने पर भरोसा है कि इस कथा में कुछ न कुछ आपके लिए भी अपना कहने-समझने के लायक जरूर मिलेगा।
यह शृंखला मेरे ब्लाग बहुरंग और फेसबुक पर दोनो जगह उपलब्ध रहेगी। जो लोग पूरे या किसी छूटे हुए अंश को पढ़ना देखना चाहें, वे मेरे ब्लाग बहुरंग के लेवेल वागर्थ को क्लिक कर एक साथ सारे पोस्ट देख सकेगे।