वागर्थ 4
भाषा बोध -
अन्विताभिधान वाद और अभिहितान्वय वाद
प्रश्न यह है कि यह जो मुंह से निकलने वाली बैखरी वाणी है, जो निकलते ही बिखर जाती है, उससे शब्द अर्थ के बीच के संबंध का बोध किस तरह होता है?
लोगों ने इस पर ध्यान दिया तो पहली बात यह समझ में आई कि गाय शब्द और उस चौपाया पशु के बीच का जो सबंध है कि यह गाय है, ऐसे संबंधों की समझ धीरे-धीरे बचपन से शुरू हो कर बढ़ती है। इस संबंध को भारतीय लोगों ने एक तकनीकी नाम दिया ‘अन्वय’। जब तक संबंध नहीं समझ में आए तब तक यदि कोई दूसरा व्यक्ति किसी भी भाषा के शब्द का उच्चारण करे, उसे समझ पाना नामुमकिन है। इस पर लगभग सहमति रही कि हां, यह तो जरूरी है।
इसके बाद प्रश्न यह उठा कि शब्द अर्थ के बीच के संबंध को बचनप में समझा कैसे जाता है? उसमें भी प्रश्न उठा कि बच्चा/बच्ची पहले शब्द एवं उसके अर्थ के बीच के संबंध को समझते हैं या सीधे वाक्य एवं उसके अर्थ को? यह मामला आज बहुत लंबे समय से आज तक विवादास्पद बना हुआ है। ऐसा नहीं है कि आप यदि चाहें तो गौर फरमा कर इसे समझ नहीं सकते लेकिल न लोग प्रयास करते हैं न सत्तावादी लोग इस समझ को विकसित होने देते हैं कि यदि सामान्य मनुष्य अपने सामान्य ज्ञान से एवं तर्क से ऐसे रहस्यमय लगने वाले प्रश्नों का हल खोजने लगे तो वह मानव सभ्यता कही जाने वाली व्यवस्था के लिए मुसीबत हो जायेगा।
दर्शन, राजनीति, धर्म, शिक्षा पद्धति, योग साधना जैसे विषयों की प्रयोग शाला किश्म के एक उत्पाती परिवार तथा क्षेत्र में मैं बदकिश्मती से पैदा हो गया। उसमें भी दुर्योग से मैं एक प्रयोग के पात्र के रूप में चुन लिया गया। दर्द यह कि किस प्रयोग का क्या परिणाम आ रहा है, जो मुझ पर हो रहा है, यह मुझसे कोई पूछता ही नहीं था। उलटे मनोनुकूल परिणाम न आने पर प्रयोग कर्ता मेरी ही पिटाई करने लगते। इसलिए मैं जानता हूं कि सच में होता क्या है, भले ही शिक्षाशास्त्रियों को बात समझ में न आई हो। मुझे तब सबसे अधिक मजा आता था जब सिखाने वाले आपस में लड़ जाते और मेरी शिक्षा बंद कर दी जाती। मेरी किताबें, कापियां स्लेट वगैरह वे ही फाड़ देते या फेंक देते। यी अपने आप में एक रोचक लेकिन मेरे लिए दर्दनाक मामला रहा है।
जो लोग चलनवादी और व्यवस्थावादी हैं उनका वर्णमाला, व्याकरण, शब्दकोश, सही उच्चारण आदि के प्रति अनुराग होता है। बच्चा चाहे जैसे सीखता हो ये अपने इन साधनों के गौरव को कम होने नहीं देना चाहते। ये सिखाते भी उसी तरह हैं और उसे ही न केवल सही वरन सत्य मनवाने के लिए हर जोर आजमाइश को उचित मानते हैं, मारपीट तक को। हमारे शिक्षण संस्थान तथा तथा शिक्षक लगभग इन्हीं की गिरफ्त में हैं। इनकी मान्यता है कि पहले वर्णमाला, फिर शब्द, फिर व्याकरण सहित वाक्य के माध्यम से शब्द और अर्थ के बीच के संबंध का बोध होता है।
ये मूर्ख पंडित निरक्षरों के भाषा बोध की क्या व्याख्या करेंगे?
आज इतना ही चर्चा जारी रहेगी
भाषा बोध -
अन्विताभिधान वाद और अभिहितान्वय वाद
प्रश्न यह है कि यह जो मुंह से निकलने वाली बैखरी वाणी है, जो निकलते ही बिखर जाती है, उससे शब्द अर्थ के बीच के संबंध का बोध किस तरह होता है?
लोगों ने इस पर ध्यान दिया तो पहली बात यह समझ में आई कि गाय शब्द और उस चौपाया पशु के बीच का जो सबंध है कि यह गाय है, ऐसे संबंधों की समझ धीरे-धीरे बचपन से शुरू हो कर बढ़ती है। इस संबंध को भारतीय लोगों ने एक तकनीकी नाम दिया ‘अन्वय’। जब तक संबंध नहीं समझ में आए तब तक यदि कोई दूसरा व्यक्ति किसी भी भाषा के शब्द का उच्चारण करे, उसे समझ पाना नामुमकिन है। इस पर लगभग सहमति रही कि हां, यह तो जरूरी है।
इसके बाद प्रश्न यह उठा कि शब्द अर्थ के बीच के संबंध को बचनप में समझा कैसे जाता है? उसमें भी प्रश्न उठा कि बच्चा/बच्ची पहले शब्द एवं उसके अर्थ के बीच के संबंध को समझते हैं या सीधे वाक्य एवं उसके अर्थ को? यह मामला आज बहुत लंबे समय से आज तक विवादास्पद बना हुआ है। ऐसा नहीं है कि आप यदि चाहें तो गौर फरमा कर इसे समझ नहीं सकते लेकिल न लोग प्रयास करते हैं न सत्तावादी लोग इस समझ को विकसित होने देते हैं कि यदि सामान्य मनुष्य अपने सामान्य ज्ञान से एवं तर्क से ऐसे रहस्यमय लगने वाले प्रश्नों का हल खोजने लगे तो वह मानव सभ्यता कही जाने वाली व्यवस्था के लिए मुसीबत हो जायेगा।
दर्शन, राजनीति, धर्म, शिक्षा पद्धति, योग साधना जैसे विषयों की प्रयोग शाला किश्म के एक उत्पाती परिवार तथा क्षेत्र में मैं बदकिश्मती से पैदा हो गया। उसमें भी दुर्योग से मैं एक प्रयोग के पात्र के रूप में चुन लिया गया। दर्द यह कि किस प्रयोग का क्या परिणाम आ रहा है, जो मुझ पर हो रहा है, यह मुझसे कोई पूछता ही नहीं था। उलटे मनोनुकूल परिणाम न आने पर प्रयोग कर्ता मेरी ही पिटाई करने लगते। इसलिए मैं जानता हूं कि सच में होता क्या है, भले ही शिक्षाशास्त्रियों को बात समझ में न आई हो। मुझे तब सबसे अधिक मजा आता था जब सिखाने वाले आपस में लड़ जाते और मेरी शिक्षा बंद कर दी जाती। मेरी किताबें, कापियां स्लेट वगैरह वे ही फाड़ देते या फेंक देते। यी अपने आप में एक रोचक लेकिन मेरे लिए दर्दनाक मामला रहा है।
जो लोग चलनवादी और व्यवस्थावादी हैं उनका वर्णमाला, व्याकरण, शब्दकोश, सही उच्चारण आदि के प्रति अनुराग होता है। बच्चा चाहे जैसे सीखता हो ये अपने इन साधनों के गौरव को कम होने नहीं देना चाहते। ये सिखाते भी उसी तरह हैं और उसे ही न केवल सही वरन सत्य मनवाने के लिए हर जोर आजमाइश को उचित मानते हैं, मारपीट तक को। हमारे शिक्षण संस्थान तथा तथा शिक्षक लगभग इन्हीं की गिरफ्त में हैं। इनकी मान्यता है कि पहले वर्णमाला, फिर शब्द, फिर व्याकरण सहित वाक्य के माध्यम से शब्द और अर्थ के बीच के संबंध का बोध होता है।
ये मूर्ख पंडित निरक्षरों के भाषा बोध की क्या व्याख्या करेंगे?
आज इतना ही चर्चा जारी रहेगी