रविवार, 8 मार्च 2015

गो: वर्गीकरण और नामकरण का खेल


एक उदाहरण लेते हैं- गो का। गो एक उत्तम पशु इसलिये इसे दान, कर या मुनाफे में लिया जाय, न मिले तो लूट लिया जाय। ऐसा बहुत पहले शुरू हो गया। तब, गो की रक्षा श्रेष्ठ धर्म। उसके लिये जान लेने देने में भी हानि नहीं। तब? आदमी ने सोचा कितना अच्छा हो कि हमें भी गाय समझ लिया जाय और हमारी भी रक्षा हो। 
कुछ लोगों के सामने समस्या यह हुई कि हम तो गाय हैं, नहीं हम तो ठहरे आदमी। दूसरे चतुर गुट की समस्या यह कि वाह हम मनुष्यों की कोई पूछ ही नहीं और इस पूंछ वाली गाय का इतना धार्मिक महत्त्व? इसके लिये गो शब्द को बड़ा करना होगा। वह तो बड़ा होगा नहीं तो इसका अर्थ बढ़ाते हैं किसी तरह लेकिन अर्थ बढ़ाने का भी तो आधार होता है। तो आदमी को गाय के समान महत्त्व देने के समाधान के लिये सोचा जाय कि गो शब्द का गाय अर्थ बना कैसे ? 
गो शब्द गति अर्थ वाले गम् धातु से बना था। गो मतलब जिसमें गति हो, बस मिल गया अलादीन का चिराग। हां जी, हां, तो जो भी गतिशील हो वह गो। इस प्रकार केवल गाय ही नहीं पशु मात्र की रक्षा धर्म हो गया। तब बताइये, इस अर्थ में हम कमजोर गरीब आदमी क्या पशु से भी कम महत्त्वपूर्ण हैं? हम भी तो पशु ही हैं, तुलना करके देख लीजिये? लोगों ने सोचा आगे से हमारे देवता भी पशुपतिनाथ होंगे, नेपाल में और बर्तमान झारखंड में हैं भी। इस प्रकार गो शब्द का अर्थ बढ़ कर चलने फिरने वाले सारे पशुओं में फैल गया।
फिर अनेक प्रकार से तुलना की गई। सबसे ज्यादा क्या चलती है? जीभ, यह जीभ ही तो है जो खाने और बोलने के लिये लपलपाती रहती है। यही असली गो है, इसे पकड़ो, इसे नियंत्रित करना होगा या इसके नियंत्रण में जाना होगा? तब से दोनो प्रकार के प्रयास आज तक जारी हैं।
जारी ............

गुरुवार, 5 मार्च 2015

हाय कबीरा तू फंसा, अपने घर की फांस


मेरा कबीर पंथियों से बहुत पुराना लगाव है। इसलिये उन पर रोना आता है, खाश कर कबीर पर। कबीर पंथियों ने अनेक विलक्षण काम किये हैं लेकिन कबीर अपनी ही फांस बरबाद हुए क्योंकि संच्चाई की जगह चालाकी करने लगे।
संत और सिद्ध अपनी मौज में रहते हैं, ना काहू से दोश्ती ना काहू से बैर। बातें सीधी करते हैं, मानना हो मानो, न मानना हो, मत मानों। कबीर ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सरलीकरण की जगह वही जटिलीकरण चुना, जिसकी निंदा वे कर रहे थे, अपने विरोधियों से कई गुना जटिल। बाकी बची खुची पहचान को उनके अनुयायियों ने समाप्त कर दिया।
होली के समय कबीरा और जोगीरा गाया जाता है, उपहास के रूप में भी। वामपंथी हिंदी समालोचक इसके लिये भी हर समस्या के एक मात्र कारण की तरह इस समस्या का भी एक मात्र कारण तथाकथ्ज्ञित रूप से ब्राह्मणों को ठहरा देते हैं। अब जरा आप भी मिलाइये--
1 कबीर को सरल भाषा में बोलने में क्यों परेशानी हुई?
2 अपने ज्ञान को पूर्ववर्तियों से भी गूढ़ या दुरूह कहने की लालच क्यों हुई?
3 कैसी हिंदू मुस्लिम एकता? कोई मुसलमान मानता भी है क्या?
4 माने भी कैसे़? कबीर की तो मूर्तियां भी बनीं और उनके मंदिर भी बने तो पूजा तो           होगी ही।
5 पोथी विरोधी कबीर ने भी फिर मौखिक ही सही, ग्रंथों की रचना क्यों की?
6 पतन भी उसी तरह हुआ, कबीर पंथ एक संप्रदाय बन गया। गृहस्थ की जगह साधु         आये।
7 भारत जैसे अन्य संप्रदायों के मठ बने, वैसे ही कबीर पंथ के।
8 गजब की लंगई कि अभी भी कबीरपंथी पोथी और मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं।
9 बनारस केन्द्र बना तो बनारस का सबसे धनी स्वर्ण भंडार वाला मठ कबीर मठ               हुआ।
10 बाबा भोले नाथ के घर से सोने की पत्तर और दीवार में जड़े सिक्कों की चोरी हुई तो        कबीर जी के चबूतरे से सोने की ईंटों की।
11 और अंतिम बात कि जातिवर्चस्व भी तो आना ही था। इस संप्रदाय में कोईरी जाति के लोगों तक महंथी रिजर्ब हो गई तो कुछेक अक्ल के मारे सवर्णों ने बगावत कर एक नया ग्रुप बना लिया।
बेचारे कबीर की गालियां अब किस पर पड़ें? हाय कबीरा तू फंसा, अपने घर की फांस।

रविवार, 1 मार्च 2015

पता नहीं, वह कैसी है?

पता नहीं, वह कैसी है?
कल कई वर्षों बाद एक लड़की दिखी, जो कभी मेरी बेटी जैसी थी और आज 2 बच्चियों की मां है। उसके साथ उसका शौहर भी था और संभवतः उस शौहर की मां भी। वह लड़की मुझे अक्सर याद आती है क्योंकि मैं ने उसे प्यार दिया और उसकी गलतियों (जो मुझे लगीं) पर समझाया बुझाया भी। उसे दिल खोल कर पढ़ा रहा था कि एक काबिल पारंपरिक चिकित्सका लेकिन उसके मन में कुछ और ही चल रहा था। पता नहीं किस चीज की कमी उसे इतना सता रही थी कि उसने बगावत कर इस्लाम स्वीकार किया और शादी की।
समझाने के अतिरिक्त न मैं कुछ कर सकता था न किया लेकिन मुझे उसका मुसलमान बनना और बुर्के से ढंक जाना अच्छा नहीं लगा। आज के समय में ऐसा धर्मांतरण? न समझ में आया न ही अच्छा लगा। उसे पढ़ने, सीखने, घूमने-फिरने, सजने-संवरने, मित्रता करने, कला, कविता घर गृहस्थी हर काम की आजादी उसके परिवार से मिलती दिखती थी। न पर्दा, न बुरका? ब्राह्मण होने के नाते हिंदू धर्म संबंधी स्थिति भी उसकी अच्छी ही थी। स्वयं शिक्षित और खूबसूरत भी। फिर भी उसने एक असवर्ण, मुसलमान, बेरोजगार, धूर्त, कट्टर, सुन्नी मुसलमान से शादी की। परिवार ने उससे संबंध तोड़ लिया, शायद उसकी मंा छुपे-छुपे संबंध रखती हों लेकिन वह सबसे जुदा हो गई।
मुझे उसके बारे में सूचनाएं मिलती थीं लेकिन कल कार के गैराज में उसका पति भी परिवार सहित अचानक आ गया। उसने अभिवादन किया, मैं ने उत्तर दिया लेकिन न उस लड़की ने मुझसे मिलना या अभिवादन करना जरूरी समझा न मेरी हिम्मत हुई जबरन उसके पास जाने की क्योंकि अब तो वह एक पर्दानशीन कही जाने वाली औरत थी। पता नहीं, वह अपने ससुराल में कैसी जिंदगी बिता रही होगी? लड़का अभी भी बेरोजगार ही है या संदिग्ध किश्म का कारोबार कर रहा है, पहले की तरह। बस खैरियत इतनी कि वह बुर्के में नहीं थी।
सुविधा के लिये कह सकता हूं, जो सच नहीं भी हो सकता-- बेचारी ‘‘लभ जेहाद की मारी’’।