मेरा कबीर पंथियों से बहुत पुराना लगाव है। इसलिये उन पर रोना आता है, खाश कर कबीर पर। कबीर पंथियों ने अनेक विलक्षण काम किये हैं लेकिन कबीर अपनी ही फांस बरबाद हुए क्योंकि संच्चाई की जगह चालाकी करने लगे।
संत और सिद्ध अपनी मौज में रहते हैं, ना काहू से दोश्ती ना काहू से बैर। बातें सीधी करते हैं, मानना हो मानो, न मानना हो, मत मानों। कबीर ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सरलीकरण की जगह वही जटिलीकरण चुना, जिसकी निंदा वे कर रहे थे, अपने विरोधियों से कई गुना जटिल। बाकी बची खुची पहचान को उनके अनुयायियों ने समाप्त कर दिया।
होली के समय कबीरा और जोगीरा गाया जाता है, उपहास के रूप में भी। वामपंथी हिंदी समालोचक इसके लिये भी हर समस्या के एक मात्र कारण की तरह इस समस्या का भी एक मात्र कारण तथाकथ्ज्ञित रूप से ब्राह्मणों को ठहरा देते हैं। अब जरा आप भी मिलाइये--
1 कबीर को सरल भाषा में बोलने में क्यों परेशानी हुई?
2 अपने ज्ञान को पूर्ववर्तियों से भी गूढ़ या दुरूह कहने की लालच क्यों हुई?
3 कैसी हिंदू मुस्लिम एकता? कोई मुसलमान मानता भी है क्या?
4 माने भी कैसे़? कबीर की तो मूर्तियां भी बनीं और उनके मंदिर भी बने तो पूजा तो होगी ही।
5 पोथी विरोधी कबीर ने भी फिर मौखिक ही सही, ग्रंथों की रचना क्यों की?
6 पतन भी उसी तरह हुआ, कबीर पंथ एक संप्रदाय बन गया। गृहस्थ की जगह साधु आये।
7 भारत जैसे अन्य संप्रदायों के मठ बने, वैसे ही कबीर पंथ के।
8 गजब की लंगई कि अभी भी कबीरपंथी पोथी और मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं।
9 बनारस केन्द्र बना तो बनारस का सबसे धनी स्वर्ण भंडार वाला मठ कबीर मठ हुआ।
10 बाबा भोले नाथ के घर से सोने की पत्तर और दीवार में जड़े सिक्कों की चोरी हुई तो कबीर जी के चबूतरे से सोने की ईंटों की।
11 और अंतिम बात कि जातिवर्चस्व भी तो आना ही था। इस संप्रदाय में कोईरी जाति के लोगों तक महंथी रिजर्ब हो गई तो कुछेक अक्ल के मारे सवर्णों ने बगावत कर एक नया ग्रुप बना लिया।
बेचारे कबीर की गालियां अब किस पर पड़ें? हाय कबीरा तू फंसा, अपने घर की फांस।
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