सोमवार, 28 सितंबर 2015

मेरी राजनैतिक निष्ठा : किश्त दो


सत्ता मेरे ऊपर हावी रही, चारो तरफ से। सत्ता के कुछ अंश एवं प्रकार सहज रूप से मुझे भी उपलब्ध हुए, चलन के हिसाब से आधे-अघूरे ही सही। मेरे लिये वे पर्याप्त रहे। मूल पीड़ा तीनों प्रकार की सत्ता से प्रताड़ना की रही जो, आज भी जारी है।
मैं यह मान नहीं पाया कि दुखी रहना भी कोई आदर्श हो सकता है। कोई मुझे रुलाए और मैं उसे ही उचित और सहज मानूं, ऐसा आदर्शवादी न बन सका इसलिये सत्ता मेरे विरुद्ध भी जम कर रही। ऐसे में समानधर्मी, हमदर्द और मित्र खूब काम आए। फिर मैं ने  अत्याचारियों से लड़ने के भी खूब प्रयोग किये। आहत भी खूब हुआ। इस प्रकार राजनीति भी की ही। 
हां, दलगत चुनावी राजनीति की न ठीक से समझ बना पा सका, ना ही उसमें शामिल हो सका। समझते-समझते हर बार राजनीति ही बदल गई। अब न विचार है, न निष्ठा, न मतदाता की दृष्टि से दलों में कोई अंतर समझ में आता है। ऐसे में किया क्या जाए?क तंत्र कहने को भले ही हो, जातीय कुछ विचार आधारित ए कुछ धर्म आधारित समूह हैंए जिनके भीतर भसी कई समूह और गुट हैं। साथ ही कुछ सम्मोहक नारे जैसे विकास आदि हैं,  जिनका कोई अर्थ निश्चित कर पाना मुश्किल है। फिर भी अवसर मिलने पर मतदान तो करना है इसलिये सोचना पड़ता है, तो मैं ने भी सोचा वह अगली बार लिखूंगा।

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