क्या हर आदमी का नक्सली होना जरूरी है?
सुविधावादी ज्ञान संभी खतरनाक होता है सुविधापूर्ण ज्ञान। सच तो यह कि यह ज्ञान का केवल भ्रम है। ऐसा ही एक ज्ञान है नक्सल क्षेत्र संबंधी ज्ञान कि वहां हर आदमी नक्सली होता है या नक्सल समर्थक और ऐसे क्षेत्र में जाना तक नहीं चाहिए वरना नक्सली पकड़ लेंगे और हत्या कर देंगे।
मेरी अपनी मजबूरी भी है और सहजता भी कि मैं इन्हीं क्षेत्रों में घूमता रहता हूं। मेरा गांव, नौकरी का स्थान सामाजिक कार्यक्षेत्र सभी इन्हीं इलाकों में हैं। भोजपुर के सहार प्रखंड में गांव, अरवल के कुथा प्रखंड में नौकरी और पूरे मगध क्षेत्र में चाहे वह मैदानी हो या पहाड़ी, जहां तहां जल संरक्षण के सामाजिक प्रयोग।
इस प्रकार पूरे सघन नक्सली क्षेत्र में ही रहता जीता हूं। कुछ मित्र पूछते हैं- आपको नक्सली परेशान नहीं करते? सुदूर जंगलों में भी अकेले या सपत्नीक कैसे घूमते रहते हैं? वगैरह। कल हम दोनों गया जिले के अंतिम सीमावर्ती गांव गोपाल डेरा गये थे। लगभग निषिद्ध जैसे माने जानेवाले छकर बंधा पंचायत का गांव जहां कोई सरकारी पदाधिकारी अभी तक नहीं पहुंचा। आम आदमी तो पहुंचते ही हैं तो हम भी पहुंचे। एक तरफ से 70 की मी की हाइवे यात्रा अपनी पुरानी 1993 माडल मारुति नान एसी कार से, उसके बाद 15 की मीटर की ठोकरवाली ग्रामीण सड़क, उसके बाद 8 की मी. जगल-पठार की कच्ची सड़क और खेत वाला रास्ता फिर 5 की मी पैदल। पूरी दौपहरी पैदल या पत्थर पेड़ की छाया में सुस्ताते-चलते बीती। देर रात गया शहर वापस भी आ गये।
हम गये थे कुछ गांव के लोगों के द्वारा अपने बल पर पहाड़ी का पानी रोक कर सिंचाई सुविधा बनाने के प्रयास का समर्थन तथा सहयोग करने। न जान, न पहचान तो रास्ते से एक पंडित जी को ले लिये। उन्हें केवल अपनी ही नहीं कई जातियों के लोगों की रिश्तेदारी का पता था। गाना बजाने में रुचि रखने के कारण आसपास के गांवों में लोगों की रिश्तेदारियों की लंबी फेहरिस्त। एक व्यक्ति उस गांव के ही मिल गये सड़क किनारे उनके सहारे दुर्गम रास्ते को पहचानने में भी असुविधा नहीं हुई। भोक्ता जाति के लोगों के कई गांव। बातचीत हुई आगे के काम के बारे में सोचा भी गया। न मैं, न पंडित जी, न रास्ते मिले कलक्टर भोक्ता, न ही तमाम वे लोग जो इस यात्रा में प्रासंगिक रहे कोई भी हथियार बंद था न नक्सली, ना ही कोई खतरा हुआ।
हर जगह जाने मिलने के तरीके होते हैं। आप बेमतलब किसी के बेड रूम या पाखाने में घुसते हैं क्या? मललब यह कि हर जगह हर समय न खतरा ही है न हर आदमी नक्सली। मेरे एक परिचित हैं- ए. एच. खान वे डीम. एस.पी के मुंह पर और मंच से कहते हैं यहां कोई नक्सली नहीं है, असली नक्सली डीम. एस.पी हैं। मैं ऐसा नहीं कह सकता यह अलग प्रकार का अतिवाद है।
सुविधावादी ज्ञान संभी खतरनाक होता है सुविधापूर्ण ज्ञान। सच तो यह कि यह ज्ञान का केवल भ्रम है। ऐसा ही एक ज्ञान है नक्सल क्षेत्र संबंधी ज्ञान कि वहां हर आदमी नक्सली होता है या नक्सल समर्थक और ऐसे क्षेत्र में जाना तक नहीं चाहिए वरना नक्सली पकड़ लेंगे और हत्या कर देंगे।
मेरी अपनी मजबूरी भी है और सहजता भी कि मैं इन्हीं क्षेत्रों में घूमता रहता हूं। मेरा गांव, नौकरी का स्थान सामाजिक कार्यक्षेत्र सभी इन्हीं इलाकों में हैं। भोजपुर के सहार प्रखंड में गांव, अरवल के कुथा प्रखंड में नौकरी और पूरे मगध क्षेत्र में चाहे वह मैदानी हो या पहाड़ी, जहां तहां जल संरक्षण के सामाजिक प्रयोग।
इस प्रकार पूरे सघन नक्सली क्षेत्र में ही रहता जीता हूं। कुछ मित्र पूछते हैं- आपको नक्सली परेशान नहीं करते? सुदूर जंगलों में भी अकेले या सपत्नीक कैसे घूमते रहते हैं? वगैरह। कल हम दोनों गया जिले के अंतिम सीमावर्ती गांव गोपाल डेरा गये थे। लगभग निषिद्ध जैसे माने जानेवाले छकर बंधा पंचायत का गांव जहां कोई सरकारी पदाधिकारी अभी तक नहीं पहुंचा। आम आदमी तो पहुंचते ही हैं तो हम भी पहुंचे। एक तरफ से 70 की मी की हाइवे यात्रा अपनी पुरानी 1993 माडल मारुति नान एसी कार से, उसके बाद 15 की मीटर की ठोकरवाली ग्रामीण सड़क, उसके बाद 8 की मी. जगल-पठार की कच्ची सड़क और खेत वाला रास्ता फिर 5 की मी पैदल। पूरी दौपहरी पैदल या पत्थर पेड़ की छाया में सुस्ताते-चलते बीती। देर रात गया शहर वापस भी आ गये।
हम गये थे कुछ गांव के लोगों के द्वारा अपने बल पर पहाड़ी का पानी रोक कर सिंचाई सुविधा बनाने के प्रयास का समर्थन तथा सहयोग करने। न जान, न पहचान तो रास्ते से एक पंडित जी को ले लिये। उन्हें केवल अपनी ही नहीं कई जातियों के लोगों की रिश्तेदारी का पता था। गाना बजाने में रुचि रखने के कारण आसपास के गांवों में लोगों की रिश्तेदारियों की लंबी फेहरिस्त। एक व्यक्ति उस गांव के ही मिल गये सड़क किनारे उनके सहारे दुर्गम रास्ते को पहचानने में भी असुविधा नहीं हुई। भोक्ता जाति के लोगों के कई गांव। बातचीत हुई आगे के काम के बारे में सोचा भी गया। न मैं, न पंडित जी, न रास्ते मिले कलक्टर भोक्ता, न ही तमाम वे लोग जो इस यात्रा में प्रासंगिक रहे कोई भी हथियार बंद था न नक्सली, ना ही कोई खतरा हुआ।
हर जगह जाने मिलने के तरीके होते हैं। आप बेमतलब किसी के बेड रूम या पाखाने में घुसते हैं क्या? मललब यह कि हर जगह हर समय न खतरा ही है न हर आदमी नक्सली। मेरे एक परिचित हैं- ए. एच. खान वे डीम. एस.पी के मुंह पर और मंच से कहते हैं यहां कोई नक्सली नहीं है, असली नक्सली डीम. एस.पी हैं। मैं ऐसा नहीं कह सकता यह अलग प्रकार का अतिवाद है।
अच्छा लगा आप उन क्षेत्रों को कर्मस्थली बनाये हुए है जहाँ विकाश के पदचिन्ह तक परिलक्षित नहीं है।नक्सलियों की धमक का आलम इन क्षेत्रों में इंतना खतरनाक रहा है की कुछ बोलना मतलब फरमान का तुरंत अता हो जाना। फ़िलहाल आप जिन क्षेत्रों में आप घूम कर आये है उसके चप्पे चप्पे से वाकिफ़ हूँ और उन्ही नक्सलियों से कई बार आमना सामना हुआ है। खैर सरकारी पदाधिकारी में सिर्फ पूलिस ही जा पाती है वहां। चुनाव आयोग के के जे राव वहां वहां कई बार अपनी तफरी कर चुके है और अब तो वहां थाना भी खुल चूका है। कभी अघोषित नक्सलियों के राजधानी के रूप में ख्यात छकरबंधा का यह क्षेत्र अब बदल चूका है।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आप उन क्षेत्रों को कर्मस्थली बनाये हुए है जहाँ विकाश के पदचिन्ह तक परिलक्षित नहीं है।नक्सलियों की धमक का आलम इन क्षेत्रों में इंतना खतरनाक रहा है की कुछ बोलना मतलब फरमान का तुरंत अता हो जाना। फ़िलहाल आप जिन क्षेत्रों में आप घूम कर आये है उसके चप्पे चप्पे से वाकिफ़ हूँ और उन्ही नक्सलियों से कई बार आमना सामना हुआ है। खैर सरकारी पदाधिकारी में सिर्फ पूलिस ही जा पाती है वहां। चुनाव आयोग के के जे राव वहां वहां कई बार अपनी तफरी कर चुके है और अब तो वहां थाना भी खुल चूका है। कभी अघोषित नक्सलियों के राजधानी के रूप में ख्यात छकरबंधा का यह क्षेत्र अब बदल चूका है।
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