एक उदाहरण लेते हैं- गो का। गो एक उत्तम पशु इसलिये इसे दान, कर या मुनाफे में लिया जाय, न मिले तो लूट लिया जाय। ऐसा बहुत पहले शुरू हो गया। तब, गो की रक्षा श्रेष्ठ धर्म। उसके लिये जान लेने देने में भी हानि नहीं। तब? आदमी ने सोचा कितना अच्छा हो कि हमें भी गाय समझ लिया जाय और हमारी भी रक्षा हो।
कुछ लोगों के सामने समस्या यह हुई कि हम तो गाय हैं, नहीं हम तो ठहरे आदमी। दूसरे चतुर गुट की समस्या यह कि वाह हम मनुष्यों की कोई पूछ ही नहीं और इस पूंछ वाली गाय का इतना धार्मिक महत्त्व? इसके लिये गो शब्द को बड़ा करना होगा। वह तो बड़ा होगा नहीं तो इसका अर्थ बढ़ाते हैं किसी तरह लेकिन अर्थ बढ़ाने का भी तो आधार होता है। तो आदमी को गाय के समान महत्त्व देने के समाधान के लिये सोचा जाय कि गो शब्द का गाय अर्थ बना कैसे ?
गो शब्द गति अर्थ वाले गम् धातु से बना था। गो मतलब जिसमें गति हो, बस मिल गया अलादीन का चिराग। हां जी, हां, तो जो भी गतिशील हो वह गो। इस प्रकार केवल गाय ही नहीं पशु मात्र की रक्षा धर्म हो गया। तब बताइये, इस अर्थ में हम कमजोर गरीब आदमी क्या पशु से भी कम महत्त्वपूर्ण हैं? हम भी तो पशु ही हैं, तुलना करके देख लीजिये? लोगों ने सोचा आगे से हमारे देवता भी पशुपतिनाथ होंगे, नेपाल में और बर्तमान झारखंड में हैं भी। इस प्रकार गो शब्द का अर्थ बढ़ कर चलने फिरने वाले सारे पशुओं में फैल गया।
फिर अनेक प्रकार से तुलना की गई। सबसे ज्यादा क्या चलती है? जीभ, यह जीभ ही तो है जो खाने और बोलने के लिये लपलपाती रहती है। यही असली गो है, इसे पकड़ो, इसे नियंत्रित करना होगा या इसके नियंत्रण में जाना होगा? तब से दोनो प्रकार के प्रयास आज तक जारी हैं।
जारी ............