पहले के तीन पोस्ट में परिप्रेक्ष्य लिखा गया है। इस प्रकार बंगाल और मिथिला से अनेक विधवाओं का काशी और बृंदावन में आ कर रहना और शेष जीवन भिक्षा पर बिताने की मजबूरी खड़ी हो गई। कुछ गौड़ीय संप्रदाय में दीक्षित हैं लेकिन अधिकांश का किसी संप्रदाय से न संबंध है न ही किसी संप्रदाय के धर्माचार्य ने इनकी जिम्मेवारी ली है।
खादी का सहारा
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अगर भारत में सूत कातना सवर्ण समाज में पुण्य काय्र नहीं माना गया होता तो बंगाल और मिथिला की सवर्ण विधवाओं की पता नहीं क्या दुर्दशा होती? महीन खादी केवल बंगाल और मिथिला में ही बनती है। अब बंगाल से सूत कातना लगभग समाप्त है लेकिन खादी संस्थाओं के भीतर असवर्ण आंदोलन के द्वारा मिथिला की इन कत्तिनों को खादी से बाहर करने के अनेकों प्रयत्नों के बाद भी यह सिलसिला जारी है।
दक्षिण बिहार में कोइरी, कुर्मी जाति खाशकर कोइरी जाति ने आंदोलन चलाया कि किसी न किसी प्रकार से सवर्ण महिलाओं को खेत में उतारा जाय। इसे सामाजिक उपलब्धि का एक पैमाना बनाया गया। संपन्न सवर्णों की महिलायें तो खेत में मजदूरी करने से रहीं तो गरीब असहाय सवर्ण महिलाओं को खेत में उतारा जाय। संयोग से ऐसी सवर्ण विरोधी खादी संस्थाएं मुख्यतः दक्षिण बिहार में ही खुलीं, जहां की सवर्ण महिलाएं कत्तिन का काम ही नहीं करती थीं लेकिन दक्षिण बिहार में इनका केन्द्र होने और जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्राति की परिभाषा का अर्थ ‘असवर्ण वर्चस्व’ मानने वालों का दबदबा खादी संस्थाओं पर बना रहा। मिथिला की कत्तिनों ने खादी संस्थाओं के सवर्णविरोधी दुर्व्यवहार से तंग आ कर सूत को सीधा बाजार में बेंचना शुरू किया और जितनी खादी की दुकानें हैं, उनमें सरकार और खादी आयोग से प्रमाणित कम, निजी करोबार वाली ज्यादा हैं।
हाथ के महीन सूत वाली मिथिला या बंगाल की खादी धोती सबसे महंगी होती है। उसमें भी संस्थागत दुकानों में उसी धोती की कीमत कम से कम 40 प्रतिशत अधिक रहती है। ऐसी निजी दुकानें खादी के साथ हैंडलूम और पावरलूम के कपड़े भी बेंचती हैं अतः कपड़ा तो स्वयं समझना पहचानना होता है।
आज कल खादी के कपड़े के साथ पूजा में उपयोग हुतु रूई की बत्ती बनाने का काम भी इन महिलाओं द्वारा किया जाता है। हालात बहुत ही खराब है, बस खैरियत इतनी कि अपने गांव-घर में रहने का अवसर मिल जाता है और भीख नहीं मांगनी पड़ती।