शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

संवाद संकट


संवाद संकट

रवीन्द्र कुमार पाठक

भारतीय संस्कृति अपनी विविधता एवं विपुल सांस्कृतिक संपत्ति के लिए जानी जाती है। साहित्य एवं संगीत की विशाल सामग्री तो इसके पास है ही अध्यात्मविद्या जो वस्तुतः जीवनविद्या है उस क्षेत्र में भारतीय संस्कृति के पास अमूल्य, विशाल एवं व्यापक सामग्री है। यह विशालता ही कभी कभी समस्या बन जाती है।
शास्त्राण्यनेकाः स्मृतयोः विभिन्नाः, नैको मुनिर्यस्य मतं न भिन्नं।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पंथाः।।
इस उत्तर से आपको लग सकता है कि युधिष्ठिर जैसे वक्ता ने यक्ष को उत्तर दे दिया लेकिन यदि आप वस्तुतः धर्म के जिज्ञासु हैं तो आप अपने आप को प्रश्न के आरंभ में ही पाएंगेे। यह जो महाजन शब्द है, उसका अर्थ क्या है? महाजन, यानि श्रेष्ठ जन, तो जितने मुनि, ऋषि, शास्त्रकार हैं वे सब श्रेष्ठ लोग ही तो हैं। इन सबों को छोड़कर आखिर किन्हें श्रेष्ठ माना जायेगा। इस प्रकार धर्म के मामले में यक्ष का प्रश्न जहाँ का तहाँ आज भी खड़ा है। यह केवल शब्दों का खेल है चाहे मुनि कहें, महाजन कहें या ऋषि। महाजन भी अनेक हैं, विविध हैं। उनमें भी एक महाजन या महान व्यक्ति दूसरे महान व्यक्ति को प्रमाणिक नहीं मान रहा है।
तब क्या धर्म को जानने या शास्त्रों को समझने का कोई उपाय ही नहीं है। नहीं, उपाय है। यदि विविधता और उसकी जटिलता को समझने की कोशिश की जाय तो शास्त्रों की विविधता के बीच से भी धर्म के स्वरूप और तत्त्व को जानने के रास्ते निकलते हैं, ऐसी मेरी समझ है। मैं ने धर्म को समझने की यात्रा में अनेक अवरोध झेलें हैं, पीड़ाएँ सही हैं। अतः यहाँ मैं उनमें से कुछ को सोदाहरण आप के समक्ष निवेदित कर रहा हूँ। आप स्वयं विचार कर परीक्षा कर सकते हैं।
सामान्य लोगों ने कभी-कभी इन अवरोधों का खूब मजाक उड़ाया है और अपने मनमाना कामों में उसका इस्तेमाल भी किया है। अब यदि महाजन शब्द को ही लिया जाय तो लोगों ने महाजन शब्द का अर्थ बनिया निकाल लिया है - यानि जो संसार में अधिक से अधिक संपत्ति का अर्जन करे वही महाजन है। आज महाजन शब्द वैश्य, बनिया और व्यापारी के अर्थ में प्रयोग में लाया जाता है और समाज वस्तुतः ऐसे महाजनों का ही अनुकरण करता है कि जिस विधि से अधिक से अधिक दौलत कमाई की जा सके वही विधि, वही रास्ता श्रेष्ठ है। इस अर्थ का धर्मज्ञान से कोई लेना देना नहीं है।
अब आगे मैं वैसी प्रक्रियाओं की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ जो आए दिन लोगों को भ्रम एवं परेशानी में डालती हैं। 

1.जटिल टीका
हमारी परंपरा में कुछ मूल गं्रथ होते हैं और उनके ऊपर उनके बाद के आचार्य टीका लिखते हैं, जैसे - गीता एक धर्म का प्रख्यात गं्रथ है और उस पर अनेक लोगों ने टीकाएँ लिखी हैं। टीका लिखने का सिलसिला आज तक चल रहा है। यदि थोड़ा तटस्थ होकर देखें और गीता की दो चार टीकाओं को पढ़ने की कोशिश करें तो आप पायेगें कि कई जगह गीता की मूल सरल भाषा से टीका की भाषा ही अधिक जटिल है। गीता में साधना के जहाँ गूढ़ सूत्र हैं उनकी ऐसी व्याख्या की गई है कि मूल अर्थ से उसका तालमेल ही नहीं रह गया है। टीका का दुरूह हो जाना शास्त्र के जिज्ञासु के लिए उलझन बढ़ाने वाला हो जाता है। ऐसी प्रक्रियाओं को कहा जाता है ‘मघवा मूल विडौजा टीका’। मघवा इंद्र को कहते हैं। इंद्र शब्द से बहुत लोग परिचित हैं फिर इंद्र शब्द का पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ने की जरूरत क्या है? यदि कहीं पर मघवा के रूप में अगर इंद्र का कोई पर्यायवाची शब्द है तो उसकी जगह इंद्र कहना ही वस्तुतः उस अर्थ को सुलभ बनाना होगा लेकिन कुछ भारतीय विद्वानों की एक प्रवृत्ति है कि उसे और अधिक क्लिष्ट बना कर ऐसा कठिन लिखा जाय कि वह दूसरे को आसानी से समझ में ही नहीं आए। मघवा की जगह टीका में विडौजा लिखना ऐसा ही है। एक तो मघवा ही नहीं समझ में आ रहा था और उसके ऊपर से उसकी व्याख्या कर दी विडौजा, यह इस प्रवृत्ति का द्योतक है। ऐसी कई प्रवृत्तियाँ हैं जो शास्त्र को समझने में असुविधापूर्ण बनाती हैं।

2 अनेकार्थक प्रयोग निरर्थक बहस
ऐसी एक और प्रवृत्ति है कि हर व्यक्ति किसी प्रचलित शब्द का एक नया अर्थ दे देता है। अब ये जो सबसे आकर्षक धर्म, परमात्मा, ईश्वर, साधना आदि शब्द हैं इनके लोगों ने अपनी अपनी सुविधा के अनुसार अर्थ दे डालें हैं। यहाँँ लोगों से मेरा अभिप्राय विभिन्न शास्त्रकारों से है जिन्होंने अपनी सुविधा से इन प्रख्यात शब्दों के अर्थ दे डाले हैं। इनमें से धर्म और ईश्वर सबसे अधिक विविधितापूर्ण अर्थोंवाले शब्द हैं। इसी प्रकार अन्य शब्दों के भी अनेक अर्थ हो जातें हैं। दो आचार्य जब किसी शब्द का प्रयोग कर रहे होते हैं तो उस शब्द के दूसरे अर्थ को ग्रहण कर लेते हैं।
इस अनेकार्थक-संवादवाली प्रवृत्ति का एक विद्रूप उदाहरण शंकराचार्य एवं मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ है जिसकी झलक शंकरदिग्विजय नामक गं्रथ में मिलती है। मंडन मिश्र या शंकराचार्य दोनों में से कोई भी यदि किसी एक शब्द का किसी विशेष अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं तो दूसरे आचार्य उस शब्द का दूसरा अर्थ निकालकर उसका दूसरे ही अर्थ में प्रयोग करने लगते हैं। इस बकवास से न केवल मंडन मिश्र की पत्नी दुखी होती हैं अपितु मिथिला का पूरा शास्त्रप्रेमी समाज व्यथित हो जाता है। मिथिला से बंगाल तक एक नयी मान्यता विकसित होती है कि वास्तविक विद्वान एवं ज्ञानी वह है जिसके वक्तव्य का कोई एक ही निश्चित अर्थ हो न कि अनेक अर्थ हों और अनिश्चित स्वरूपावाले हों।
इस मान्यता की व्यापक स्वीकृति के बाद काव्य को छोड़कर व्याकरण, दर्शन आदि सभी गंभीर शास्त्र निश्चित प्रश्न एवं निश्चित अर्थवाले उत्तर की शैली में व्यवहार में आने लगते हैं। इसके लिए नव्यन्याय की पदावली का विकास किया जाता है। बौद्ध, जैन, वैदिक सभी इस शैली को स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद भ्रामक वक्तव्य देना ही असंभवतुल्य हो जाता है भले ही उसके बाद दर्शन, अध्यात्म आदि गणित की तरह बन जाते हैं। इस शैली की व्यापक सामाजिक स्वीकृति के बाद संप्रदायवादियों के सामने संकट खड़ा हो गया और तब झूठ बोलने के अतिरिक्त और कोई उपाय शेष नहीं रहा।
मैं एम.ए. के पाठ्यक्रम में सांख्यतत्त्वकौमुदी पर सांख्यकारिका टीका पढ़ रहा था। सांख्यकारिका पर वाचस्पति मिश्र ने कौमुदी टीका लिखी है। वाचस्पति मिश्र वेदांती थे। उन्हें सांख्य मत से जब विरोध था तो उन्हें सांख्यकारिका पर टीका लिखनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन वाचस्पति मिश्र जैसा विद्वान अपनी सांप्रदायिक संकीर्णता से अपने को ऊपर नहंी उठा सके और सांख्यकौमुदी टीका लिखते समय मूल कारिका से भिन्न ही अर्थ लिखा ताकि आगे चलकर सांख्य मत का वेदांतियों के द्वारा खंडन हो सके। यह शुद्ध कपट का मामला है। इससे जिज्ञासु का ज्ञानवर्धन नहीं हो सकता है।
वाचस्पति मिश्र वेदांत के अद्भुत विद्वान हैं, यह विख्यात है। फिर भी सांख्य मत की अपनी मान्यताएँ, समझ एवं अपनी साधना विधियाँ हैं। उन विधियों में यदि कोई दोष हो और उसका शोधन किसी दूसरे संप्रदाय के द्वारा किया जाए तब तो धर्मज्ञान का विस्तार हो सकता है लेकिन यदि झूठ ही बोलना है तो यह झूठ कभी न कभी तो पकड़ में आ ही जाती है।
अब तो यह सावधानी बरती जाए कि दूसरे संप्रदाय का आचार्य जब किसी अन्य संप्रदाय के गं्रथ पर टीका लिखेगा तो वह बेईमानी कर सकता है। मामला शास्त्र का या धर्म के प्रवचन और ज्ञान का नहीं है। मामला तो शुद्ध बेईमानी का है लेकिन इस बेईमानी में जिज्ञासु और छात्र संकट में फँस जाते हैं।
यह सवाल उठ सकता है कि क्या यह संकट केवल मेरे साथ आया। जी नहीं, जो भी छात्र ईमानदारी के साथ शास्त्र को पढ़ना चाहता है उसके सामने ऐसे संकट आते रहते हैं। तेरहवीं शताब्दी के बाद के विद्वानों में यह मान लिया गया कि मुझे जिस मत का खंडन करना है उसके मत में अपनी ओर से दोष लगा देना कोई बुरी बात नहीं है। अब आप तटस्थ होकर सोचिये कि क्या इससे भी कोई बुरी बात हो सकती है। किसी दूसरे वक्ता ने जो वक्तव्य दिया ही नहीं उसमें अपनी ओर से बात जोड़कर उसका खंडन करना एक अर्नगल कवायद के अतिरिक्त क्या हो सकता है। ऐसी प्रवृत्ति कभी भी धर्मचिंतन, शास्त्रचिंतन या ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति नहीं मानी जा सकती। यह तो शुद्ध वर्चस्ववाद, बेईमानी और कपट की प्रवृत्ति है।
3. वैचारिक संकीर्णता का विकास 
इन प्रवृत्तियों के अनिष्टकारी प्रभाव पर ध्यान न देने से लोगों का विचार संकीर्ण होता चला जाता है और वे धर्म, तत्त्व या शास्त्रों को ही दूषित कहने लगते हैं। अगर अलग से सांख्य के ग्रंथों को पढ़ लिया जाय, वेदांत को देखा जाय या अन्य दर्शनों के जो गं्रथ हैं अगर उनको उनकी परंपरा के विद्वानों की टीका के अनुरूप पढ़ा जाए तो ऐसी समस्याएं और ऐसे भ्रम पैदा नहीं हांेगे। मैं इन संकटों से गुजरा और काफी पीडि़त रहा हूँ। यह प्रवृत्ति व्यापक है। विरला ही कोई आचार्य है, जो इस दुष्प्रवृत्ति से बचा हुआ हो।
4.प्रतिपक्ष में झूठ
अनेकार्थक प्रयोगवाले एक पुराने संकट के खिलाफ तो बगावत हुई लेकिन कपटी विद्वानों ने झूठ बोलने को ही नैतिक घोषित कर लिया।
5.उलटबाँसी
इसके समानांतर सामान्य साधकसमाज में मंडन मिश्र और शंकराचार्य के समय वाली प्रवृत्ति बनी रह गयी। संस्कृत के विद्वानों ने तो उस प्रवृत्ति से अपने को बचा लिया और झूठ पकड़ना आसान हो गया है लेकिन पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और संतसाहित्य इस प्रवृत्ति से बच नहीं सका। यही हाल हिन्दी और अन्य भाषाओं का है। भ्रामक, गैर-जिम्मेवार वक्तव्य लिखना या अपनी मौज में रहकर जब जहाँ जो मन में आए वैसा बोल देना व्यापक रूप से साधक समाज में स्वीकृत रहा है।
इसका समाज में बहुत दुष्परिणाम है। वास्तविक ज्ञानी और एक पागल, अर्धविक्षिप्त वक्ता के अंतर को समझना सामान्य व्यक्ति के लिए असंभव सा हो गया है। एक संत्संगी जिज्ञासु की पीड़ा पर वक्ताओं ने कभी ध्यान नहीं दिया। उसकी घोर उपेक्षा हुई।
अपने को बहुत बड़ा क्रांतिकारी कहने और समझने वाले कबीर दास भी अपने को इस लोभ से मुक्त नहीं रख सके। हिन्दू और इस्लाम धर्म कीे रूढि़यों के खिलाफ बोलने वाले कबीर हृदय से उदार नहीं हो सके। धर्म और साधना की बातों को सीधे-साधे शब्दों मे कहने में उन्हें रुचि नहीं हुई। रामानंद जैसे गुरु को पा कर भी कबीर सरल नहीं हो सके। रामानंद के उपदेशों को समझना जितना आसान है, कबीर दास के उपदेशों को समझना उतना ही कठिन है। बरसे कमरा भींझे पानी, जैसी उलटवासियों का कबीर के वक्तव्यों में व्यापक समावेश है। यह प्रवृत्ति कबीर के पहले से थी। अपभं्रश का सिद्ध साहित्य ही नहीं बौद्ध एवं वैदिक तंत्रों में भी ऐसी संध्या भाषा का खूब प्रयोग हुआ फिर भी वहाँ बहुत हद तक ऐसे द्वयर्थक और अनेर्काथक प्रयोग मर्यादित हैं।
मैं सिद्धों को पूरी तरह गलत नहीं मान पता क्योंकि उन्होंने गोपनीयता का नियम मान रखा है। यही हाल तांत्रिकों का है। तांत्रिक जिस भाषा और पद का व्यवहार करते हैं उनका सामान्य अर्थ ग्राह्य नहीं होता। उसका वास्तविक अर्थ गुप्त होता है। ऐसी स्थिति में पाठक या श्रोता यह समझता है कि यह जो कहा जा रहा है इसका वास्तविक अर्थ कुछ और है और वह पाठक या श्रोता उसका वास्तविक अर्थ अलगसे पूछ भी सकता है। सुविधा के लिए तांत्रिकों ने ऐसे कोष भी  बना रखें हैं जिसमें उन शब्दों का वास्तविक अर्थ लिखा रहता है। जब कोई व्यक्ति उस परंपरा में दीक्षित हो जाता है तब वह कोष उसे पकड़ा दिया जाता है। बौद्ध तंत्र में इसे क्षोमा पटल कहते हैं जिसमें उन द्वयर्थक शब्दों का वास्तविक अर्थ लिखा हुआ रहता है। वैदिक तंत्र में इसे मंत्रोद्धार, यंत्रोद्धार तथा शापोद्धार आदि के रूप में जाना जा सकता है। श्रोता या पाठक अगर उस परंपरा का नहीं है तो सर पटक कर रह जाने पर भी वह वास्तविक अर्थ को नहीं जान सकता है।
लेकिन मेरी पीड़ा उन सामान्य विद्वानों और वक्ताओं से अधिक रही है जो अपने को गोपनीयता की धारा का नहीं कहते हैं। वे अपने शिष्यों या श्रोता समाज के बीच भी ऐसी चर्चा करने बैठ जाते हैं और भाषा उनकी उलटबांसी की होती है। शिष्य या श्रोता के पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं है।
वास्तविक ज्ञानी होने पर भी उनकी यह शैली संवाद में बहुत बड़ा अवरोध खड़ा करती है। जो उदार और वात्सल्यपूर्ण गुरु हैं वे तो रुक कर यह देख भी लेते हैं कि उनके शिष्य को जो कहा गया उसका अर्थ उसे समझ में आया या नहीं आया लेकिन उनकी नकल करने वाले संत्संग मंडलियों के प्रवचनकर्ता अपने आप को भी संकट में डालते हैं और दूसरे को भी।
इस प्रवृत्ति ने भारतीय संवाद के क्षेत्र में अनेक मनोरोग पैदा कर दिए हैं जिसका शिकार नाहक रूप से कोई प्रारंभिक जिज्ञासु हो जाता है। उस प्रारंभिक जिज्ञासु की सरलता ही उसके लिए संकट का कारण बन जाती है। चिंता पाले तो भी वह कुछ प्राप्त नहीं कर सकता है। इसे यदि पतंजलि के शब्दों में पारिभाषिक रूप में कहें तो यह विकल्प वृत्ति है। ‘शब्दाज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।’ ऐसा वक्तव्य जिसमें शब्द तो होता है लेकिन उसका कोई वास्तविक अर्थ नहीं होता है उसे सुनने में लोगों को बड़ा मजा आता है। उदाहरण के लिए जैसे किसी गदहे के सर पे सिंह नहीं दिखाई देता है लेकिन शब्द के रूपा में सुनने में ‘‘गदहे की सिंह’’ को सुनना अभिनव और बड़ा ही रोचक लगता है। संत्संग कथाओं में ऐसे वक्तव्य देनेवालों की आज प्रचुरता है क्योंकि श्रोता को कोई वास्तविक ज्ञान तो है नहीं। वह वक्ता के कथन के अनुसार समझने के लिए एक कल्पना करता है और कल्पना करते समय यह कैसे निर्णय किया जा सकता है कि गदहे के सर पर सिंह की कल्पना करें या न करें। वक्ता कह रहा है तो चलिए कल्पना करते है कि ऐसा कोई गदहा था जिसके सर पर सिंह था। इसे ‘वदतो व्याघात’ कहा गया है। इस प्रवृत्ति की काफी निंदा शास्त्रकारों ने की है कि यह तो बोलते समय ही झूठा है लेकिन आज धर्म, संस्कृति, संत्संग और प्रवचन के क्षेत्र में इस प्रवृत्ति का बहुत बोलबाला है।
इस प्रवृत्ति का सबसे दुष्परिणाम यह झेलना पड़ता है कि उटपटांग बात बोलना ही लोग अध्यात्म समझ लेते हैं। मेरे गाँव में झबीला शर्मा एक लोहार होते थे। मजदूरी उनको जो दे दी जाए लेकिन उनके इस मनोरोग का दंश लोगों को झेलना पड़ता था। सूरज, चाँद, गगन, अग्नि, ज्योति इधर उधर से सारे शब्दों को वो इस तरह से घुमाते-फिराते थे और अपने आप में मगन रहते थे कि मैं बहुत अच्छी अध्यात्म कथा कहता हूँ। कुछ देर तक उनकी अध्यात्म कथा तो हास्यरस पैदा करती थी लेकिन किसी भी वाक्य का अर्थ समझ में न आने के कारण बाद में सर दर्द के अतिरिक्त और कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था। आज भारतीय संस्कृति पर यह व्यापक संकट सर्वत्र दिखाई दे रहा है। 

6.लीलाकथा
लोगों ने इस अर्नगल वक्तव्य को और भी गौरवान्वित कर लिया है। कथा मंडली ने एक उपाय ढूँढ लिया है। उसका कहना है कि यह संसार लीलामय है। यह संसार वास्तविक तो है नहीं। भगवान ने अपनी मौज के लिए इस संसार की रचना की है। उनकी रचना भी लीला है इसीलिए मैं भगवान की लीला आपको सुनाता हूँ। भगवना की चाहे जैसी भी लीला हो यदि ये भक्तगण केवल उसकी लीला सुनाते तब तो समझ में आ ही जाती। समस्या तो तब खडी़ होती है जब इस लीला के बहाने भगवान का अंश होने के नाम पर लीलाप्रेमी अपनी लीला भी जोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए उन्हें यह कहने की छूट है कि - एक बार की बात है न्यूयार्क शहर में कृष्ण का अवतार हुआ। अब आप यह प्रश्न तो पूछ ही नहीं सकते हैं कि भगवान कृष्ण के समय में न्यूयार्क शहर तो था ही नहीं? क्योंकि यह तो भगवान की लीला है। न्यूयार्क शहर तो था ही नही तो मत रहा हो, मैं तो लीला सुना रहा हूँ। यह उदाहरण आपको अटपटा लग सकता है लेकिन लीला कथा में ऐसे उदाहरणों की भरमार है। इससे झगड़े होते हं,ै दंगे फसाद हो जाते हैं। आज अयोघ्या में गोली चलने की नौबत आ जाती है कि सीता राम की बहन थी या पत्नी थी। जिसकी इच्छा हो सीता को राम की पत्नी मान ले या जिसकी इच्छा हो सीता को राम की बहन मान ले। सब लीला ही तो है।
यह व्यवहार में संभव नहीं है। राम के समय में बहन के साथ विवाह करने की परपंरा इतिहास में नहीं थी। सीता मिथिला में जनक की पुत्री थीं। यह सब शरारत लीला के नाम पर होती है। आगे इसको और महिमामंडित कर लिया गया है ‘‘जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’’। अब हर आदमी को यह सुविधा है कि इस संसार को वह जिस रूप में वह चाहे देखे। देखने तक की बात हो तो कोई हर्ज नहीं है, वह अपनी मर्जी से देखे। लेकिन जब वह स्वयं देखा हुआ या अनुभव किया हुआ दूसरे को बताना चाहता है और दूसरा जानना चाहता है तब संकट खड़ा हो जाता है क्योंकि जो भी दृश्य या श्रव्य विषय है उसका अपना स्वरूप होता है। वह हमेशा केवल दर्शक की भावना के अनुरूप ही नहीं हुआ करता और यदि वह केवल दर्शक की भावना के अनुरूप ही हुआ करे तो वह दूसरे को अपना अनुभव या भाव कैसे संप्रेषित कर सकता है। वह तो केवल उसकी भावना के अनुरूप दूसरे व्यक्ति को ही संप्रेषित किया जा सकता है और इस शैली से तो कोई निष्कर्ष निकालना संभव ही नहंीं कि जो भी देखा गया उसका रूप क्या है?
राम कौन थे, उनका रूप क्या था केवल यही संकट का विषय नहीं है ऐसा मनमौजी व्यक्ति तो किसी लोटे को गदहा और गदहा को लोटा भी कह सकता है क्योंकि उसकी भावना वैसी है।
ऐसे वक्तव्यों और ऐसी शैली से संत्संग गोष्ठियों में थोड़ी देर का मनोरंजन भले हो जाय लेकिन हार्दिक संवाद नहीं हो सकता। हार्दिक संवाद में ज्ञान और अनुभव को एक दूसरे को संप्रेषित करने में ऐसी शैली से बहुत कठिनाई होती है। इस पीड़ा से गुजरते हुए मैं ने संत्संग मंडलियों में जाने का निर्णय ही  छोड़ दिया है। 81 के बाद मैं कभी संत्संग मंडलियों में नहीं जा सका क्योंकि अगर भगवान की ऐसी लीला ही देखनी हो तो संत्संग मंडली में जाने से अच्छा है कि आँख मूँदे और जैसी अपनी इच्छा हो वैसी अपनी कल्पना में लीन हो जाएं। मेरी दृष्टि में दारू पीने, नाच देखने या किसी स्वप्नलोक में डूबे रहने और ऐसी लीला का रस लेने में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। जैसे नशें मे कोई रूप और अनुभव का संयम नहीं होता है उसी तरह से ऐसी लीलाओं के श्रवण और वाचन में भी नहीं है। 
ये लीला वाले लोग भीतर से खोखले होते हैं। यदि आप उनके मन के विपरीत लीला को कहने लगें तब पता चल जाता है कि लीला कह रहे हैं कि लीला के नाम पर अपनी बात मनवाना चाहते हैं। ऐसे नहीं होता तो हिन्दू और मुसलमान, शैवों और वैष्णवों का इतना भयानक संघर्ष नहीं होता। इसमें दिक्कत क्या थी? शिव की लीला ऐसी, विष्णु की लीला ऐसी। लेकिन लीला के नाम पर मनमानी बात कहना और उसे दूसरे के ऊपर थोपना ये लीलावाचकों का अंदरूनी प्रपंच होता है। मुझे यह प्रपंच सर्वाधिक पीड़ादायक लगता है। आज की तारीख में धर्म की राजनीति यह लीला और विश्वास काफी उपद्रव मचाये हुए है। तथाकथित हिंदू समाज का विश्वास और भारतीय जनता पार्टी जो चाहे हिंदू समाज पर थोपना चाहता है। वस्तुतः उसे धर्मशास्त्र एवं हिन्दू परंपरा को जानने की न फुर्सत है न ही आवश्यकता। यह भी मेरी एक पीड़ा है।

7. अनुभव के स्तर का भेद
संवाद के क्षेत्र में इस तरह के कई संकट हैं। कुछ संकट वास्तविक हैं जिसका निराकरण गुरु और शिष्य दोनों मिलकर ही कर सकते हैं। इस स्तर पर गुरु या शिष्य कोई भी दोषी नहंी होता है और क्योंकि दोषी नहीं होता है किसी की नीयत खराब नहीं होती है अतः इस संकट का धीरे धीरे समाधान होता भी रहता है यह संकट अनुभव के स्तर का है। शिष्य का ज्ञान सीमित होता है। गुरु का ज्ञान शिष्य की तुलना में व्यापक, गहरा और विशाल होता हैं। दोनों के स्तर भिन्न होते हैं। गुरु अपने स्तर के अनुभव को शिष्य तक संप्रेषित करना चाहता है जो होना भी चाहिए लेकिन चँूकि शिष्य का सामर्थ्य कम है इसलिए वह ठीक ढंग से संप्रेषित नहीं कर पाता है। संप्रेषण की यह पीड़ा ही गुरु को विवश करती है कि वह शिष्य के समझने के सामर्थ्य को भी विकसित करे। सद्गुरु कष्ट उठाकर, भी कृपाकर वात्सल्यपूर्वक शिष्य को न केवल ज्ञान राशि हस्तांतरित करते हैं बल्कि साथ ही साथ उसके समझने के सामर्थ्य का भी विकास करते हैं। 
मैं ऐसे अनेक गुरुओं का ऋणी रहा हूँ। आज यह उनकी कृपा है कि मैं अपनी पीड़ा को भी समझ पा रहा हूँ। यदि दोनों प्रकार के शिक्षकों, गुरुओं एवं आचार्यों से मेरी भेंट नहीं होती तो मैं समझ ही नहीं सकता था कि हिन्दुस्तान में भले लोग भी हैं जो प्रेमपूर्वक शिष्य के सामर्थ्य को विकसित करते हुए उसे ज्ञान राशि अर्पित करते हैं। 
संवाद का यह संकट बिल्कुल स्वाभाविक और नैसर्गिक संकट है। ऐसे अवसरों पर गुरु के मन में यह भाव होता है कि चूकि मैं वक्ता हूँ इसलिए मेरे वक्तव्य का सही अर्थ ठीक ढंग से श्रोता के हृदय तक पहँुच जाय, यह मेरी जिम्मेवारी है। इस अच्छी भावना को संवाद के अन्य क्षेत्रों में  प्रतिष्ठा दी गई होती तो भारतीय संस्कृति की इतनी दुर्दशा नहीं होती। संवाद में वक्ता और श्रोता दो मुख्य घटक हैं अर्थबोध कराना और शिष्य में अर्थबोध का होना दोनों के लिए जरूरी है। तभी संवाद पूरा होता है ऐसे मंे सही शब्दों और वाक्यों के सही प्रयोग की जिम्मेवारी दोनो की है। सामान्य शिक्षित लोग प्रायः इस जिम्मेवारी से बचना चाहते हैं क्योंकि इसमें उन्हें संयमित होना पड़ता है। जो भले लोग हैं वे भी जाने अनजाने इस संयम का बोझ उठाना नहीं चाहते है। मुझे तो जो कहना था जो कह दिया आपके समझ में आए या न आए। यह भाव अगर लेषमात्र वक्ता के मन में रह जाए तो कभी संवाद पूरा नहीं हो सकता है। ठीक इसी तरह श्रोता की यह जिम्मेवारी है कि वक्ता ने जिस संदर्भ में जिस वक्तव्य का प्रयोग किया है उसका उसी संदर्भ मे। अर्थ निकाला जाए। 

8. सीमा और दायित्व का बोध 
सहृद्य, प्रेमपूर्ण संवाद एवं चिंतन में लोग इस बात का ख्याल रखते हैं और अर्थ स्पष्ट न होने पर प्रश्न प्रति प्रश्न के द्वारा संदर्भ और अर्थ को स्पष्ट कर लेते हैं। यह संवाद का सहज, सहृदय, सरल रूप है। अभी जिस सहृदयतापूर्ण संवाद की बात हुई है उस सवंाद में श्रोता की ओर से भी पर्याप्त ईमानदारी अपेक्षित है केवल वक्ता की ईमानदारी से ही संवाद पूरा नहीं हो सकता है। श्रोता शिष्य या जिस किसी भी भूमिका में हो उसे अपनी सीमा और दायित्व का बोध होना चाहिए। हो सकता है वह किसी वक्तव्य को इसीलिए नहीं समझ पा रहा हो क्योंकि वह वक्तव्य उसकी सीमा से बाहर के संदर्भ में हो। ऐसे समय में इस बात को सीधे-सीधे स्वीकार किया जा सकता है कि इस क्षेत्र का मुझे ज्ञान नहीं है इसीलिए मेरी सीमा से बाहर के होने के कारण यह बात मुझे समझ में नहीं आ रही है। 

9.‘तर्कों अप्रतिष्ठः’ 
धर्म-अध्यात्म के संदर्भ में प्रायः कहा जाता है ‘तर्कों अप्रतिष्ठः’ इसमे तर्क नहीं चलेगा, बस केवल मान लेना है। इससे संवाद में बहुत भारी संकट खड़ा होता है ऐसा बोलने वाले वक्ता या आचार्य सदैव बेईमान नहीं होते हैं। उनकी यह समस्या होती है कि वे अपनी बात समझा नहीं पाते हैं और श्रोता और शिष्य भी बेईमान नहीं होता है जब वह उनकी बात को समझ नही पाता है। तर्क नहीं चलेगा यह कहने से श्रोता का मन आहत होता है कि क्यों नहीं चलेगा? इसकी जगह जैसे ही कोई जानकार गुरु या वक्ता कहता है कि भाई यह प्रत्यक्ष का विषय है। प्रत्यक्ष के विषय में अनुमान प्रमाण कहाँ चलता है ? किसी भी ईमानदार श्रोता को यह बात समझ में आ जाती है कि प्रत्यक्ष के विषय को अनुमान से समझने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। जो प्रत्यक्ष का विषय है उसमें अनुमान क्यों किया जाय? 
समस्या वहाँ यह खड़ी होती है कि वक्ता या गुरु श्रोता को कल्पना करने के लिए कहता है और साथ ही यह भी कहता है कि इसमें तर्क नहीं करना है। ठीक है यदि कल्पना ही करनी है तो भी तर्क की कोई आवश्यकता नहीं है। 
गंभीर संकट तब होता है जब वह उस कल्पना को तर्क से सिद्ध करता है। वक्ता या गुरु शिष्य या श्रोता को कल्पना करने के लिए कह दे, स्वयं उस कल्पना को तर्क से सिद्ध भी करंे और श्रोता या शिष्य जब उसी विषय की तर्क से परीक्षा करना चाहे तो कहें कि तर्क नहीं चलेगा। यह मामला चाहे जैसा भी हो गुरु के पास समझाने के लिए शब्दों या बिंबों की कमी हो अथवा उसकी समझ ही साफ न हो, तर्क नही चलता है यह कहना निराधार है क्योंकि कुछ ही देर बाद किसी भी पहले से जो अज्ञात है उस क्षेत्र का ज्ञान हो जाने पर तो चर्चा करनी ही होगी। वक्ता-श्रोता एवं गुरु-शिष्य तब तो चर्चा करेगें ही और उस समय तो तर्क चलता ही है। 
वस्तु स्थिति यह है कि अपने अनुभव की सीमा के बाहर जाकर जब हस्तक्षेप होता है तब समस्या खड़ी होती है, चाहे वह वक्ता-श्रोता, गुरु-शिष्य में से किसी का पक्ष क्यों न हो। छः फुट का लंबा आदमी बौने पर क्यों नाराज होता है कि उसे क्यों दिखाई नहीं पड़ता है बल्कि उसे यह भी दिखाई पड़ना चाहिए कि बौने की ऊँचाई कम है। बौने को भी यह दिखाई देता ही है कि देखने वाले की ऊँचाई मुझसे अधिक है अतः उसे जो दिखाई देता है उसके क्षेत्र में तर्क करने की क्या आवश्यकता है?
10. विश्वास 
जहाँ तक बात रही विश्वास करने की तो विश्वास तो वक्ता की प्रामाणिकता के आधार पर ही होता है और वह मात्र विश्वास होता है, कोई अनुभव नहीं होता है। बौना केवल विश्वास कर सकता है कि लंबे आदमी को ऐसा दिखाई देता है। बौने के सामर्थ्य में यह नहीं है। वह तो किसी सहारे से उस ऊँचाई तक चढ़ जाए तभी संभव हो सकता है। बच्चे और बूढ़े के बीच यह पीढ़ी का संकट बरकरार रहता है लेकिन यदि दोनों इतनी सहज विनम्रता रखें तो ‘तर्क नहीं चलता है’ ऐसा अर्नगल कुतर्क और उसके विरोध की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी कि ईश्वर यदि तर्क से सिद्ध नहीं होता है तो ईश्वर नहीं है। 
बहुतेरी बातें साधारण जीवन में भी जब प्रत्यक्ष अनुभव के योग्य हैं तो ईश्वर का प्रत्यक्ष भी हो सकता है भले ही वह दुर्लभ क्यों न हो। अज्ञात स्थिति के आधार पर तर्क करना ठीक नहीं है। सामान्य जीवन के अनुभव के आधार पर अनुमान का नियम और तर्क के नियम गढ़ कर दूसरे क्षेत्र में जब लगाया जाता है तो यह तो सामान्य रूपा से ही तर्कशास्त्र के सिद्धांत के खिलाफ है न कि अध्यात्म और धर्मदर्शन में तर्क की कोई अप्रतिष्ठा है। मैं धर्म और दर्शन की चर्चाओं को जब सुनता हूँ, किताबें पढ़ता हूँ तो बहुत बार रो पड़ता हूँ। अनेक संतों, भक्तों के प्रयास के बावजूद भारत के बड़े व्यापक समुदाय ने कैसे बहुत प्रयास कर उलझनें गढ़ रखीं हैं और उन उलझनों में उलझकर स्वयं तो वह दुख भोगता ही है दुख भोगने के बाद दूसरे को भी जाने अनजाने फँसाते चला जाता है। संध्या भाषा, द्वयर्थक भाषा, कुतर्क ये सब इसी श्रेणी में आते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है -
‘अंधे अधा ठेलिया अंधा कूप पडंत।’
पंतजलि महाराज यह देखकर रोते होगें कि योग का विषय प्रमा वृत्ति के अंतर्गत कितना कम और विकल्प वृत्ति के अंतर्गत कितना चला गया है। प्रमाज्ञान प्रमाणिक वास्तविक ज्ञान हैं। अनुमान आदि भी प्रमाज्ञान के अंतर्गत आते हैं लेकिन आज की अध्यात्म और योग की कथा विकल्प वृत्ति के अंतर्गत ही ज्यादा होती है जिसमें शब्द तो होते हैं लेकिन उसका वास्तविक अर्थ नहीं होता है। वक्ता भी केवल शब्द दुहराता है। उसे उसका कोई अर्थ नहीं स्पष्ट रहता है कि मैं किस संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। ‘‘शब्दाज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः’’। विकल्प वृत्ति में शब्द ज्ञान तो होता है लेकिन वस्तु शून्य होता है। 
11. स्थूल ज्ञान के आधार पर सूक्ष्म का निषेध 
श्रोता एवं शिष्य के स्तर पर भी एक घोर बेईमानी होती है। जब किसी को किसी स्थूल स्तर का ही ज्ञान हो तो वह अपने स्थूल ज्ञान के आधार पर किसी  सूक्ष्म का निषेध कैसे कर सकता है? सूक्ष्म की संरचनाएँ स्थूल के स्वभाव से भिन्न होती हैंं। उदाहरण के लिए केवल इस आधार पर अदृश्य किरणों का खंडन नहीं किया जा सकता है कि न तो इनका दर्शन होता है न ये दिखाई पड़तीं हैं और न तो सुनाई पड़तीं है और न ही स्थूर्ल इंट, पत्थर आदि सामग्री की तरह इनको छुआ जा सकता है। इस सामान्य अनुभव के आधार पर इतनी बौद्धिक विनम्रता तो हो ही सकती है केवल स्थूल के आधार पर सूक्ष्म का निषेध नहीं किया जा सकता है। 

12.विशिष्ट शब्द एवं विशिष्टार्थ 
विशिष्ट शब्दों के अर्थ को समझने में भी श्रोता के समक्ष कई प्रकार की समस्याएं रहती हैं। ऐसे मामले मेरी दृष्टि में वक्ता एवं श्रोता दोनों को सावधान होना चाहिए। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि वक्ता किसी शब्द का किसी पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयोग कर रहा है किंतु श्रोता उसका सामान्य अर्थ ग्रहण कर उसकी बात को समझ नही।रहा है या उल्टे मजाक उड़ा रहा है। भारतीय दर्शन के क्षेत्र में ऐसा गडमड खूब करते हैं। सतसंगवाली चर्चा अर्थात् किसी का सर किसी की पूँछ।
सांख्य की कथा कहते कहते उसमें ब्रह्म घुँसेड़ लेते हैं और एक आत्मा, एक ईश्वर का तर्क देने लगते हैं जबकि सांख्य में कोई परमात्मा या ब्रह्म जैसा तत्त्व है ही नहीं। इसी प्रकार वेदांत की चर्चा करते-करते ईश्वर और ब्रह्म दोनों शब्दों का जब जहाँ जैसे मन में आता है प्रयोग कर डालते हैं। वेदांत का ईश्वर और न्याय के ईश्वर में बहुत फर्क है। जिन तर्कों के आधार पर या जिन अनुमानों अथवा साधनाविधियों से वेदांत की कल्पना के अनुरूप ईश्वर सिद्ध या असिद्ध होता है उनके आधार पर कोई भी पाठक या श्रोता न्याय में वर्णित ईश्वर के स्वरूप को नहीं समझ सकता हैं। वहाँ यही बातें विसंगत लगने लगती हैं। 
तंत्र की द्वयर्थक भाषा और ही खतरनाक है एक प्रसिद्ध श्लोक है -
पीत्वा पीत्वा, पुनः पीत्वा यावत पतति भूतले।
उथायच पुनः पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।। 
पी पी करके , पुनः पीकर जब तक जमीन पर गिर नहीं जाता है और  जब जमीन पर गिर जाता है तो उठकर कर पुनः पान करता है उसका पुनः जन्म नहीं होता है। यह एक सामान्य वक्तव्य है। इसका सामान्य सा अर्थ लिया जाए तो सारी साधना से बड़ी साधना दारू पीना ही है लेकिन इसके अध्यात्म परक अर्थ होता है ज्ञानामृत बार बार पीना चाहिए।

13.त्रैलोक्य नाथो हरिः
सांप्रदायिक वर्चस्व के लिए बातों को लाख गडमड कर दी जाएं यह अपने वर्चस्व की कथा तक सीमित हो जाती है एक बहुत प्रचलित श्लोक है -
‘‘यं शैवाः समुपाते शिव इति ब्रह्मेति वेदांतिनो
 बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवः कर्तेति नैयायिकाः।
अर्हन्नित्यथ जैन शासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
सोयं नः विदधातु वांच्छित फलं त्रैलोक्य नाथो हरिः।।
सारे संप्रदायों की चर्चा करने के बावजूद भी उसे परम तत्त्व के किसी व्यापक स्वरूप का चित्र नहीं रखकर वैष्णव मत के अनुकूल हरि शब्द को वहाँ पर प्रतिष्ठित कर दिया गया है। यह वैष्णव धारा का वर्चस्व तो सिद्ध कर सकता है लेकिन ऐसे वक्तव्यों से किसी जिज्ञासु या पाठक की समझ नहीं साफ हो सकती है और न तो कोई उसे अनुभव हो सकता है। यह तो वही बात हुई की सारी बातें मानता हूँ लेकिन हुकूमत मेरी ही चलेगी। खूँटा वहीं गड़ेगा। यह खूँटा गाड़ने की मानसिकता ज्ञानार्जन के क्षेत्र में बहुत पीड़ा देती है और थोड़ा संभला हुआ पाठक भी यह समझ जाता है कि ऐसा श्लोक वस्तुतः निरर्थक है। इसका कोई अर्थ नहीं है। इसका अर्थ मात्र इतना ही है कि हरि श्रेष्ठ है। ‘सर्व देव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति’, यह एक वक्तव्य है। अगर इसे वक्तव्य के रूप में ले तो यह एक भारी अनर्थकारी वक्तव्य है। वस्तुतः यह तो कहने का एक तरीका मात्र है। सर्वदेव नमस्कारं महादेवं प्रतिगच्छति भी हो सकता है। लेकिन जो सर्वदेव नमस्कारं गच्छति कहने वाले हैं उनके पास इतनी सरलता कहाँ है कि वह कह सकें कि महादेव और केशव के नाम मात्र का फर्क है। 

14.शतनाम, सहस्रनाम 
ऐसी समस्याओं का समाधान करने की भी कोशिश की गई है और लोगों को उलझाने की भी कम कोशिशें नहीं की गई हैं। शतनाम, सहस्रनाम इत्यादि को देखने से दो प्रवृत्तियाँ प्रगट होती हैं। एक तो उस नाम-धारी के विराट स्वरूप का कथन हो जाता है। यह समझ साफ करने वाली बात है लेकिन दूसरी ओर एक मूल देवता के अंगांगीभाव या गौण भाव या मूल भाव के अन्य देवताओं को स्थापित कर दिया जाता है। चलिये  कम से इससे इतना लाभ तो होता है कि केशव और विष्णु राम बलराम और ऐसे हजारों देव केशव और विष्णु के विरोधी नहीं है लेकिन हंसी तब आती है जब बारी-बारी से विभिन्न स्थानों के किसी एक नाम को प्रमुख और बाकी को गौण बताया जाता है। लोग इस प्रवृत्ति की संगति बनाते हैं कि यह सब तो भक्त की भावना के लिए है। 
मेरी दृष्टि में इस सूत्र को ठीक से समझने से ही संवाद का यह संकट दूर होता है। अतः प्रायः सफल गुरु अपने शिष्य को यह जरूर बता देते हैं कि यह नाम का अंतर है वास्तविक कोई अंतर नहीं है। जिसको जिस नाम से उसे प्रमुखता देना है दे ले लेकिन यही बात सामान्य अर्थ और पारिभाषिक शब्द या अर्थ के संदर्भ में लागू नहीं होती है। अतः किसी शब्द का यदि कहीं जैसी प्रकृति है प्रकृति यानि स्वभाव लेकिन सांख्य में वर्णित जो प्रकृति है एक पारिभाषिक शब्द है। उसके अर्थ को उसी शास्त्र के अनुरूप समझना चाहिए न कि किसी सामान्य अर्थ के आधार पर यदि सामान्य अर्थ के आधार पर समझने की कोशिश की जायेगी तो केवल उलझनें ही पैदा होगी कोई समाधान नहीं हो सकेगा।

15. उपाय-कौशल्य
एक ओर संवाद के इन संकटों पर चर्चा हो रही है तो दूसरी ओर गुरुजनों की कुछ पीड़ाएँ भी हैं। जो प्रायोगिक शिक्षण है उसका स्वभाव भी अद्भुत है। कई बार बच्चों को स्कूल भेजने के लिए टॉफी देना पड़ता है। बस्ते सिलवाने पड़ते हैं जिनका गणितय और भौतिकी के ज्ञान से कोई सीधा संबंध नहीं है लेकिन स्कूल जाने और स्कूल में भौतिकी या गणित की समझने की प्रक्रिया में वे सहायक होते हैं। यदि शिक्षक इस बात की सावधानी रखें, बच्चों के अविभावक ज्ञानार्जन के संवाद की प्रक्रिया में उसे सहायक कारक मानेे तो कोई समस्या नहीं होती हैं। समस्या तो तब खड़ी होती है जब कपडे और बस्ते को ही स्कूल के प्रबंधकों के द्वारा ज्ञानार्जन का अनिवार्य घटक बना दिया जाता है और अभिभावक बच्चें के पीठ के भारी बस्ते और कपडे़ से ही संतुष्ट हो लेते हैं कि बहुत अच्छी पढ़ाई हो रही है। 
यह संकट आज का नहीं है। साधना के क्षेत्र में इसे परोक्ष विधियोँ के रूप में कहा गया है। भगवान बुद्ध के ऊपर उनके अनुयायियों द्वारा आरोप लगाया गया कि आप झूठ बोलते हैं। पालि बौद्ध साहित्य का वर्णन सीधा सरल और सपाट है। यहाँ बातें सीधी-सीधी कही गई हैं। उसी तरह से पालि साहित्य में ध्यान की विधियों का निरूपण भी सीधे, सरल शब्दों में किया गया है। उसे कोई भी व्यक्ति पढकऱ तुलनात्मक रूप से आसानी से समझ सकता है। ठीक इसके विपरीत महायान बौद्ध साहित्य में वज्रयान और सिद्धपंथ का साहित्य तथा इन सबों में वर्णित विधियाँ काफी घुमावदार हैं। महायान की इस परोक्ष और घुमावदार विधियों के कारण भगवान बुद्ध पर आरोप भी लगाया गया है कि आप झूठ  बोलते हैं। इस आरोप का बड़े ही रोचक और मार्मिक ढंग से खंडन भगवान बुद्ध ने सद्धर्म पुण्डरीक नामक ग्रंथ में खंडन किया है। 
उन्होनें स्वीकार किया है कि हाँ मैं झूठ बोलता हूँ लेकिन अपने लोगों के लिए मुझे मजबूरी में झूठ बोलना पड़ता है या बातों को घुमावदार ढंग से कहना पड़ता है। मैं इस कला में प्रवीण हूँ और यह गलत नहीं है। सद्धर्म के उपायों में मैं कुशल हूँ। मैं विभिन्न लोगों के लिए अनेक प्रकार की विधियों को बताने में सक्षम हूँं। इसे उपाय-कौशल्य कहा गया है। 
एक उदाहरण से उन्होनें समझाने की कोशिश की है। कल्पना कीजिये की मैं एक राजा होऊँ। मेरे राजमहल में मेरे कई बच्चें हों, वे खेल रहें हों और मेरे महल के चारो तरफ आग लग जाए। मैं ऐसी हालात में अपने बच्चों से कहँँू कि चलो महल के बाहर मैं तुम्हें बकरी का, भेंड़ का, कौवे का, हंस का रथ दूँगा। उन्हें ऐसा कहकर मैं महल के बाहर ले आऊँ। महल के बाहर आने पर मेरे पास ऐसा कोई रथ नहीं हो तो भी मैं मिथ्याभाषी नहीं हूँ और मैं ने कोई गलत काम नहीं किया है। यह संसार कामाग्नि से, भेागाग्नि से जल रहा है और इससे बाहर निकालने के लिए विनेय जनों के समक्ष झूठ बोलना भी कोई अपराध नहीं है। इस प्रकार एक दृष्टि से परोक्ष विधियों  एवं उपाय कौशल्यों का अपना महत्त्व है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता है। सद्गुरु तो सदैव लोगों के कल्याण के लिए कोई न कोई उपाय करते ही रहते हैं। 
इसके साथ ही साथ धूर्तजन भी ऐसी अनेक कहानियाँ रच सकते हैं। यह तो किसी के सौभाग्य दुर्भाग्य का विषय है कि उसे किसी सद्गुरु से भेंट होती है या धूर्त से। इसका निष्कर्ष तो अंत में ही निकल सकता है। हाँ इतनी बात तय है कि प्रथम दृष्ट्या ऐसे वक्तव्यों का कोई साक्षात् वास्तविक अर्थ नहीं होता। उपाय कौशल्य का और विशेषकर परोक्ष विधियों में उपाय कौशल्य का महत्त्व निरंतर बढ़ता गया है। सिद्धों ने तो अनेक विधियाँ लिखीं। तंत्र शास्त्र में अनेक प्रकार की धारणाएँ विकसित की गईं। इन सभी धारणाओं का एकत्र सूत्रीकरण ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ में किया गया है। इसी प्रकार से कई अन्य संकलन भी तैयार किये गयें हैं। 

16 विविध नाम
एक दूसरे प्रकार की परिस्थिति भी देखने को मिलती है। अगर सावधानी रखी जाए तो संवाद में कोई संकट नहीं होगा। जैसे इड़ा पिंगला और सुषुम्ना ये तीनों बहुचर्चित नाडि़याँ हैं। इन्हं चन्द्र, सूर्य और अग्नि कहा जाता है। सुषुम्ना को ही अवधूती भी कहते हैं। ये आली काली और चांडाली नाम से भी ज्ञात हैं। यहाँँ केवल नाम का अंतर है। सुषुम्ना संबंधी योग को ‘वसंततिलक योग’ भी कहा गया है। यह केवल कहने मात्र की बात है। 
17. अर्थवाद और माहात्म्य
श्रोता और वक्ता के बीच एक और भ्रम की स्थ्तिि प्रायः आती रहती है- वह है अर्थवाद और माहात्म्य की। वेदों के अर्थवाद होते हैं। बहुत सारी ऐसी बातें वैदिक संहिता के साथ कहीं होती हैं जो केवल उसके गौरव को बढ़ातीं हैं। उनका कोई वास्तविक अर्थ नहीं माना जाता है। ठीक इसके विपरीत जब किसी का माहात्म्यय बताया जाता है तो वह वस्तुतः उस व्यक्ति या संदर्भ के साथ संगत होता है। जब माहात्म्य भी अर्थवाद की तरह बिना सोचे समझे बताया जाने लगे तो श्रोता के सामने समझने का संकट खड़ा हो जाता है और कभी कभी तो भारी भूलें हो जाती हैं क्योंकि माहात्म्य कथा सुनानेवाला व्यक्ति अपनी दृष्टि से माहात्म्य सुनाने लगाता है। अगर राम को आदर्श या अहिंसा की प्रतिमूर्ति माने और यह कहने लगे कि राम ने वस्तुतः कोई युद्ध ही नहीं किया तो राम का आध्यात्मिक स्वरूप तो व्यक्त हो सकता है। फिर भी ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसे राम की कल्पना करना संभव नहीं है। 
18.शब्द की सीमा /शाब्दबोध
श्रोता अपने संपूर्ण अनुभव को वक्ता तक पहुँचा ही दे ऐसा सदैव संभव नहीं है। शब्द की अपनी सीमा है। इस सीमा पर भारतीय मनीषियों ने गंभीर ढंग से विचार किया है और शब्द के सामर्थ्य को समझने की चेष्टा की है। शब्द और अर्थ के बीच जो संबध होता है उस संबंध को व्यक्ति कैसे ग्रहण करता है इस पर गंभीर चर्चा साहित्य एवं व्याकरण शास्त्र के गं्रथों में पाया जाता है। साहित्य ही नहीं मीमांसा, व्याकरण न्याय आदि के गं्रथों में भी शब्द एवं अर्थ के संबंध तथा उसके स्वरूप को ग्रहण करने की प्रक्रिया को बहुत गहराई से लिया जाता है। सुविधा के लिए साहित्य में इसे शाब्दबोध की प्रक्रिया कहतें हैं। शाब्दबोध की प्रक्रिया को संक्षेप में निम्न श्लोक में संकलित किया गया है। 
-शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च।
वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदंंित सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः।।
शब्द एवं अर्थ को प्रगट करने के और समझने के अनेक उपायों में वृद्ध के द्वारा या बड़े व्यक्ति के द्वारा व्यवहरित शब्द एवं अर्थ के संबंध को बालक समझता है। यह एक सर्वाधिक प्रचलित सामान्य प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया अंततः विभिन्न प्रकार के कोष देखने तक की प्रक्रिया तक बढ़ती जाती है। दरअसल अर्थबोध में होता यह है कि श्रोता विभिन्न पदार्थों के बीच समान गुण धर्मों को पहचानने की चेष्टा करता है और उनके अंतर के आधार पर अपने भीतर अर्थबोध विकसित करता है। इसे न्याय वैशेषिक में सामान्यलक्षण और ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष कहा गया है। अर्थ की अभिव्यक्ति एवं संप्रेषण में संकट तो होता ही है। उससे भारी संकट यह है कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी विषय का पूर्ण ज्ञान होता ही नहीं है। 
19.इंद्रियप्राप्त ज्ञान की एकदेशीयता और आंशिकता
सामान्य सांसारिक ज्ञान में भी मनुष्य का किसी एक इंद्रिय से प्राप्त किया जाने वाला ज्ञान एकदेशीय और आंशिक ही होता है। अंधा रूप का ग्रहण नहीं कर पाता है और जिसकी सूंघने की क्षमता खत्म हो गई हो वह फूल के गंध का अनुभव नहीं कर पाता है, अभिव्यक्ति की तो बात ही दूर है। 
अति सामीप्यात् दूरादिइंद्रिय घातान्मनोनवस्थानात्।
सौक्ष्म्याद्व्यवधानात् समानाभिहाराच्च  ।।
इस सूत्र में बताया गया है कि प्रत्यक्ष ज्ञान में उपर्युक्त विघ्न हैं। इन विघ्नों से यदि अप्रत्यक्ष अनुभव न बाधित हो तो भी वह आंशिक ही होता है। केवल रूपा, गंध, स्वाद में से किसी एक या दो का इंद्रियों के द्वारा ग्रहण हो पाता है। योगज प्रत्यक्ष इसके भिन्न प्रकृति का प्रत्यक्ष है जिसमें तादात्म्य या तदाकारिता अर्थात् ‘उसके आकार का हो जाना’ यह सिद्धांत रखा जाता है। 
20.योगज प्रत्यक्ष 
पहले सांसारिक द्विआयामी और बहुआयामी प्रत्यक्ष को देख लिया जाय। प्रत्यक्ष को समझने की चेष्टा की जाय। तब योगज प्रत्यक्ष के बारे में कल्पना करना आसान हो जायेगा। किसी कमरे को बाहर से देखना द्विआयामी रूपज प्रत्यक्ष है लेकिन जब किसी कमरे के भीतर हम प्रविष्ट हो जाते हैं तो उसके ताप आकृति साज-सज्जा इत्यादि का बहुआयामी प्रत्यक्ष हमें होता है। कमरे में होना एक अर्थ में तदाकाराकारिता है। कमरे के साथ उस कमरे के आकार में हम समा जाते हैं और यदि बहुत सारे लोग कमरे में घुस जाएँ तो ठंडे कमरे का तापमान भी बदल जाता है। उसकी हवा बदल जाती है। 
इसी प्रकार से योगज प्रत्यक्ष में ध्याता, ध्यान एवं ध्येय इन तीनों का लय होकर एक अवस्था हो जाती है। यह आत्मस्वरूप का ज्ञान या कल्पना के ध्याता के साथ तादात्म्य की अनुभूति दोनों में से कुछ भी हो सकती है। ऐसे अनुभव का भाषा के द्वारा अभिव्यक्ति करना बहुत ही कठिन है। जानत तुम्हीं होई जाई कहने पर सामान्य व्यक्ति को अर्थ समझ में नहीं आता है लेकिन यदि यह बता दिया जाए कि योगज प्रत्यक्ष का प्रारंभिक सिद्धांत ही है कि ध्याता, ध्यान एवं ध्यय ये तीनों एकाकार हो जाते हैं। जो द्वैत भावना वाले साधक हैं। उन्हें इस प्रसंग को समझने में भावनात्मक पीड़ा होती है, विशेषकर दासभाव में। अन्य भाव जिसमें द्वैत अनिवार्य होता है वैसे साधक को इस बात को सुनना भी नहीं चाहते हैं। सामान्य व्यक्तियों को भी ध्यान करते समय यह संकट खड़ा हो जाता है। ध्याता के साथ एकाकारिता की अवस्था आते ही वह घबरा उठता है। लगता है कि उसके अस्तित्त्व का विलय हो जा रहा है या कोई अनैतिक सी घटना घटने लग रही है कि भक्त और भगवान एक हो रहे हैं लेकिन ध्यान की तन्मयता में भक्त और भगवान का तादात्म्य ही योगसाधना के या साधना के सिद्धांतों के अनुरूप है। द्वैतभावना वहाँ नहीं चल पाती है। इस बुनियादी सिद्धांत को संवाद के संदर्भ में स्पष्ट न करने के कारण भी अनेक प्रकार के भ्रम एवं समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं। इसीलिए योगज प्रत्यक्ष को बहुआयामी वास्तविक प्रत्यक्ष कहा गया है।
 21.हार्दिक संवाद 
हार्दिक संवाद में भी वक्ता यह कोशिश करता है कि श्रोता को उसके प्रत्यक्ष दर्शन जैसा अनुभव हो इसलिए केवल पीड़ा का या किसी केवल एक प्रसंग का गहराई का अनुभव कराने के लिए कविता अधिक समर्थ माध्यम है, चित्र आकर्षण के लिए प्रबल माध्यम है तो उसी प्रकार से उपन्यास बहुत हद तक व्यक्ति के समक्ष एक परिस्थिति के सृजन जैसा है। इसलिए उपन्यास के प्रति सर्वाधिक आकर्षण आज भी देखा जाता है। नाटक दृश्य, श्रव्य एवं अन्य संदर्भों से जुड़ा होने के कारण साहित्य की सभी विधाओं में अधिक प्रभावकारी विधा मानी जाती है। भक्तिमार्गी अनुष्ठान उससे भी एक कदम आगे है।। जब रामलीला या रासलीला के समय लोग स्वयं भगवान के गण के रूप में अपने आप को देखतें हैं। बनारस की रामलीला इसके सबसे अच्दा उदाहरण है। दुर्भाग्य से लोगों ने इस लीला का भी कम दुरूपयोग नहीं किया है। 

22. जानबूझ कर अपने चारो तरफ गढ़ी गयी उलझनें 
मनुष्य कभी कभी जानबूझ कर अपने चारो तरफ उलझनें सृजित कर लेता है। ऐसे कुछ उलझनों की कथा एक ही साथ रोचक एवं अत्यंत पीड़ादायक भी हो सकती है। मैं कुछ उदाहरण आप के समक्ष रखने का प्रयास कर रहा हूँ। 
आजकल एक धारणा बन गई है कि ज्ञानी वह है जिसकी बात समझ में नही आए। अध्यात्म विद्या में इसके कारण संत्संग गोष्ठियों में अर्नगल बिना सिंह पुँछ वाले प्रसंगों की चर्चा का खूब आकर्षण हो गया है। बात मानस शंका-समाधान से पैरोडी तक पहुँच गई है। एक रामकथा वाचक पैरोडी सुना रहे थे। सकल सभा की मति भई भोरी, जूता गये अनेकन चोरी। यह पैरोडी मूल वक्तव्य से बहुत ही आकर्षक होती है। किसी ने प्रश्न खड़ा किया कि सीताजी के विवाह में एक खानेवाला बारा, बना था जिसकों सहस दस (10000) भूप उठा नहीं सके। इस मूल पैरोडी के आधार पर फिर इसके बाद शंका समाधान। यह आजकल की मानस शंका समाधान प्रणाली का एक वीभत्स रोचक उदाहरण है। इस बारा की कल्पना कर लेने के बाद रामचरित मानस से ही कड़ाही और तेल और बाकी सारी चीजों की भी कल्पना कर ली जाती है। ऐसी चर्चा का अध्यात्म कथा से कोई संबंध नहीं है। अध्यात्म इस सृष्टि की व्यवस्था से कोई अलग विषय तो है नहीं। 
23 अध्यात्म ज्ञान एक व्यवस्थित ज्ञान 
सृष्टि में जैसे एक व्यवस्था है इसी प्रकार अध्यात्म ज्ञान भी एक व्यवस्थित ज्ञान है। उसमें मनमानी कल्पना की गुँजाइश नहीं है। 
24 जटिल और तत्सम शब्दों का प्रयोग 
बहुतेरे विद्वान सरल भाषा में अपनी बात को कहने में बेइज्जती महसूस करते हैं और बहुतेरे लोग इसलिए भी जटिल और तत्सम शब्दों का प्रयोग करते है कि श्रोता के पल्ले कुछ नहीं पड़े और वह अपने आप को हताश, निराश, परास्त महसूस करे और ऐसा श्रोता भी गदगद रहता है कि मैं ऐसे महान गुरु का शिष्य हूँ जिनकी कोई भी बात समझ में नहीं आती है। 
मेरे पालि विभागाध्यक्ष प्रो0 ब्रजमोहन पाण्डेय इसके बहुत अच्छे उदाहरण हैं। वे जानबूझकर  सरल शब्दों के रहने पर भी कठिन शब्दों का प्रयोग करते हैं। परिणामतः अगली पीड़ी में उनका कोई भी शिष्य तैयार नहीं हो सका और वे भी इससे प्रसन्न हैं कि उनका ज्ञान उन्हीं तक सीमित रह गया, चाह करके भी कोई प्राप्त नहीं कर सका। 
25. सर्वधर्म समन्वय/ मेरा ही सर्वोपरि 
अभी स्वतंत्रता प्राप्ति के आसपास एक प्रवृत्ति बहुत जोरशोर से धर्म अध्यात्म के क्षेत्र में बढ़ी है। वह सर्वधर्म समन्वय की प्रवृत्ति है। इस सर्वधर्म समन्वय की प्रवृत्ति में पूर्ववर्णित सहस्रनाम वाला उपाय किया जाता है। कहा जाता है-भगवान एक है। अल्लाह, गौड इत्यादि जितने नाम हैं वे सब भगवान के ही नाम है इसलिए भगवान को ही (जो विष्णु, शिव या भगवान शब्द का संप्रदाय के अनुरूपा अर्थ अभिप्रेत हो) उसी की भक्ति करनी चाहिए बाकि सब बेकार है। यह बेकार सिद्ध करने का भीतरी प्रपंच साथ में रहता है। इसी प्रकार से मौलवी साहब भी अल्लाह के अधीन सारे ईश्वर देवी देवताओं को स्थापित कर देते हैं और जब बारी किसी ईसाई पादरी की आती है तो गौड के अंतर्गत सारी चीजें समाहित कर दी जाती हैं। प्रकारांतर से अपनी जूती तेरे शिर की भावना के साथ यह सर्वधर्म समन्वय का प्रवचन आजकल बहुत तेजी से विकसित हो रहा है। तथ्य यह कि विभिन्न धर्मों में विभिन्न संदर्भों में प्रयोग किया है। बहुत सारी प्रणालियाँ विकसित की हैं। इनके जीवन मूल्य, जीवन दर्शन, तथा संस्कृति में काफी अंतर है। केवल सर्वधर्म समन्वय कह देने से वस्तुतः कोई समन्वय हो नहीं पाता है।  कभी कभार अच्छा काम करते हुए भी उल्टा काम हो जाता है। आध्यात्मिक सत्संग गोष्ठियों में सम्मिलित होना धर्म अध्यात्म की चर्चा करना काफी लोकप्रिय है। यहाँँ का हर व्यक्ति धर्म गुरु है। दुनिया की कोई बात समझ में आए या नहीं आए भगवान, ईश्वर, कर्मफल इत्यादि के विशेषज्ञों की कोई कमी नहीं है। यहाँँ तक की बात समझ में आए या न आए लेकिन इसकी चर्चा करना अच्छा काम माना जाता है। इस स्तर पर वास्तविक संवाद एवं रोचक मनोंरजन में कोई फर्क नहीं रह जाता है। सत्संग गोष्ठियों में साधक अपने अनुभव का आदान प्रदान करते हों यह जरूरी नहीं है। कहीं लीला श्रवण है और कहीं अर्नगल प्रलाप का आदान प्रदान है। और तो और, इसमें निंदा कथा का भी काफी समावेश कर दिया जाता है विशेषकर दूसरे संप्रदाय या दूसरी धारा के लोगों की निंदा करना इन गोष्ठियों का एक अनिवार्य भाग होता है ऐसे संवाद को संवाद कहना ही संभव नहीं है। इसमें विघ्न या संकट जैसे शब्दों का प्रयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

26.मानस शंकासमाधान 
मानस शंकासमाधान बहुत शीघ्र ही मौडर्न क्वीज का रूप धारण करने वाली है और उसमें भी अंक, प्रतियोगिता इत्यादि संपन्न होने लगेगे। जैसे जप के आधुनिक मॉडल विकसित हो गये हैं। अयोध्या और वृंदावन में राम नाम और कृष्ण नाम बैंक बनाये गये हैं। वहाँ कागज पर नाम लिख कर जमा कर देते हैं और राम नाम कृष्ण नाम का बैंक चलता रहता है। जमा करने की तो जानकारी प्राप्त हुई है लेकिन ऐसे बैंकों से नाम निकालकर उपयोग करने की कोई जानकारी नहीं मिलती है। यह मूल विधियों का सरासर दुरूपयोग है। इसमें एक प्रकार से आवृत्ति तो हो जाती है लेकिन आगे की साधना से इसका संबंध प्रगट नहीं होता है। 
कुछ लोगों ने यह समझ लिया है कि आधी बात बताने पर उत्सुकता बढ़ती है। जैसे अर्धनग्न अवस्था का आकर्षण प्रबल होता है उसी तरह से अर्धज्ञात, अर्धसूचित विषय में प्रबल आकर्षण होता है। धर्म प्रचारकों, साधकों, सिद्धों ने इस विधि का लोक कल्याण के लिए यदि उपयोग किया तो दुष्ट और अनाधिकारी लोग फिजूल की कल्पना करके लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं और उनका शोषण करते रहते हैं। सामान्य व्यक्ति के लिए यह बात केवल भाग्याधीन है कि उसका संपर्क किसी वास्तविक साधक से होता है या किसी धूर्त से। 
  मैं एक भाग्यशाली हूँ कि मुझे सच्चे गुरु मिले।


आपका
रवीन्द्र








1 टिप्पणी: