बुधवार, 11 अप्रैल 2012

आम आदमी का दर्शन


आम आदमी का दर्शन 1
दर्शन एक क्रिया है जिसे मनुष्य जगे रहने पर प्रायः करता रहता है। आँख भी दो तरह की मानी गई - भीतरी और बाहरी। चलन और प्रधानता के कारण दर्शन से होने वाला ज्ञान अन्य ज्ञानों पर हावी होता चला गया। आँखवाला सुननेवाले, अनुभव करनेवाले, चलनेवाले एवं काम करनेवाले से श्रेष्ठ होता चला गया। आदमी बेवकूफी की ओर बढ़ गया।
आँख की तुलना में अन्य चार इन्द्रियों की उपेक्षा हो गई। फिर अर्थ और सिकुड़े, दर्शन का अर्थ बदलता गया। बारीकी से देखना, विपश्यना, प्रेक्षा, अंतर्दर्शन आदि मन से किए जानेवाले कार्य एवं अनुभव दर्शन शब्द के अर्थ होते गए।
आँख खोल कर देखने की अपनी जो भी सीमा हो आम आदमी उसे झुठलाता नकारता नहीं है। आम आदमी ज्ञान एवं अनुभव के अन्य स्रोतों के साथ उसका सामंजस्य बनाने का प्रयास करता है। यह आम आदमी का दर्शन है।
मनुष्य मात्र का अध्ययन करनेवाले नए शास्त्र को Anthropology /मानवविज्ञान/नृ-शास्त्र नाम से जाना जाता है। यह शास्त्र सायंस माना जाता है। मानवशास्त्र यह स्वीकार करता है कि हर समुदाय की अपनी Cosmology होती है। वह संपूर्ण अस्तित्व को अपनी समझ के अनुसार वर्गीकृत तथा व्याख्यायित करता रहता है। समाज में नए-पुराने का समावेश एवं लोप चलता रहता है और उसे स्वीकारने-हटाने को वह समुदाय अपनी दृष्टि से युक्तिसंगत ठहराता है। इस सहज प्रक्रिया को देखने से स्पष्ट है कि आम आदमी दर्शन का सृष्टिकर्ता, अनुभवी एवं परिष्कारक भी है।
भारत का आम आदमी अजीब हालात में रहता रहा है। उसे सदैव विविधता एवं विरोधों के बीच संगति बनानी पड़ती है। परिणामतः भारतीय आम आदमी का दर्शन क्षेत्रीय दृष्टि, संगति एवं समन्वय की विधि से विकसित दर्शन है। व्यक्ति, विचार एवं व्यवस्था ( धार्मिक/अर्थिक ) का आदान-प्रदान पूरे भारत में होता रहा है। कभी कष्मीर , कभी मगध , कभी नैमिषारण्य , कभी सौराष्ट्र और कभी नवद्वीप या तेलंगाना आदि में विकसित व्यवस्थाएँ सुदूर क्षेत्रों को प्रभावित करती रही हैं। बाद में बाहर से आए इस्लाम एवं ईसाइयत के साथ सामंजस्य की प्रक्रिया आज भी जारी है। मैंने मगध की सांस्कृतिक विरासतनामक पुस्तक में इनके कुछ नमूने संकलित किये हैं।
खेती करनेवाले किसान को जैन दर्शन अनुकूल नहीं पड़ता। कीट-पतंग खेती में मरेंगे ही। उनकी हिंसा होगी ही। अहिंसा का महत्त्व भी है ही। जैन एवं वैदिक विद्वान अपनी श्रेष्ठता के लिए लड़ते रहे। आम आदमी ने तय किया कि श्रेष्ठ तो अहिंसा ही रहेगी। बिना जुताई वाली नैसर्गिक फसल को किसी एक दिन के लिए अधिक पवित्र मान लेते हैं या इसी तरह का कोई दूसरा उपाय भी कर लेते हैं फिर भी किसान के द्वारा खेती में हुई हिंसा भौतिक हिंसा भले ही हो मानसिक हिंसा नहीं है क्योंकि खेती में उत्पादन उद्देश्य है, हिंसा नहीं। अनजाने हुए पाप की भरपाई दान-व्रत आदि से अर्जित पुण्य के द्वारा हो जाएगी। यही आम आदमी का दर्शन है। वह विशिष्ट वैष्य समाज की तरह यह ढांेग नहीं करना चाहता कि वाणिज्य-व्यवसाय अहिंसक आजीविका या आय का स्रोत है और खेती हिंसक है।
सारे दर्शन विद्या की बात करते हैं और झगड़ते भी रहते हैं। क्या विद्वान होने के लिए झगड़ालु होना जरूरी है ? भारत के आम आदमी ने इसे समझा और जो लोग तत्त्वज्ञान की बारीकियों का झगड़ा छोड़ सबके भले की बात सोचें उन्हीं को आम आदमी के बीच प्रतिष्ठा मिली। बुद्ध ने ऐसे प्रश्नों को टाल दिया। अपने को कृषक एवं वैद्य घोषित किया तब जाकर उन्हें स्वीकृति मिली।
कुछ दिनों बाद त्रिपिटकों में बुद्धोपदेश संहिताबद्ध हो गया। ऊपर से क्षत्रियों की जन्म से ही श्रेष्ठता की मान्यता और उसमें भी शाक्यवंशियों का वर्चस्व बढ़ने लगा। आम आदमी ने समझ लिया कि झगड़ा शुरू हो गया। मगध में बुद्ध की ऐतिहासिकता के विरूद्ध महायान शुरू हुआ। सभी को अपना-अपना बुद्ध मानने की सुविधा मिल गई। संकीर्णता वाले बुद्ध को केवल मुनि का दर्जा देकर पदावनत कर दिया गया। वे शाक्यमुनि बनकर सीमित हो गए।
यह संसार ही भगवान हैइस मत से आम आदमी सुविधा महसूस करता है। कोई भी वह चाहे विशिष्ट व्यक्ति या शक्तिसंपन्न कुछ भी हो, चाहे वह जड़ हो, या चेतन देवता भी हो सकता है। इस महायान मत में अपना-अपना देवता गढ़ने की सुविधा है। उस देवता का स्वरूप, आकार जो चाहें जैसे रखें।
इस संसार को भगवान ने बनाया हैइस मत के साथ भी काम चल जाता है। इस मत को मानने पर भगवान तो गढ़ नहीं सकते तो इस्लाम मानने के बाद की तरह जिन्न-जिन्नात, पीर फकीर, दरवेश, चुडै़ल से काम चला लिया जाता है। मंदिर/मस्जिद पर आफत आये तो भगवान निराकार, मौका मिला तो साकार। बाबरी मस्जिद टूटने के बाद गया में तबलीगी मत का बहुत बड़ा समागम हुआ। सारी आशंकाओं के बाद भी कोई गड़बड़ी नहीं हुई। मौलाना साहब से अखबारवालों ने पूछा कि बाबरी मस्जिद टूटने पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है? मौलाना साहब ने कहा - खुदा की मर्जी से जब तक था तब तक था। उसकी मर्जी नहीं रही सो टूट गया या तोड़ दिया गया। इसमें मुसलमानों को करना क्या है ? खुदा का घर, खुदा जानें।
भारत का आम आदमी सुखवादी है। मगध के दलित समाज में जीउतियाएक महत्त्वपूर्ण उत्सव है। यह दुःख का पर्व है लेकिन दुख कितने दिन याद रहे। जीउतिया उत्सव हो गया। मुहर्रम भले ही उदासी का त्योहार हो, ताजिया का उत्साह देखते ही बनता है। क्या हिंदू क्या मुसलमान है तो हिंदुस्तानी दिल वाला।
ये कुछ नमूने हैं कि आद आदमी कैसे सोचता और व्यवहार करता है।

भारत में दर्शन की तीन मुख्य चिंताएँ हैं-
क-औचित्य एवं संगति।
ख-संसार का तात्त्विक एवं सूक्ष्मरूप, सृष्टि से प्रलय तक।
ग-मन एवं सृष्टि की कार्य प्रणाली का ज्ञान।
उपर्युक्त तीनों चिंताएं केवल विद्वानों, साधकों या धर्माचार्यों की चिंता क्षेत्र के ही अंतर्गत नहीं आतीं। आम आदमी भी हर बार संवाद तथा प्रयोग के माध्यम से उनकी परीक्षा कर संशोधनों के साथ पुष्टि करता है या उन्हें अस्वीकार कर देता है।
वर्तमान के व्यवहार एवं कार्यक्रमों का अतीत तथा भविष्य से संगति मिलाना जरूरी होता है। यह दर्शन का ही क्षेत्र है। इस उद्देश्य से आम आदमी विविध मतों को आंशिक रूप से स्वीकार करता है यही विशिष्ट से उसका अंतर है। इसीलिए किसी एक संप्रदाय के मठ या राजनैतिक पार्टी में दूसरे मत का समावेश हो न हो किसी परिवार गांव या मुहल्ले में विविध मतों के लोग पर्याप्त मात्रा में मिल जा सकते हैं। भूमि , पशु , जल , वृक्ष-वनस्पति , अपने , पराए , जीवन , मृत्यु , मृत्यु के बाद , जन्म के पूर्व , ये सभी बातें आम आदमी की चिंता एवं चिंतन के विषय हैं।
तत्त्वज्ञान के बारे में आम आदमी अपनी भूल सुधारता है और फंसता भी है। घर का जोगी जोगड़ा अन्य गांव का सिद्ध। एक नीचे वाली दुनिया है और दूसरी इसके ऊपर, ऊपर वाला है। यह आम आदमी का वर्गीकरण है। इस वर्गीकरण के अतिरिक्त अन्य वर्गीकरण विशिष्ट लोगों के हैं, आम आदमी का नहीं। बाकी वर्गीकरण इन्हीं दो के अवांतर विभाग हैं, तो जो भी हों, हुआ करें।
तत्त्वचिंतन की दृष्टि से स्व-भाव और पर-भाव पर आम आदमी से चर्चा करते-करते थक जाएंगे फिर भी चर्चा पूरी नहीं होगी क्योंकि हरि अनंत हरि कथा अनंता।
भारत में मन की कार्य प्रणाली भी आम आदमी की चिंता/चिंतन का विषय है। वह इन मामलों में पूरी रुचि लेता है। उदाहरण के लिए किसी का मन अकारण बेचैन होता है तो वह सोचता है मेरा कोई स्मरण कर रहा है। मानो तो देवता नहीं तो पत्थर, जाकी रही भावना जैसी हरि मूरत देखी तिन तैसी , मन माने का मेला नहीं तो सबसे भला अकेला , जाके पाँव न फटे बिवाई सो का जाने पीर पराई , हमारे हरि हारिल की लकड़ी , डुमरी के फूल , पढ़ पूत चन्द्रिका जा में चढ़े हंडिका , आपन हारल, मेहरी के मारल आदि अनेक वाक्य एवं वाक्यांश आम आदमी के दर्शन एवं चिंतन को सूत्र रूप में व्यक्त करते हैं।
मनुष्य के पास ज्ञान के जो साधन हैं उनमें दृष्टि का बहुत महत्त्व है। हिन्दुस्तान में शब्दों का मायाजाल दूसरों को फंसाने के लिए बनाया जाता है। अगर आपके पास दृष्टि न हो तो क्या होगा ? मायावी व्यक्ति के शब्द जाल में आप फंस जाएंगे। जो बंधन में बंधा, जो फंसा उसका जीवन पशु के समान होता है। उसकी गरदन, कमर या नांक में रस्सी फंसा दी जाएगी। उसका उपयोग किया जायेगा या फिर भेंड बकरे की तरह रोंए, खाल से लेकर मांस तक सबका उपयोग विशेष व्यवसाय की दृष्टिवाला मनुष्य कर लेगा। इसलिए पाश/फाँस को जो व्यक्ति जाने वही ज्ञानी, देखनेवाला दªष्टा है और जो इससे निकल गया या फाँस को तोड़ डाला वह साधक या सिद्ध।
आप भी जानते होंगे और आपके इलाके में कोई न कोई कहावत होगी कि चिकनी-चुपड़ी बातें करनेवाला और बातों में घुमानेवाला मनुष्य खतरनाक/धोखेबाज होता है। अतः आँखें खुली रखिए।
दृष्टि, दर्शन इन शब्दों का प्रयोग देखने की क्रिया एवं देखने के मूल साधन आँख दोनों के लिए होता है। ज्ञानार्जन में दृष्टि के महत्त्व के कारण संपूर्ण ज्ञानार्जन प्रक्रिया को ही दर्शन कहा गया। भारत में ज्ञान एवं दर्शन की बातें करने का अधिकार सबको रहा है। हर व्यक्ति के भीतर ज्ञानार्जन की अनंत संभावनाएँ मानी गई हैं। ज्ञान जो अनंत है उसकी उपलब्धि आँख, कान, नाक, चमड़ी सभी से हो रही है फिर भी देखने एवं सुनने में सर्वाधिक ऊर्जा लगती है और इसलिए इन दोनों का महत्त्व है। देखना भी दो तरह का हो सकता है-
(क)- वह देखना जो दिखाई दे रहा हो और
(ख)- अपनी या किसी दूसरी की पसंद से देखना।
आम आदमी को आँख खोलने पर प्रकृति के नजारे दिखाई पड़ते हैं। सूरज , चाँद , तारे , धरती , आसमान , मरना-जीना , बीमारी , नदियाँ , पहाड़ , समुद्र , बडे-छोटे पौधे , जानवर , तितली , बाढ़ , महामारी और पता नहीं ऐसी कितनी चीजें उसे दिखाई पड़ जाती हैं। यह सब उसके चारो ओर होते है। चूँकि दिल-दिमाग उसके पास है तो वह बहुत कुछ जान लेता है और अपनी जरूरत तथा पसंद के आधार पर बहुत कुछ मान भी लेता है। यह जानने-मानने की प्रक्रिया सतत् चलती रहती है। यह ज्ञान ही आम आदमी का दर्शन है। इसी के बल पर उसकी जिंदगी चलती है। आम आदमी के दर्शन का कोई पूर्व निर्धारित लक्ष्य या दिशा नहीं होती। ऐसा होते ही वह आदमी आम से खाश हो जाता है। इसलिए आम आदमी का दर्शन व्यापक एवं अनंत संभावनाओं वाला होता है। इस विपुलता एवं संपन्नता से खाश आदमी को बहुत जलन होती है।
सामान्य मनुष्य विशिष्ट मनुष्य
साधारणतः सभी आदमी साधारण आदमी ही होते हैं। उनकी जिंदगी की हालातें भी साधारण होती हैं किंतु लगभग हर आदमी में विशिष्ट बनने की पैदाइशी दिली बीमारी रहती है, जो बड़ा होने के साथ बढ़ती जाती है। यह बीमारी अगर आम आदमी की बुनियादी बातों की सीमा में रहती है तो निबाह हो जाता है लेकिन जब यह बहुत अधिक बढ़ने लगती है तो वह बीमार आदमी अपने एवं दूसरे दोनों के लिए बहुत घातक हो जाती है । कभी-कभी किसी देश या काल-खंड में यह बीमारी संक्रामक रोग की तरह विकसित हो जाती है तब यह महामारी की तरह भयानक विनाश करती है। इससे युद्ध जैसी घटनाएँ तो होती ही हैं जो प्रगट दिखाई देती हैं। कभी-कभी लोगों को यह घुन की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी भीतर ही भीतर खाने लगती है।
आम आदमी भर पेट खाता है। जैसा पेट, वैसा भोजन। हमारे इलाके के लाला लोग (कायस्थ, जमींदार) भर पेट केवल माँस-मछली खाते थे। दारू पीते कम थे, उसमें स्नान अधिक करते थे लेकिन जहाँ तक रोटी की बात है विशिष्ट आदमी होने के नाते उनका आदर्श था ‘‘एक रोटी बस, लाला हैं कि पस ’’, पस माने पशु। लालाजी की नजर में भर पेट रोटी तो जानवर खाता है।
आम आदमी ठहाका लगाकर हँसता है , रोता है , गाता है , चीखता- चिल्लाता गाली देता है , मारपीट करता है और फिर उसी से दोस्ती भी कर लेता है। विशिष्ट आदमी चैता, होली की मंडली में गाने, नाचने में बेइज्ज्ती महसूस करता है। वह बाई जी का गाना सुनता है, नाचता नहीं, नचाता है।
आम आदमी दोनों आँखों से गरदन घुमाकर चारो तरफ देखता है। एक तरफ देखने से वह आश्वस्त नहीं हो पाता। खास आदमी एक आँख मूँदकर दूरबीन से तारे देखता रहता है और उसे पड़ोसी का घर दिखाई नहीं देता, न बीमार बूढ़ा बाप, न खूबसूरत हसीना। उसे अपनी आँख से अधिक दूरबीन पर भरोसा होता है और पड़ोस का बच्चा दूरबीन से देखने पर दिखाई ही नहीं देता तो दूरबीन वाला पहाड़ पर चढ़कर बच्चे को देखता है। ऐसे अनेक मामले हो सकते हैं।
आजकल संपत्ति को लेकर चिंताएँ अधिक हैं। इसी कारण संपत्ति के दर्शन बनाए जा रहे हैं। आम आदमी आसानी से देखता महसूस करता है कि जो व्यक्ति घूम-घूमकर दूर की संपत्ति देख पाता है उसकी लालच उतनी ही बड़ी होती है। आम आदमी को बचपन में चाँद की परछाईं पकड़ने की इच्छा होती थी किंतु वह अपने अनुभव से जान जाता था कि यह तो बचकानापन है। विशिष्ट आदमी चाँद पर कॉलोनी बसाना चाहता है। इसके लिए बड़ी मशीन चाहिए और बड़ी मशीन के लिए बहुत इंधन चाहिए क्योंकि मशीन बहुत अधिक तेल पीती है तो तेलवाले मुल्कों पर कब्जा चाहिए। इस प्रकार यह साफ है कि आम आदमी का दर्शन जीने का दर्शन है। अपने परिवेश के साथ संपूर्णता में जीना उसे परंपरा से प्राप्त सहज लक्ष्य है और इसके पक्ष में उसका दर्शन है जो उसकी पीढ़ी दर पीढ़ी अनुभव पर आधारित है।
आम आदमी जानता है कि जर, जोरू और जमीन को लेकर झगड़े होते हैं। साथ ही यह भी जानता है कि संपत्ति संबंधी नियम देश-देश में बदलते रहते हैं। अतः उसे अपनी बेटी को समझाना पड़ता है कि ससुराल का कायदा कानून समझ लेना क्योंकि तुम्हारी शादी परदेश में हो रही है। अपने देश में झंझट होगी तो पंचायत के बल पर निपट ही लेंगे। भारत में हिन्दू उत्तराधिकार नियम के बाद भी अपवाद छोड़कर बेटी भाई से हिस्सा माँगती ही नहीं। उसे स्पष्ट है कि यह कैसे होगा कि दोनों जगह हिस्सा मिलेगा और मैके में जिंदगी भर रूतबा भी चलेगा?
आम औरत तभी अपने को औरत महसूस करती है जब माँ बन लेती है। बाँझ को पूरी औरत का दर्जा नहीं है क्योंकि इसी मामले में वह मर्द से अधिक है क्योंकि कोई भी, कितना भी ताकतवर मर्द बाप के पेट से नहीं पैदा होता ?
आजकल आम आदमी का दर्शन खतरे में है। यह पहली बार नहीं है। पहले भी ऐसा होता रहा है। आम आदमी फिर भी रास्ता निकालता है इस बार भी निकालेगा ऐसी उम्मीद है।
आम आदमी को मालूम है कि तीन कोस पर पानी बदले पाँच कोस पर बानी

5 टिप्‍पणियां:

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