उपनिषदों की उलटी शिक्षा
मेरी अपनी निजी याददाश्त के अनुसार मैं ने अपने परिवार का चयन नहीं किया। मेरे जन्म के पहले या मेरे पुत्र के जन्म के पहले तक का निर्णय दूसरों के हाथ था। मेरे हाथ रहता तो शायद मैं दूसरा निर्णय लेता क्योंकि मेरा घर-परिवार, प्रयोगवादी, कठोर परिश्रमी एवं सदैव उथल-पुथल में रहने वाला था। पर्याप्त यश/अपयश के भीतर अनेक प्रयोग सामाजिक, राजनैतिक, परिवारिक एवं साधना के स्तर पर हो रहे थे। शास्त्रार्थ के कलह में घर का चूल्हा-चौका भी प्रभावित हो जाता था। मेरे परबाबा (प्रपितामह) दो भाई थे। एक नियमित संध्या पूजा करते थे। वे रामानंदी वैष्णव थे। शिक्षा प्रथमा या मध्यमा स्तर की थी। आज की तुलना में 10वीं-12वीं तक की। उनके छोटे भाई बड़े विद्वान, 4 विषयों में तीर्थ अर्थात स्नातकोतर उपाधि वाले थे। वे संध्या नहीं करते थे। प्रतिदिन कुर्सी पर बैठकर पैर लटका कर गीता पाठ करते थे। दोनों एक दूसरे को ढोंगी और नास्तिक समझते थे। इसके बावजूद वे एक दूसरे को प्यार बहुत करते थे और झगड़े के बाद रूठने-मनाने, पंचायत बिठाने का काम भी होता था। इन दोनों की लड़ाई में मुझे फायदा होता था कि पढ़ाई से छुट्टी। किसी बाहरी विद्वान या साधक के आने पर पुआ-पूड़ी का लाभ अतिरिक्त था। ऐसे ही माहौल में मेरे पितामह का जन्म और विकास हुआ था। उन्होंने अनेक रहस्यों का स्वयं पता किया और उसमें से ही एक है उपनिषदों की उलटी शिक्षा।
गीता एवं ईशावाश्योपनिषद तो मुझे कंठस्थ था ही एक दिन मुझे उपनिषद पढ़ाने का काम मेरे पितामह ने शुरू किया। उस समय तक वे एक क्रांतिकारी, काँग्रेसी, भूदानी, फलाहारी, तीन गायत्री पुरश्चरणकर्ता, अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष/सचिव आदि हो चुके थे। घुमक्कडी़ का अनुभव भी उनका उस समय 60 साल का था। साधु-संतों की लंबी-चौड़ी मित्र मंडली थी। इस परिवेश के जाने बगैर आप समझ ही नहीं सकेंगे कि एक पितामह अपने पोते को उलटे क्रम से उपनिषद क्यों पढ़ा रहा था।
मैं 108 उपनिषदों वाली पुस्तक लेकर बैठा, खेमराम वंेकटदास, मुंबई वाला। वे (पितामह) बोले अंतिम उपनिषद खोलो और पढ़ो। नाम था अल्लोपनिषद। मैं चाैंका, ये क्या? इस किताब में तो हजरत मुहम्मद साहब तो भगवान के अवतार हैं, नारायण की छवि हैं। मैं ने इस्लाम की मुख्य शिक्षाएँ पढ़ीं। प्रश्न तो उठना ही था क्योंकि तबतक सामान्य संस्कृत वाक्यों के अर्थ समझ में आ जाते थे। अनुवाद के सहारे की आवश्यकता नहीं थी। धार्मिक ग्रंथों के वर्णनों पर अनेक लोगों के मन में प्रश्न इसलिए नहीं उभरते क्योंकि वे उसे समझते ही नहीं। मैंने सवाल पूछ ही लिया कि ये कैसा उपनिषद है? उपनिषदों की संख्या कितनी है? ये उपनिषद इतने भिन्न क्यों हैं? और आज तक सभी किताबें तो आदि से अंत तक पढ़ाई र्गइं। इस संकलन को आप उल्टे क्रम से क्यों पढ़ाना चाहते हैं?
उन्होंने बताया -
क) महान संस्कृतियाँ यू हीं नहीं महान बनतीं।
महान व्यक्ति, समाज, धर्म या संस्कृति सभी को अपने दिल एवं दिमाग दोनों को खुला रखना पड़ता है ताकि उसमें अन्य का समावेश हो जाय। इस्लाम ने चाहे जितनी भी लड़ाई लड़ी हो लेकिन उसमें किसी दूसरे को समाविष्ट करने की प्रणाली ही नहीं है। भारत में बातें वेदों तक सीमित नहीं है। वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, पुराणों, उपपुराणों, रामायणों एवं अन्य ग्रंथों की संख्या निरंतर बढ़ती रही। इसी क्रम में किसी ने अल्लोपनिषद लिख दिया। तुम भी चाहो, बड़े होकर एक उपनिषद लिख देना। इसमें बुरा क्या है?
उपनिषद की तो नहीं लेकिन एक नए पुराण प्रज्ञा-पुराण लिखे-जाने की सूचना मुझे मिली । गायत्री समूह वालों ने प्रयास किया है परंतु पुराने आर्य समाजी होने के कारण बेचारे श्री राम शर्मा जी भारतीय संस्कृति समझ ही नहीं पाए। उनका पुराण आगे चलकर पुराण नहीं बन पाएगा जबतक कि उनके चेले गुरु की गलती सुधारते नहीं। अर्थात आगे के 6 एवं पीछे के 8 तीन पृष्ठों का बदलकर भगवान व्यास की बेनामी सिंगल ब्रांडवाली अनादि अनंत ट्रस्ट की पूँजी में सम्म्लिित नहीं करते। व्यास के अतिरिक्त पुराण का रचनाकार दूसरा कैसा हो सकता है?
ख) खैर तो दूसरी बात यह कि वैदिक काल का समाज तो बहुत पहले का है। न वे परिस्थितियाँ है न साधना की वैसी विधियाँ न वैसे भेद-प्रभेद। आज के समाज एवं उनमें प्रचलित संप्रदायों के मूल सिद्धांतों की समझ के लिए सबसे सुविधाजनक है इन छोटे-छोटे परवर्ती उपनिषदों को पढ़ना। इससे सांस्कृतिक इतिहास की कड़ियाँ व्यवस्थित रूप से ज्ञात होंगी। इसके बाद फिर मेरी उल्टी शिक्षा का सिलसिला चलता रहा। एक उपनिषद, एक संप्रदाय, एक अखाड़ा, उसकी मूल मान्यताएँ अन्य से अंतर, साधना की प्रणाली, समाज में उनका योगदान एवं अधिकार इन सभी बातों की चर्चा साथ-साथ चली, जैसे- नागा साधु को सभी मठों मंदिरों से जबरन वमूली का सामाजिक अधिकार क्यों है क्योंकि इन्होंने अन्य संप्रदायों के लिए भी लड़ाई लड़ी।
ग) परवर्ती उपनिषदों की भाषा लौकिक अर्थात वेद के बाद वाली संस्कृत भाषा है। इसे समझना आसान तो पड़ता है साथ ही धीरे-धीरे पुरानी शैली एवं भाषा की समझ बढ़ती है तो पूर्ववर्ती उपनिषदों को समझना आसान होने लगता है। तभी सही मायने में प्रायोगिक परंपरा के साथ वैदिक उपनिषद समझ में आते हैं।
घ) भारतीय साधना संस्कृति कैसे समकालीन मान्यताओं परंपराओं से प्रभावित होती गई, इसे समझने के लिए नारायणोपनिषद, वज्रसूचिकोपनिषद आदि संप्रदाय वालों की ये छोटी पुस्तकें बहुत उपयोगी हैं। योग की सीधी बातें योगशिखोपनिषद में हैं।
अगर आप भी भारतीय साधना परंपरा को जानना पहचानना चाहते हैं। अनेकता में एकता की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो एक बार उपनिषदों को उलट कर पढ़िए। संस्कृत में परेशानी हो तो अनुवाद पढ़िये।
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