घोखाधड़ी एवं शोषण का मायावी जाल
माया का मतलब जो दिखाई पड़े उससे अलग। परोक्ष कर आखिर क्यों लगाया जाता है? इसलिए कि कर दाता को न समझ में आए न महसूस हो। भारत में पहले राज्य द्वारा सीधे-सीधे उत्पादक से छठा या आठवां भाग कर में ले लिया जाता था। आरंभिक स्मृति ग्रंथों में ऐसा लिखा मिलेगा। उस समय लंबी दूरी तक व्यापार करने वाले वणिक्वर्ग एवं अन्य सेवा प्रदाता, जैसे चिकित्सक, सराय चलाने वाले, वेश्याएं, नाचने गाने वाले, आढ़ती एवं सार्थवाह अर्थात मालवाहक चलन में नहीं थे। किसान, शिल्पी एवं स्थानीय बाजार का ढांचा था। उसके बाद दूरदराज माल बेंचने के साथ अन्य जटिल व्यवस्थाएं बनने लगीं। चूंकि उत्पादक से अधिक लाभ सेवा प्रदाता एवं माल बेंचने वाले उठा रहे थे इसलिए राज्य ने उन पर भी शुल्क एवं कर लगाना शुरू कर दिया। कर का स्वरूप मूलतः प्रत्यक्ष होता है एवं कर देने वाले को सीधा समझ में आता है, अनुभव में आता है। इसके आधार पर राजा के व्यवहार तथा पक्षपात को जानना पहचाना आसान होता है। इसके विपरीत विभिन्न स्तरों पर लगाए जाने वाले कर एवं शुल्क को बिचौलिए व्यापारी माल की कीमत में जोड़ते जाते हैं जिससे माल की कीमत बढ़ती जाती है।
ये किसान एवं शिल्पी नहीं हैं। भारत में पहला मायावी आर्थिक षडयंत्र यह हुआ कि कृषि, पशु पालन एवं वाणिज्य तीनों को वैश्य के कर्म की कोटि में सम्मिलित कर दिया गया। शिल्पियों का नामोनिशान तक नहीं। यह घालमेल आप गीता में तो देख सकते हैं लेकिन अन्य समाज व्यवस्था या राजकाल वाले असली व्यावहारिक ग्रथों में नहीं। इससे यह आशंका प्रबल होती है कि गीता का यह अंश कहीं प्रक्षिप्त तो नहीं।
इस प्रकार 3 मुख्य गलत सूचनाएं प्रचारित की गईं, जिसके विरुद्ध समाज व्यवस्था या राजकाल वाले असली व्यावहारिक ग्रंथ, नाटक, यात्रा विवरण आदि अनेक स्रोंतों से पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं। ऐसे असत्य उदाहरण के लिए गौर करें-- 1 ब्राह्मण खेती नहीं करते, 2 शिल्पियों का वर्ण निश्चय नहीं करना तथा उनका अनेक बार उल्लेख तक ही नहीं करना।
मेरे अनुमान से यह पाप भारतीय एवं विेदेशी दोनो प्रकार के बड़े व्यापारियों के दबाव में किया गया। ताकि शिल्पियों को वैश्य की जगह शूद्र वर्ण में स्थान दिलाया जा सके और ब्राह्मणों से जमीन छीन कर बड़े व्यापारियों/वैश्यों के कब्जे में दी जा सके। अन्य षडयंत्रों की तरह जमीनी स्तर पर यह षडयंत्र सफल नहीं हो सका। पालीवाल, कोहली एवं भूमिहार लगातार बड़े स्तर पर भूमि सुधार, जल प्रबंधन, एवं खेती से गहन रूप से जुड़े रहे। भूमहारों की तरह अन्य कई जातियां हैं, जिन्होने ब्राह्मणों के परंपरागत अन्य पेशों को छोड़ भूस्वामित्ववाले पेशे को स्वीकार किया। शेष ब्राह्मणों ने जमीन के साथ अन्य पेशे भी जारी रखे।
कर एवं शुल्क के घालमेल ने राजा के व्यहार को समझने में भारी असुविधा की जैसे आज प्रत्यक्ष कर की जगह परोक्ष कर की चलन अधिक है ताकि उपभोक्ता को पता न चले कि किस सामान पर राज्य कितना कर वसूल कर रहा है।
माया का मतलब जो दिखाई पड़े उससे अलग। परोक्ष कर आखिर क्यों लगाया जाता है? इसलिए कि कर दाता को न समझ में आए न महसूस हो। भारत में पहले राज्य द्वारा सीधे-सीधे उत्पादक से छठा या आठवां भाग कर में ले लिया जाता था। आरंभिक स्मृति ग्रंथों में ऐसा लिखा मिलेगा। उस समय लंबी दूरी तक व्यापार करने वाले वणिक्वर्ग एवं अन्य सेवा प्रदाता, जैसे चिकित्सक, सराय चलाने वाले, वेश्याएं, नाचने गाने वाले, आढ़ती एवं सार्थवाह अर्थात मालवाहक चलन में नहीं थे। किसान, शिल्पी एवं स्थानीय बाजार का ढांचा था। उसके बाद दूरदराज माल बेंचने के साथ अन्य जटिल व्यवस्थाएं बनने लगीं। चूंकि उत्पादक से अधिक लाभ सेवा प्रदाता एवं माल बेंचने वाले उठा रहे थे इसलिए राज्य ने उन पर भी शुल्क एवं कर लगाना शुरू कर दिया। कर का स्वरूप मूलतः प्रत्यक्ष होता है एवं कर देने वाले को सीधा समझ में आता है, अनुभव में आता है। इसके आधार पर राजा के व्यवहार तथा पक्षपात को जानना पहचाना आसान होता है। इसके विपरीत विभिन्न स्तरों पर लगाए जाने वाले कर एवं शुल्क को बिचौलिए व्यापारी माल की कीमत में जोड़ते जाते हैं जिससे माल की कीमत बढ़ती जाती है।
ये किसान एवं शिल्पी नहीं हैं। भारत में पहला मायावी आर्थिक षडयंत्र यह हुआ कि कृषि, पशु पालन एवं वाणिज्य तीनों को वैश्य के कर्म की कोटि में सम्मिलित कर दिया गया। शिल्पियों का नामोनिशान तक नहीं। यह घालमेल आप गीता में तो देख सकते हैं लेकिन अन्य समाज व्यवस्था या राजकाल वाले असली व्यावहारिक ग्रथों में नहीं। इससे यह आशंका प्रबल होती है कि गीता का यह अंश कहीं प्रक्षिप्त तो नहीं।
इस प्रकार 3 मुख्य गलत सूचनाएं प्रचारित की गईं, जिसके विरुद्ध समाज व्यवस्था या राजकाल वाले असली व्यावहारिक ग्रंथ, नाटक, यात्रा विवरण आदि अनेक स्रोंतों से पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं। ऐसे असत्य उदाहरण के लिए गौर करें-- 1 ब्राह्मण खेती नहीं करते, 2 शिल्पियों का वर्ण निश्चय नहीं करना तथा उनका अनेक बार उल्लेख तक ही नहीं करना।
मेरे अनुमान से यह पाप भारतीय एवं विेदेशी दोनो प्रकार के बड़े व्यापारियों के दबाव में किया गया। ताकि शिल्पियों को वैश्य की जगह शूद्र वर्ण में स्थान दिलाया जा सके और ब्राह्मणों से जमीन छीन कर बड़े व्यापारियों/वैश्यों के कब्जे में दी जा सके। अन्य षडयंत्रों की तरह जमीनी स्तर पर यह षडयंत्र सफल नहीं हो सका। पालीवाल, कोहली एवं भूमिहार लगातार बड़े स्तर पर भूमि सुधार, जल प्रबंधन, एवं खेती से गहन रूप से जुड़े रहे। भूमहारों की तरह अन्य कई जातियां हैं, जिन्होने ब्राह्मणों के परंपरागत अन्य पेशों को छोड़ भूस्वामित्ववाले पेशे को स्वीकार किया। शेष ब्राह्मणों ने जमीन के साथ अन्य पेशे भी जारी रखे।
कर एवं शुल्क के घालमेल ने राजा के व्यहार को समझने में भारी असुविधा की जैसे आज प्रत्यक्ष कर की जगह परोक्ष कर की चलन अधिक है ताकि उपभोक्ता को पता न चले कि किस सामान पर राज्य कितना कर वसूल कर रहा है।