मुद्रा रूपी माया निम्नलिखित अनिश्चयों पर आधारित होती है- मूल्य निर्धारण, मानकी करण, विश्वास एवं धोखा। इनका विश्लेषण बारी-बारी से करना होगा।
मूल्य निर्धारण - यह एक सापेक्ष प्रक्रिया है। मूल्य निर्धारण कौन करे? कैसे हो? यहीं से बेईमानी और पक्षपात का आरंभ होता है। पाप के 2 व्यापक आधार माने गए हैं- छल और बल। सभी संस्कृतियों में इसे मुख्य/गौण भेद से स्वीकार किया जाता है। मुझे किसी आपवादिक समाज या संस्कृति की जानकारी नहीं हैं, जहाँ दोनों या दोनों में से कोई भी एक, व्यवहार में आंशिक या पूर्णतः स्वीकृत न हो। भारतीय बिंबों में कहें तो देवता और राक्षस दो समृद्ध एवं संघर्षरत परंपराएँ हैं। इनके समानांतर यक्ष भी धनी हैं। ये देव-राक्षस दोनों के मित्र हैं। कुबेर या देशी भाषा में कारू के पास सबसे बड़ा खजाना रहता है। अपना धन घटने पर सभी उन्हीं पर चढ़ाई करते हैं। कुबेर यक्ष हैं। देवता छल में और राक्षस बल में विश्वास करते हैं। यक्ष सीधी स्पष्ट मैत्री में, दगा करने पर इनसे भयानक दंड मिलता है, क्षमा नहीं होती।
मुद्रा के अधिष्ठाता सच पूछिए तो यक्ष एवं उसकी परंपरा के लोग हैं जो बाद में देवों के अधीन चले गए। सांस्कृतिक संदर्भ आ गया अब आगे समझने में सुविधा होगी।
बार्टर या वस्तु विनिमय में बल प्रयोग होता है, वह भी परस्पर विवशता के शोषण द्वारा। मूल्य जैसी कोई बात वहां नहीं है- बस इतने के बदले में इतना। वर्तमान झारखंड एवं छत्तीसगढ़ के कुछ इलाके में नमक के बदले चिरौंजी एक मंहगा भोदभव वाला विनिमय व्यापारी करते थे। चिरौंजी- वर्तमान मूल्य लगभग 1000 किलो का दुगना नमक 2 किलो देते थे। यह मजबूरी आधारित व्यवहार का उदाहरण हुआ।
विनिमय में मूल्य, माप एवं मुद्रा तीनों के प्रवेश से संगठित व्यापार आरंभ होता है। आरंभ में ये तीनों अलग हैं। आज भी तीनों का स्वतंत्र अस्तित्व है लेकिन आप थोड़ी भी सावधानी से पिछले 100 साल का पता करें तो इस 100 साल में मुद्रा एक ही साथ मूल्य, माप एवं मुद्रा तीनों हैं।
पुराने सिक्कों का वजन तय रहता था। रूपया एक सिक्का और वजन दोनों होता था, रुपये का मतलब ही होता था चांदी वाला । रूप का आरंभ चांदी से हाता है। यह दूसरे मायावी तेत्र का वि ाय है। उसी प्रकार अठन्नी वगैरह सर्राफा बाजार 15 साल पहले तक इसी प्रकार चल रहा था। पहले विक्टोरिया मार्क चांदी का सिक्का और बाघ छाप अठन्नी का भाव आनुपातिक रूप से तय था। सोना और मसाले उसी आधार पर तौले जाते थे।
इस प्रकार 1 रूपया, 1 रूपया चाँदी, 1 रूपया या चाँदी का सिक्का स्वतः एक मूल्य का समानुपाती स्थिर रूप था। उस पर मुहर चाहे जिस राजा या व्यापारी की हो। माप एवं गुण में एक ही समान होना ही चाहिए।
नोट छापने की चलन के समय नियम बना कि तात्कालिक नोट मूल्य भर सोना भंडार में रख कर ही नोट छापा जाएगा। इससे मुद्रा की कीमत सोने के संदर्भ में लगभग स्थिर एवं उस पर भुगतान क्षमता स्थिर होती थी। बाजार की अन्य वस्तु में जो मंदी या महंगाई आए रूपये की क्रय शक्ति वही रहती थी। माना जाता है कि 1960 तक भारत में यह नियम था। यह ऐसी व्यवस्था थी, जिसमें कुछ सामग्री सस्ती, कुछ महंगी हो सकती है, एक ही साथ सबकुछ महंगा नहीं हो सकता। महंगाई मांग-पूर्ति के सापेक्ष होगी।
मुद्रा के क्या-क्या उपयोग हैं इस पर विवाद होता रहता है। हमारे स्कूली इकोनोमिक्स में बताया जाता था - मुद्रा के चार कार्य महान - संचय विनिमय, वितरण और भुगतान। यह नोटयुग वाली नोट पक्षीय व्याख्या है। इसमें 5 वां मापन गायब है।
आपमें से अनेक लोग नहीं जानते कि केवल भौातिक धन ही नहीं; मानव श्रम, पशुश्रम आदि को भी मुदा्र के सापेक्ष परिवर्तन एवं मूल्यांकन की प्रणालियां भारत में विकसित की गई थीं। उदाहरण के लिए एक मजदूर किसान के हल बैल का उपयोग करता है और वह उसका भुगतान अपनी मजदूरी में करना चाहता है, तो इसका क्या आधार-पैमाना होगा? मजदूरी को नगदी या अन्न में परिवर्तन करने की जगह सीधा मानव श्रम = पशु श्रम का सिद्धांत था। पूर्वाेक्त उदाहरणों को सावधानी से देखें तो स्पष्ट होता है कि कई चरणों में विभ्रम, अनिश्चय एवं बेईमानी की काफी गुंजाइश है, जैसे वस्तु, विनिमय के समय अनुपात तय करने में।
मूल्य निर्धारण में आरंभिक दौर में मुद्रा विनिमय का माध्यम था न कि गाय बकरी की तरह, क्षरणशील या उत्पादक। ध्यान में रखे कि एक समय गाय को भी मुद्रा के रूप में उपयोग किया गया था लेकिन यह बहुत पहले जमाने की बात है।
सोना न बढ़ता ह, न घटता है, उसी तरह चाँदी तांबा, जस्ता, वगैरह। इसमें मिलावट या नकली मुद्रा तभी बनती है, जब सिक्के की क्रयशक्ति उसके वास्तविक मूल्य से अधिक हो। नोट वाली बीमारी यहाँ भी हो।
ंजारी....