कभी कभी अपने साथ भी समझौता करना पड़ता है। वस्तुतः जीने का मजा वही ले सकता है, जो या तो यह माने कि वह अभी मरेगा नहीं या वो, जो हमेशा मरने को तैयार हो। मुझे मरना, अपने या अपनों के लिये पसंद नहीं आया बशर्ते कि वे भारी पीड़ा में न हों। दुश्मन मरें तो मरें, उनसे अपना क्या?
जहां तक याद है 8 साल तक तो किसी के भी मरने की खबर से ही मैं मायूस हो जाता था। मेरे मुख्य प्रशिक्षक, मेरे बाबा (पितामह) को यह बात पसंद नहीं आई। इतना छोटा बच्चा, क्या जानता है मृत्यु के बारे में? उसके बावजूद? डरे, यह उचित नहीं है। इसलिये उन्होंने मृत्यु से मेरे डर को भगाने के अनेक उपाय किये और अंत में मरने की कला भी सिखा गये। पता नहीं मैं ने कितना आत्मसात किया, यह तो मेरे मरने के बाद ही पता चल सकेगा।
12 साल से 54 साल तक मुझे पूरा विश्वास था कि मैं मरने वाला नहीं अतः मौत की परवाह किये बिना अनेक काम किये, दुर्घटनाएं और मेरे ऊपर आक्रमण सालाने रूटीन की तरह रहे लेकिन 50 साल पूरे होते ही एक दिन मैं डरने लगा कि अब तो मेरा नंबर भी देर सबेर आयेगा ही। बहाना बनाने की वैसे भी अपने पास सुविधा नहीं है और यह तो बिलकुल सच है।
मैं ने सोचा कि इस प्रकार भीतर में डर बना रहे तो जीवन कैसे चलेगा? इस मुद्दे पर उन प्राचीन भारतीय मनीषियो को पढ़ना शुरू किया, जो थोथे आदर्शवादी न हो कर उतने ही व्यवहारिक और अनुभवी भी माने जाते हैं। भर्तृहरि इसमें सबसे अच्छे लगे। उनका कथन है- ‘‘विद्या और धन की चिंता तो यूं करे कि कभी मरना ही नहीं है और धर्म का पालन इस तरह करे कि बस अभी तुरत मौत आने ही वाली है। ’’ यह बात दिल को भाई नहीं, इसमें दुहरी और नकली जिंदगी है।
फिर अचानक भीतर से सचाई कौंधी कि अपने आप को किसी भी क्षण मरने के लिये तैयार ही क्यों न कर ली जाये। मेरे पितामह ने किया था तो लगा कि लोग कर तो लेते ही हैं। मेरी पात्रता शायद उतनी नही, फिर भी यह प्रश्न जब भीतर में उठ गया तो क्यों न अभी से तैयारी शुरू कर दी जाये। मुझे 4 साल लगे किसी तरह अपने को मनाने में कि इस सत्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त तो दूसरा कोई उपाय नहीं है।
मित्रों मन फिर भी पूरी तरह नहीं माना तो एक समझौता हुआ है कि जब मरने का पता ही नहीं तो टेंसन क्यों लेना? जब मरना होगा मरेंगे, इससे डर कर तो जाना भी मुश्किल है अतः मौत से बिना डरे पहले की तरह जीन है। और जो यह सवाल है कि मौत के बाद क्या होगा तो एक दो बार तो पहले भी लगभग जीते जी मरे ही हैं तो इस बार कायदे से होश में रहते हुए अंतिम यात्रा के पहले पिछली मौतों का अनुभव कर लेते हैं, फिर अंतिम निर्णय होगा कि मरना है या नहीं?
आज 95 साल के एक सुल वृद्ध से मिल कर मेरा मनेबल और बढ़ा कि देखिये इनकी हिम्मत? अभी पढ़ते हैं, सीखते हैं, तब लौटते समय याद आया कि हमारे यहां के एक पहलवानजी ने तो संभवतः 95 साल की आयु में शादी ही की थी 85 साल की महिला पहलवान से। अभी मेरी उम्र ही क्या है?
जहां तक याद है 8 साल तक तो किसी के भी मरने की खबर से ही मैं मायूस हो जाता था। मेरे मुख्य प्रशिक्षक, मेरे बाबा (पितामह) को यह बात पसंद नहीं आई। इतना छोटा बच्चा, क्या जानता है मृत्यु के बारे में? उसके बावजूद? डरे, यह उचित नहीं है। इसलिये उन्होंने मृत्यु से मेरे डर को भगाने के अनेक उपाय किये और अंत में मरने की कला भी सिखा गये। पता नहीं मैं ने कितना आत्मसात किया, यह तो मेरे मरने के बाद ही पता चल सकेगा।
12 साल से 54 साल तक मुझे पूरा विश्वास था कि मैं मरने वाला नहीं अतः मौत की परवाह किये बिना अनेक काम किये, दुर्घटनाएं और मेरे ऊपर आक्रमण सालाने रूटीन की तरह रहे लेकिन 50 साल पूरे होते ही एक दिन मैं डरने लगा कि अब तो मेरा नंबर भी देर सबेर आयेगा ही। बहाना बनाने की वैसे भी अपने पास सुविधा नहीं है और यह तो बिलकुल सच है।
मैं ने सोचा कि इस प्रकार भीतर में डर बना रहे तो जीवन कैसे चलेगा? इस मुद्दे पर उन प्राचीन भारतीय मनीषियो को पढ़ना शुरू किया, जो थोथे आदर्शवादी न हो कर उतने ही व्यवहारिक और अनुभवी भी माने जाते हैं। भर्तृहरि इसमें सबसे अच्छे लगे। उनका कथन है- ‘‘विद्या और धन की चिंता तो यूं करे कि कभी मरना ही नहीं है और धर्म का पालन इस तरह करे कि बस अभी तुरत मौत आने ही वाली है। ’’ यह बात दिल को भाई नहीं, इसमें दुहरी और नकली जिंदगी है।
फिर अचानक भीतर से सचाई कौंधी कि अपने आप को किसी भी क्षण मरने के लिये तैयार ही क्यों न कर ली जाये। मेरे पितामह ने किया था तो लगा कि लोग कर तो लेते ही हैं। मेरी पात्रता शायद उतनी नही, फिर भी यह प्रश्न जब भीतर में उठ गया तो क्यों न अभी से तैयारी शुरू कर दी जाये। मुझे 4 साल लगे किसी तरह अपने को मनाने में कि इस सत्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त तो दूसरा कोई उपाय नहीं है।
मित्रों मन फिर भी पूरी तरह नहीं माना तो एक समझौता हुआ है कि जब मरने का पता ही नहीं तो टेंसन क्यों लेना? जब मरना होगा मरेंगे, इससे डर कर तो जाना भी मुश्किल है अतः मौत से बिना डरे पहले की तरह जीन है। और जो यह सवाल है कि मौत के बाद क्या होगा तो एक दो बार तो पहले भी लगभग जीते जी मरे ही हैं तो इस बार कायदे से होश में रहते हुए अंतिम यात्रा के पहले पिछली मौतों का अनुभव कर लेते हैं, फिर अंतिम निर्णय होगा कि मरना है या नहीं?
आज 95 साल के एक सुल वृद्ध से मिल कर मेरा मनेबल और बढ़ा कि देखिये इनकी हिम्मत? अभी पढ़ते हैं, सीखते हैं, तब लौटते समय याद आया कि हमारे यहां के एक पहलवानजी ने तो संभवतः 95 साल की आयु में शादी ही की थी 85 साल की महिला पहलवान से। अभी मेरी उम्र ही क्या है?