जी हां मैं और आप दोनों तांत्रिक हैं
भारत में ज्ञान की धारा के सरलीकरण और जटिलीकरण के पक्ष-विपक्ष में लंबे समय से संघर्ष चल रहा है। सरलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि अगर विषय सरल रहे तो मुझे और मेरे अपने लोगों के साथ अन्य को भी उसका लाभ आसानी से मिल जायेगा। जटिलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि यह विषय इस प्रकार से कहा लिखा और समझाया जाय कि हर जगह पेंच फंसी रहे और कुछ खाश लोगों तक ही उपयोगी बातें सीमित रहें ताकि लाभार्थियों से उसके एवज में अधिकतम लाभ लिया जा सके, वर्चस्व कायम रहे।
तंत्र शब्द और उसका अर्थ इस पेंच में इस तरह उलझा कि रोज अनेक बार अनेक संदर्भों में तंत्र शब्द का प्रयोग करने के बावजूद अगर कोई कहे कि मैं तांत्रिक हूं तो लोग उसे शक की निगाह से देखेंगे और यदि वह दूसरे को कहे कि आप तांत्रिक हैं तो दूसरा पलट कर तुरत खंडन करता है नहीं मुझे तंत्र वंत्र से कोई लेना देना नहीं।।
तंत्र यदि ऐसा भयानक और घृणा के लायक ही है तो लोक तंत्र, राज तंत्र, तंत्रिका तंत्र, स्नायु तंत्र, योग तंत्र, आदि शब्दों का प्रयोग क्यों ? तंत्र शब्द का नाम सुनते ही डरने या घृणा करने की जगह उसे समझने की आवश्यकता है। तंत्र का सीधा और व्यापक अर्थ है- विस्तार, विस्तृत कार्यप्रणाली। कोई भी मूल सूत्र या व्यवस्था जीवन व्यवहार में तभी लागू हो सकेगी जब उसकी कोई कार्यप्रणाली भी हो। यह कार्य प्रणाली ही तो उस सूत्र, सिद्धांत या व्यवस्था का तंत्र अर्थात विस्तार हुआ। उदाहरण के लिये- किसी भी देश में संफल या विफल लोक तंत्र का तब तक कोई वास्तविक मतलब नहीं होता जब जक चुनाव एवं राज्य सत्ता पर सामान्य नागरिकों के नियंत्रण तथा हस्तक्षेप की कार्यप्रणाली का निर्धारण न हो जाय। लोक तंत्र की सफलता सच में तब तक नहीं होगी जब तक आम नागरिकों के मन में अन्य सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों की तुलना में लोक तांत्रिक मूल्यों के प्रति अधिक श्रद्धा और स्वीकार्यता न हो जाय। लोकतंत्र धार्मिक विश्वासों से ऊपर हो।
इसी प्रकार से विभिन्न काल खंडों में भारत के विविधता पूर्ण वातावरण में अनेक प्रकार के सूत्रों, सिद्धांतों एवं तकनीकों को मिला कर सामाजिक-राजनैतिक आवश्यकता के अनुरूप उनके तंत्र अर्थात विस्तृत कार्य प्रणालियां विकसित हुईं। ये कभी भी प्रकृति, समाज और राज्य के निरपेक्ष नहीं रहीं। अंतर इतना रहा कि किसी ने राज्य, किसी ने समाज और किसी ने केवल प्रकृति की व्यवस्था को महत्त्व दिया और अन्य की उपेक्षा की। तंत्र को समझने में चूंकि विस्तृत जानकारी और अध्ययन की आवश्यकता होती है साथ समय तथा क्षेत्र के अंतर को भी समझना होता है अतः लोग तंत्र के अर्थ को ही सीमित कर प्रयोग करने लगते हैं अन्यथा इस प्रकृति, समाज और राजनीति को समझने ओर उसके बीच जीने और खेलने वाले हम सभी तांत्रिक हैं। भाग कर जा कहां सकते हैं? तंत्र शब्द से भी पिंड छुड़ाना आसान नहीं है, अर्थ का हाल तो कह ही दिया।
भारत में ज्ञान की धारा के सरलीकरण और जटिलीकरण के पक्ष-विपक्ष में लंबे समय से संघर्ष चल रहा है। सरलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि अगर विषय सरल रहे तो मुझे और मेरे अपने लोगों के साथ अन्य को भी उसका लाभ आसानी से मिल जायेगा। जटिलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि यह विषय इस प्रकार से कहा लिखा और समझाया जाय कि हर जगह पेंच फंसी रहे और कुछ खाश लोगों तक ही उपयोगी बातें सीमित रहें ताकि लाभार्थियों से उसके एवज में अधिकतम लाभ लिया जा सके, वर्चस्व कायम रहे।
तंत्र शब्द और उसका अर्थ इस पेंच में इस तरह उलझा कि रोज अनेक बार अनेक संदर्भों में तंत्र शब्द का प्रयोग करने के बावजूद अगर कोई कहे कि मैं तांत्रिक हूं तो लोग उसे शक की निगाह से देखेंगे और यदि वह दूसरे को कहे कि आप तांत्रिक हैं तो दूसरा पलट कर तुरत खंडन करता है नहीं मुझे तंत्र वंत्र से कोई लेना देना नहीं।।
तंत्र यदि ऐसा भयानक और घृणा के लायक ही है तो लोक तंत्र, राज तंत्र, तंत्रिका तंत्र, स्नायु तंत्र, योग तंत्र, आदि शब्दों का प्रयोग क्यों ? तंत्र शब्द का नाम सुनते ही डरने या घृणा करने की जगह उसे समझने की आवश्यकता है। तंत्र का सीधा और व्यापक अर्थ है- विस्तार, विस्तृत कार्यप्रणाली। कोई भी मूल सूत्र या व्यवस्था जीवन व्यवहार में तभी लागू हो सकेगी जब उसकी कोई कार्यप्रणाली भी हो। यह कार्य प्रणाली ही तो उस सूत्र, सिद्धांत या व्यवस्था का तंत्र अर्थात विस्तार हुआ। उदाहरण के लिये- किसी भी देश में संफल या विफल लोक तंत्र का तब तक कोई वास्तविक मतलब नहीं होता जब जक चुनाव एवं राज्य सत्ता पर सामान्य नागरिकों के नियंत्रण तथा हस्तक्षेप की कार्यप्रणाली का निर्धारण न हो जाय। लोक तंत्र की सफलता सच में तब तक नहीं होगी जब तक आम नागरिकों के मन में अन्य सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों की तुलना में लोक तांत्रिक मूल्यों के प्रति अधिक श्रद्धा और स्वीकार्यता न हो जाय। लोकतंत्र धार्मिक विश्वासों से ऊपर हो।
इसी प्रकार से विभिन्न काल खंडों में भारत के विविधता पूर्ण वातावरण में अनेक प्रकार के सूत्रों, सिद्धांतों एवं तकनीकों को मिला कर सामाजिक-राजनैतिक आवश्यकता के अनुरूप उनके तंत्र अर्थात विस्तृत कार्य प्रणालियां विकसित हुईं। ये कभी भी प्रकृति, समाज और राज्य के निरपेक्ष नहीं रहीं। अंतर इतना रहा कि किसी ने राज्य, किसी ने समाज और किसी ने केवल प्रकृति की व्यवस्था को महत्त्व दिया और अन्य की उपेक्षा की। तंत्र को समझने में चूंकि विस्तृत जानकारी और अध्ययन की आवश्यकता होती है साथ समय तथा क्षेत्र के अंतर को भी समझना होता है अतः लोग तंत्र के अर्थ को ही सीमित कर प्रयोग करने लगते हैं अन्यथा इस प्रकृति, समाज और राजनीति को समझने ओर उसके बीच जीने और खेलने वाले हम सभी तांत्रिक हैं। भाग कर जा कहां सकते हैं? तंत्र शब्द से भी पिंड छुड़ाना आसान नहीं है, अर्थ का हाल तो कह ही दिया।