रक्षा बंधन का मंत्र
रक्षा बंधन पूरा हो गया, अनेक लोगों ने बंधने-बांधने का काम किया मिठाइयां खाईं। दक्षिणा भी दी गईं। भारत जैसे उत्सवप्रिय देश में सब चलता है। भावना और आस्था पर तर्क नहीं। मैं ने भी राखी बंधवाई, मिठाई ही नहीं बहन के घर पूरा भोजन किया, रक्षा बंधन के मंत्र पर हम लोग खूब हंसे। इसी बहाने कुछ और मंत्रों का भी हाल देखा गया।
वायदे क अनुसार मंत्र का सीधा अर्थ लिख रहा हूं। मेरी जानकारी में मंत्र है-
येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तंन त्वां प्रतिबध्नामि रक्ष मा चल मा चल।
इसका अन्वय और अर्थ हुआ (हिंदी वाक्य रचना के अनुसार शब्दों की सजावट) - येन= जिससे दानवेन्द्रो महाबलः राजा बलिः= दानवों के महाबलशाली राजा बलि बद्धो=बांधा गया था उसी से मैं तुम्हें बांधता/बांधती हूं। रक्षा करना, हिलना मत, बिलकुल मत हिलना।
सीधा अर्थ तो यह हुआ। इसके पीछे की बात पर मतांतर हो सकते हैं। मैं अपनी राय यहां सार्वजनिक करूं तो कुछ लोगों को लगेगा कि गौरवमयी, दैवी संस्कृति जो विशुद्ध वैदिक ही है, उस पर आघात हो रहा है, कुछ को लगेगा कि अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन हो रहा है। इसलिये सीधा सा प्रस्ताव है कि पूरे संदर्भ को जानने के लिये मेरे ब्लाग पर पधारें। दरसल यह देव एवं असुर विचार पद्धति तथा जीवन शैली के संघर्ष एवं वर्चस्व का एक उदाहरण है। ऐसे उदाहरणों की भरमार है। मैं देव या असुर किसी एक का पक्षधर नहीं हूं। भारतीय संस्कृति के विकास में असुरों का योगदान, खाश कर जप, तप, पुरुषार्थ एवं विद्या के विकास में देवताओं से अधिक है। पुण्यात्मा इतने कि किसी देवता के द्वारा उस टक्कर के किये गये एक भी अच्छे कार्य का उदाहरण नही मिलेगा। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को इस प्रसंग से अलग कर विचार करें।
मेरी अपनी मजबूरी है। मैं एक प्रकार से असुर कुल के आराध्य की परंपरा वाला हूं। बाबा भोले नाथ का सिद्धनाथ रूप हमारा कुलाराध्य रूप है। भगवती सिद्धेश्वरी कुल देवी हैं। इनका स्थान बिहार प्रदेश के मगध क्षेत्र की बराबर पहाड़ी है। यह दक्षिण के राजा बलि की तरह लोकप्रिय प्रजापालक बाणासुर की तपो भूमि है, जिसके शीर्ष पर बाबा भोले नाथ का सिद्धनाथ रूप प्रतिष्ठित है। गया के समस्त पिंडदान के पुण्य एवं माहात्म्य का मूल आधार गयासुर का पुण्य शरीर है। जी हां, ये वही बाणासुर हैं, जिनका कृष्ण से महाभारत के बाद युद्ध हुआ था। अपना घर संभलता नहीं तो कभी सांब को बेवजह शाप देते हैं, कभी बाणासुर से युद्ध लड़ने आ जाते हैं। रिश्तेदारी पहले भी थी कंस के यहां, फिर हो गई बाणासुर के यहां, मर्द ने औरत का अपहरण किया तो उचित और अगर औरत मर्द को उड़ा ले जाय और मर्द उससे विवाह करने को तैयार तो अहंकार को चोट लगी। यही कथा है। ऐसे बड़े लोगों की बेवजह लड़ाई में मगध का समझदार ब्राह्मण किनारे रह कर पंचायती कर झगड़ा सलटाये कि मूर्खों की तरह देव पक्ष या दानव पक्ष में हुआं हुआं करता रहे।
मित्रों, भारत कब का कितना विराट हो गया जिसमें देव, असुर, नाग, किन्नर, वानर, यक्ष राक्षस सभी घुलमिल गये और कुछ मित्र अभी भी पता नहीं किस संस्कृति को केवल वैदिक, दैवी वगैरह कहने में लगे हैं।
रक्षा बंधन पूरा हो गया, अनेक लोगों ने बंधने-बांधने का काम किया मिठाइयां खाईं। दक्षिणा भी दी गईं। भारत जैसे उत्सवप्रिय देश में सब चलता है। भावना और आस्था पर तर्क नहीं। मैं ने भी राखी बंधवाई, मिठाई ही नहीं बहन के घर पूरा भोजन किया, रक्षा बंधन के मंत्र पर हम लोग खूब हंसे। इसी बहाने कुछ और मंत्रों का भी हाल देखा गया।
वायदे क अनुसार मंत्र का सीधा अर्थ लिख रहा हूं। मेरी जानकारी में मंत्र है-
येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तंन त्वां प्रतिबध्नामि रक्ष मा चल मा चल।
इसका अन्वय और अर्थ हुआ (हिंदी वाक्य रचना के अनुसार शब्दों की सजावट) - येन= जिससे दानवेन्द्रो महाबलः राजा बलिः= दानवों के महाबलशाली राजा बलि बद्धो=बांधा गया था उसी से मैं तुम्हें बांधता/बांधती हूं। रक्षा करना, हिलना मत, बिलकुल मत हिलना।
सीधा अर्थ तो यह हुआ। इसके पीछे की बात पर मतांतर हो सकते हैं। मैं अपनी राय यहां सार्वजनिक करूं तो कुछ लोगों को लगेगा कि गौरवमयी, दैवी संस्कृति जो विशुद्ध वैदिक ही है, उस पर आघात हो रहा है, कुछ को लगेगा कि अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन हो रहा है। इसलिये सीधा सा प्रस्ताव है कि पूरे संदर्भ को जानने के लिये मेरे ब्लाग पर पधारें। दरसल यह देव एवं असुर विचार पद्धति तथा जीवन शैली के संघर्ष एवं वर्चस्व का एक उदाहरण है। ऐसे उदाहरणों की भरमार है। मैं देव या असुर किसी एक का पक्षधर नहीं हूं। भारतीय संस्कृति के विकास में असुरों का योगदान, खाश कर जप, तप, पुरुषार्थ एवं विद्या के विकास में देवताओं से अधिक है। पुण्यात्मा इतने कि किसी देवता के द्वारा उस टक्कर के किये गये एक भी अच्छे कार्य का उदाहरण नही मिलेगा। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को इस प्रसंग से अलग कर विचार करें।
मेरी अपनी मजबूरी है। मैं एक प्रकार से असुर कुल के आराध्य की परंपरा वाला हूं। बाबा भोले नाथ का सिद्धनाथ रूप हमारा कुलाराध्य रूप है। भगवती सिद्धेश्वरी कुल देवी हैं। इनका स्थान बिहार प्रदेश के मगध क्षेत्र की बराबर पहाड़ी है। यह दक्षिण के राजा बलि की तरह लोकप्रिय प्रजापालक बाणासुर की तपो भूमि है, जिसके शीर्ष पर बाबा भोले नाथ का सिद्धनाथ रूप प्रतिष्ठित है। गया के समस्त पिंडदान के पुण्य एवं माहात्म्य का मूल आधार गयासुर का पुण्य शरीर है। जी हां, ये वही बाणासुर हैं, जिनका कृष्ण से महाभारत के बाद युद्ध हुआ था। अपना घर संभलता नहीं तो कभी सांब को बेवजह शाप देते हैं, कभी बाणासुर से युद्ध लड़ने आ जाते हैं। रिश्तेदारी पहले भी थी कंस के यहां, फिर हो गई बाणासुर के यहां, मर्द ने औरत का अपहरण किया तो उचित और अगर औरत मर्द को उड़ा ले जाय और मर्द उससे विवाह करने को तैयार तो अहंकार को चोट लगी। यही कथा है। ऐसे बड़े लोगों की बेवजह लड़ाई में मगध का समझदार ब्राह्मण किनारे रह कर पंचायती कर झगड़ा सलटाये कि मूर्खों की तरह देव पक्ष या दानव पक्ष में हुआं हुआं करता रहे।
मित्रों, भारत कब का कितना विराट हो गया जिसमें देव, असुर, नाग, किन्नर, वानर, यक्ष राक्षस सभी घुलमिल गये और कुछ मित्र अभी भी पता नहीं किस संस्कृति को केवल वैदिक, दैवी वगैरह कहने में लगे हैं।