विज्ञान की
चोरी
एक समय
अंग्रेजों के जमाने में लंदन के किसी सभागृह में ऐसा चिंतन चल रहा था कि भारत के
लोगों को वैचारिक स्तर पर गुलाम कैसे बनाया जाय ? सवाल का सटीक उत्तर मिला कि भारतीयों को उनके अपने आत्म विश्वास से वंचित
किया जाय कि वे स्वतंत्र रहने के लायक ही नहीं है, वे मूर्ख हैं, उनके पुरखे भी मूर्ख थे और गुलामी ही
बेहतर है। ये सारी बातें अब ब्रिटिश आर्काइव में देखी जा सकती हैं। प्रो. धर्मपाल
जी ने इस मामले में कइ्र किताबें भी लिखी हैं।
जैसे आज
की किसी भी सामग्री को स्थूल रूप में जैसा भी देखें उसे फिजिक्स एवं केमेस्ट्री की
भाषा में समझना हेाता है, मसलन -
अणु-परमाणु की संरचना के रूप में, डी.एन.ए. वगैरह
द्वारा नियंत्रण के रूप में। इसी तरह पहले पंच महाभूत - पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और हवा के योग से बने पदार्थों के रूप में पहचाना जाता
था। सभी पदार्थ आखिर बने तो इन्हीं से हैं, भले ही इनकी मात्रा का कम अधिक होना तथा सजावट में अंतर होता है।
इन पांच
महाभूतों के सूक्ष्मतम रूप को पहचानना, पहचानने
की प्रणाली और साधन को विज्ञान कहते हैं। बौद्ध एवं वेदांत दोनों धाराओं में
विज्ञान एक पुराना पारिभाषिक शब्द है, जिसे समझे
बगैर किसी भी भारतीय शास्त्र को ठीक से समझा नहीं जा सकता ।
विविधता
से भरी भारतीय परंपरा से घृणा करने वाले सभी लोगों ने चाहे वे कट्टर हिन्दुवादी
हों, या कट्टर हिदूं विरोधी हों, धर्मनिरपेक्ष या पश्चिम परश्त हांे सबने मिलकर एक षडयंत्र
किया। मार्क्सवादी सांइंटिस्टों एवं हिंदी लेखकों ने ‘विज्ञान’ शब्द चुरा कर उसे सायंस के
पर्यायवाची के रूप में, हिंदी अनुवादित रूप में खूब प्रयोग
किया-कराया ताकि पुराने ‘विज्ञान’ शब्द एवं उसके अर्थ से ही लोग अपरिचित हो जाएँ। आज की पीढ़ी का
व्यक्ति चाहे वह धर्माचार्य हो या सायंटिस्ट या राजनेता अथवा सामान्य मनुष्य सभी
पुराने विज्ञान शब्द और उसके भारतीय अर्थ को भूल गए। भारतीय शास्त्र एवं संस्कृति
पल्ले पड़े तो कैसे ? अन्नमय, प्राणमय, मनोभय, विज्ञानमय एवं आनंदमय ये पांच
क्रमशः स्थूल शरीर से सूक्ष्म तक के मावन व्यक्तित्व के स्तर (कोश) हैं।
आपको चार स्तर की ही बातें व्यासों एवं धर्माचार्यों से सुनने को मिलेगी, ऐसा क्यों ? विज्ञानमय कोश पर
चर्चा क्यों नहीं क्योंकि ये सभी वक्ता भीतर से गुलाम, पश्चिमी षडयंत्र के मारे हुए, अपनी
परंपरा को केवल कल्पना के स्तर पर जानने-समझने वाले लोग हैं।
उनका
ध्यान ही नहीं जाता कि विज्ञान शब्द की चोरी हो गई तो क्या हुआ? चोरी गया तो विज्ञान शब्द न गया, उसका अर्थ तो शास्त्र और उससे बढ़ कर तन-मन एवं प्रकृति में है। उसे वहीं
से खोज कर फिर से क्यों न स्थापित करें? और भाषा
के स्तर पर रेल, बस, कूकर और कुरियर की तरह सायंस को सायंस कहंे न कि विज्ञान। अब पश्चिम वाले
सायंस को वि = विशिष्ट ज्ञान नहीं मानते उसे सामान्य मानते हैं तो हमें क्या पड़ी
है कि सायंस को ज्ञान एवं सत्य से भी ऊपर मानें। माडर्न सायंस को जो ज्ञात नहीं वह
असत्य कैसे हो जायेगा? हम सत्य के प्रति प्रतिबद्ध हो सकते
हैं न कि किसी देश, परंपरा या ज्ञान की धारा के
प्रति।
भारतीय
विज्ञान की समझ होती तो तब हर पदार्थ के भीतर 5 महाभूतों, 3 गुणों, 3 क्रियात्मक वर्गीकरणों कफ,वात, पित्त को पहचानने की कला सीखने की ओर ध्यान जाता। अब तो
ज्योतिषी, वैद्य, धर्माचार्य सभी विज्ञान को भूलने एवं सायंस को अपना कर माडर्न बनने की होड़
में तमाम अनर्गल बातें किये जा रहे हैं।
दरअसल यह
हमारी ही दुविधा है, जिसका हम दंड भोग रहे हैं। परा-अपरा
रूप में सत्य का वर्गीकरण की जगह उसका विभाजन कर लिया है। अंतर तो पात्रता
(मसपहपइपसपजल) भेद से एवं ज्ञानी की अवस्था के भेद से होता है। परा विद्या या अपरा
विद्या में कोई मौलिक अंतर नहीं हेाता, न ही
ज्ञान या विज्ञान में, चाहे वह पारंपरिक भारतीय विज्ञान हो
या सायंस का अनुवाद अनुवाद वाला विज्ञान शब्द।