गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

देशी अर्थशास्त्र - मुद्रा एवं माया

देशी अर्थशास्त्र - मुद्रा एवं माया
मुद्रा माया का प्रगट रूप है। माया मतलब न पूरी तरह झूठ, न पूरी तरह सच। कब धोखा दे दे, क्या पता? दिखाई-सुनाई कुछ पड़े और सच में तो कुछ और हो। मुद्रा की यही हालात है। अंग्रेजी में मनी और करेंसी कहते हैं। भारत में मुद्रा। भारत में मुद्रा कहने का मतलब तो मुझे पता है। करेंसी क्यों कहते हैं या नोट क्यों कहते हैं ठीक से नहीं पता। शायद नोट मतलब कोई छोटी लिखा पढ़ी हो, इसलिए नोट कहते हैं। रिर्जव बैंक के गवर्नर साहब एक नोट लिखते हैं - छोटी हुंडी कि मैं इतने रुपए दूँगा। आजकल लोग नोट ही देखते हैं, चेक, ड्राफ्ट वगैरह अंग्रेजी नाम वाले प्रकार भी कुछ लोगों को पता है। यह सब हुंडी और उसके मूल सिद्धांत पर विकसित है।
पहले तो ऐसा था कि मुद्रा कि जिम्मेवारी राजा पर और हुंडी की जिम्मेवारी सेठ पर होती थी। सेठ मतलब ऐसा धनी, जिसके यहाँ नगद भी पर्याप्त रहता हो। हुंडी का अविष्कार रास्ते में नगदी लूटे जाने के भय से और धातु की मुद्रा की भार से बचने के लिए किया गया था।
जिस किसी प्रकार से राजा के द्वारा अपनी पहचान वाली आकृति उकेरनी पड़ती थी, उस पक्की पहचान को मुद्रा कहते हैं। राजा, मंत्री से लेकर हर बड़े जिम्मेवार आदमी की शासकीय मुद्रा होती थी। इसे मुहर भी कहते हैं। इस प्रकार मुद्रा, मुहर, नोट वगैरह आए। करेंसी का खेल अलग है, उस पर दूसरी किश्त में।
इस व्यवहार में राजा एवं सेठ की क्षमता तथा विश्वसनीयता ही मूल बात है। दोनों में से कोई भी दीवालिया या धोखेबाज हो जाए तो मुद्रा का कोई मतलब नहीं क्योंकि ये मांगने पर देंगे ही नहीं। सेठ दीवालिया हो सकता है लेकिन राजा नहीं क्योंकि वह संप्रभु है, उसका राज्य की पूरी संपत्ति पर हक है, केवल राजकोश पर ही नहीं अतः उसके दीवालिया होने का प्रश्न ही नहीं। आज भी सेठ, निगम, वगैरह दीवालिया हो जाते हैं, ऐसे में किसी भी रूप में लिखी गई हंुडी, जैसे- नोट, चेक, डॉªफ्ट वगैरह बेकार। कुछ हुंडिया त्रिपक्षीय होती हैं, जैसे- ड्राफ्ट, बैंकर्स चेक वगैरह इसलिए मजबूत बिचौलिए की व्यवस्था रहती है, जैसे- बैंक।
खैर तो फिर आएं माया पर। आज का कागजी नोट, सिक्के धातुवाले ये सच्चे हैं या झूठे? अचानक झूठे कैसे हो गए? इन्हें मानने की मजबूरी क्या है? कैसे बचें इनकी जाल से? ऐसे अनेक प्रश्न हमारे मन में आते हैं।
कोई अनपढ हो तो उसकी मजबूरी है ही। थोड़ा बहुत पढ़े-लिखे भी फंसते ही हैं और आधुनिकता की अंधी नकल करने वाले बिरले ही बचते हैं वे पूरी तरह फंसते हैं। तब कौन नहीं फसता? पहला, जो इस माया के खेल का आयोजक होता है और दूसरा वह चालाक, जो खेल की बारीकी को भांप कर वख्त पर विदा ले लेता है, पहला है मायापति दूसरा मायावी। इस माया से बचने का उपाय है- माया को जान लेना, असली और मोटे तौर पर। तब उसका बंधन कमजोर रहेगा, तब उसे तोड़ सकेंगे।
सोना-चाँदी या अन्य कोई भी कीमती धातु अथवा जमीन जायदाद को भी लोग माया कहते हैं। उसका मतलब होता है कि व्यक्ति विशेष उस पर कब तक कब्जा रख सकता है और क्या उपयोग कर सकता है, भले ही वह अपने को मालिक समझता हो। जबरन नियंत्रण, दूसरे को वंचित रखने के निजी एवं व्यवस्थागत-कानून-समस्या से संरक्षित बल पर निर्भर होता है। राजा, चोर, लुटेरा, धोखेबाज एवं दुर्घटना नियंत्रण के विघ्न हैं और तन-मन की भोग क्षमता का घटते जाना भोग में निजी विघ्न है। इसलिए सभी धनों को माया या अन्य प्रकार से संदेहस्पद बताया गया। मुद्रा का मामला इससे बिल्कुल अलग है, वह अपने स्वरूप में ही माया है।
सीधा केन्द्रीय मामला है कि मुद्रा मूल्य पर आधारित है। पहले वस्तु के मूल्य में हेराफेरी होती थी, मुद्रा विनिमय का माध्यम थी, सोने-चाँदी के रूप में, सोना-चाँदी का भंडार बनाकर उसके समानुपाती नोट/सिक्का छाप कर। इसके बाद जैसे ही कागज की हुंडी आई-नोट के रूप में सरकार के द्वारा जारी या अन्य व्यक्तियों अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा, मुद्रा राजा, बाजार एवं व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर हो गई। ऐसी स्थिति इसलिए बन पाती है क्योंकि हुंडी हर किसी भी मुद्रा के अभाव में अन्य संपत्तियों के बल पर उनके मूल्य से कम या बराबर सीमा में जायज तौर पर और केवल साख या संभावना के बल पर नाजायज तौर पर वास्तविक मुद्रा से हजारों गुना अधिक मात्रा में विनिमय के माध्यम के रूप में काम करती रहती है।
जब तक नगद भुगतान की स्थिति न आ जाए तब तक जाँच ही कैसे हो? इस प्रकार केवल मूल्य और विश्वास पर अर्थव्यवस्था चलती रहती है। ऐसी स्थिति अनेक लोगों के बीच निरंतर गतिशील अवस्था में बनी रहती है अतः राज्य या उसकी नियामक एंजेंसियों के नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
जैसे ही हम नगदी रहित व्यवस्था की ओर बढ़ते हैं तो ध्यान में रखें कि ईमानदार हुंडी हुडी लेखक की संपूर्ण संपत्ति के बराबर तक जारी की जा सकती है और बेईमान हुंडी या संभावना आधारित हुंडी तो अनंत तक लिखी जा सकती है। संपत्ति की सीमा में साख, संभावना, बौद्धिक संपत्ति, पेटेंट अधिकार, व्याज, मुनाफा आदि को रखते ही संपत्ति की सीमा बहुत बढ़ जाती है और कोई भी व्यक्ति ऐसी संपत्ति के आधार पर दीवानी व्यवहार तो करता ही है, उस आधार पर हुंडी भी लिख सकता है। जब सबकुछ केवल डिजिटल रहे तो देनदारी-लेनदारी केवल अभासी रहेगी। यह माया नहीं तो क्या है?
आजकल बेईमानी आधारित कई व्यावसायिक संस्थाओं के स्वरूप बने हैं, जिसमें उसके अंशधारक लाभ के लिए तो हकदार होते हैं घाटा होने पर क्षतिपूर्ति के लिए जिम्मेवार नहीं होते। माना कि 5000 धनराशि और 1000 शेयर वाली 100 लोगों की एक कंपनी है। वह उन व्यक्तियों से अलग एक व्यक्ति हो जाती है। उससे कारोबार शुरू हुआ। इसने 2000 रूपए का कर्ज भी ले लिया। इसे 5000 का शुद्ध लाभ हो गया। वह लाभ तो शेयर धारकों को मिल जाएगा लेकिन यदि 10000 का घाटा हो जाए तो क्या 5000 की कुल संपत्ति के बाद शेयर धारकों से उनकी निजी संचित संपत्ति से क्षतिपूर्ति की जाती है? या सभी शेयर धारकों को दीवालिया घोषित किया जाता है? मुझे अपने देश की किसी ऐसी घटना का पता नहीं है। यहां यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं बड़ी पब्लिक कंपनियों के संदर्भ में कह रहा हूँ।
समाज जब ऐसी खुली बेईमानी/चालाकियों को स्वीकार करता हो, उसमें सारी अर्थव्यवस्था ही अनिश्चय, संभावना और अनियंत्रण का शिकार हो जाती है।
इसे आगे बढ़ाने को सरकार तथा बाजार दोनों की भूमिका होती है। ये दोनों अपने कपटी मायावी आचरण को सही साबित करने के लिए अजीबोगरीब मापदंड बनाते हैं और अर्धसत्य आधारित जटिलतम जाल बुना जाता है। इसे बुनने समझने वाले अर्थशास्त्री और संेधमार दोनों भारी लाभांश हड़पते हैं। एक दूसरे को जनता के हितों का दुश्मन और अपने को मित्र बताते हैं। यह सब चलता रहता है लेकिन ये मायावी लोग अर्थव्यवस्था के भीतरी बेईमानियों के विरूद्ध नहीं बोलते हैं कि -
1. क्यों मुद्रा सीधे सोने-चाँदी की ही क्यों न कर दी जाए ?
2. सापेक्ष अवमूल्यन क्यों न कर दिया जाए, जैसे 1000 = 1 रुपया, 1 रुपया = 10 पैसे, नोट तो ऐसे भी कम हो जाएगा, फिर सोने-चाँदी रहने दे। न रहे मुद्रा, न बने नकली। कम से कम बड़ें नोट तो वैसे ही रहे।
3. छोट सिक्कों का मिला नहीं कारोबार पहले भी होता था आज भी हो सकता है लेकिन उससे उतनी क्षति नहीं होती ।
इसे और गहराई तथा विस्तार में जाने के लिए विनिमय, मूल्य, आश्वासन, लाभ-हानि के सिद्धांतों का विखंडन, गैरजिम्मेदारना कृत्रिम आर्थिक व्यक्तित्व, घाटे की अर्थव्यवस्था, स्थिर मुद्रा, मुद्रार्स्फीति आदि आज के जमाने की बात को तो समझना ही पड़ेगा। इन सारी धोखेबाजियों के बीच पिसती हुए भारतीय आम उत्पादक जनता हजारों साल से अपना बचाव कैसे करती है, कैसे जीती है, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। मैंने अर्थव्यवस्था संबंधी ऐसे ही भारतीय विभिन्न मानकों तथा समझ तथा लाचार पर आधारित एक पुस्तक तैयार करने का यह प्रयास है। पहले इसे टुकड़ों में ब्लाग पर प्रस्तुत किया जायेगा फिर जरूरी होने पर प्रकाषित भी किया जा सकता है।
भारत सदियों से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कर रहा है और रत्न, सोने आदि को संचय भी करता रहा  है। लुटेरे आक्रमण कर लूटते रहे हैं, फिर भी हमारा स्वर्ण भंडार खाली नहंीं होता क्योंक हम कुछ न कुछ निरंतर बेंच कर स्वर्ण खरीदते रहते हैं क्योंकि अनुभवी शिल्पी और व्यापारियों वाला यह देश जानता है कि सोना अन्य की तुलना में सर्वाधिक मान्य तथा मुसीबत में भरोसे वाला है। भारत में पहले दो पर ही भरोसा किया जाता था- गाय और सोना।
आशा है अपने देश के मन और धन को समझने में मेरे इस प्रयास से कुछ न कुछ सुविधा जरूर होगी।
रवीन्द्र पाठक


रविवार, 4 दिसंबर 2016

देशी अर्थशास्त्र को समझने की मेरी मजबूरी

देशी अर्थशास्त्र 2
देशी अर्थशास्त्र को समझने की मेरी मजबूरी 
देशी अर्थशास्त्र, अर्थव्यवस्था और उसकी समझ तथा उसके प्रति विश्वास पारंपरिक है, न कि यह कोई अतीतकालीन बात है। मेरा गांव किसी भी नगर पालिका से कम से कम 40 की.मी. की दूरी पर एक नदी के किनारे बसा हुआ, जमाने से व्यावसायिक गतिविधियों वाला देहाती गांव है। मैं ऐ से ही गांव के एक किसान परिवार में पैदा हुआ, जो ग्रामीण स्तर पर खेती के साथ-साथ चिकित्सा, अध्ययन-अध्यापन, एवं ब्राह्मण जातियों में प्रचलित अन्य कार्यों के साथ राजनीति तथा समाज सेवा में भी लगा रहा। मेरे गांव में लगभग 19 जातियां हैं, 2 धर्म तथा कई हिन्दू संप्रदायों के लोग। इसलिए मुझे विविधता सहज उपलब्ध हो गई। साथ ही पारंपरिक व्यवसायों के किस्से एवं उनके दुख-दर्द भी मालूम होते रहे।
एक उठापटक वाले मध्यम वर्गीय परिवार में होने के कारण हम लोगों ने खेती भी की है और एक समय में अपने प्रकार का सफल किसान भी रहा हूं। स्नातकोत्तर के बाद एक बार दिल लगा कर खेती की और पर्याप्त उत्पादन के बाद भी उसमें होने वाले लगातार घाटे को समझ पाने की तलाश में सफल-विफल किसानों से ले कर कई धारा के किसान नेताओं, पत्रकारों, आढ़तियों एवं कालेज के प्रोफसरों से समझने की कोशिश करता रहा। इस बीच कई बार कोई फार्मूला मिलते ही प्रफुल्लित हो जाता और अपने घर परिवार में  अभिभावकों को उसका माहात्म्य भी सुनाता। मुझसे मेरी पिछली पीढ़ी के लोग केवल इस तर्क के साथ असहमत हो जाते कि अपने गांव या उसके आस-पास क्या किसी ने ऐसा किया है, जो हम करें?
इस क्रम में जब मेरे समय के नए जमाने के प्रसिद्ध किसान नेता, जो अब पुराने जमाने वाले हो गए श्री शरद जोशी की किताब पढ़ी तब यह पता चला कि भारत में किसान और उनके परिवार के लोग दिनानुदिन गरीब क्यों होते जा रहे हैं। मेरे पिता जी अब केवल कथाशेष चीनी मिलों में किसानों के बकाए का मुकदमा लड़ रहे थे, जो वे जीत कर भी हार गये। भुगतान तो नहीं का नहीं ही हुआ।
चाहे चावल का थोक व्यापार हो या लकड़ी, बांस का या धातु का अथवा दवा बनाने के लिए कच्चे सामान का, चाहे वह मछुआरों की सहयोग समिति का मामाला हो या नाविकों के संगठन का, अथवा किसान सहयोग समिति पर माफियागिरी एवं जातीय वर्चस्व स्थापित करने का, सारे अंदरूनी किस्से चाहे-अनचाहे सुनता रहा। प्रेस चलाया, प्रकाशन का व्यवसाय किया, लघु पत्रकारिता की। यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यह स्वयं भोगा हुआ या भोगे हुए अपने स्वजनों, परिजनों के अनुभव पर आधारित है, किसी एक किताब की पीएच.डी. वाली थीसिस का कोई अंश नहीं है। समझने की उलझनें जब बढ़ीं तो पूरे मघ्य भारत के विभिन्न प्रायोगिक केन्द्रों का दौरा भी किया और समझने की कोशिश की। खादी, ग्रोद्योग के प्रयोग, सरकारी असरकारी, बिना कमीशन मिशन वाली खादी से मोदीब्रांड खादी समझने के लिए, महाराष्ट्र-गुजरात भी गया। दक्षिण के रेशमपालक गांवों की यात्रा की। बहुत थोड़ा लेकिल हिमालय के कुछ गांवों में भी गया।
सवाल यह हो सकता है कि इतना सब होने के बाद तो मुझे भारत के आधुनिक आर्थिक प्रयोगों  के पक्ष-विपक्ष पर लिखना चाहिए था। मैं देशी अर्थ शास्त्र को ले कर क्यों लिखने बैठ गया? इस पर खुलाशा अगले पोस्ट में।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

देशी अर्थशास्त्र

परंपरा
आज अर्थ शास्त्र शब्द से जो मतलब निकला जाता है, वह है-आदम स्मिथ वाला पाश्चात्य अर्थशास्त्र, जो इकोनोमिक्स का तर्जुमा है। इससे एक सर्वथा झूठी समझ बनी है कि इस इकोनोमिक्स के पहले भारत में न अर्थशास्त्र था, न वैसी कोई गहरी समझ या व्यवस्था थी। यह समझ एक ओर अपने समाज एवं परंपरा के प्रति हिकारत का भाव विकसित करती है तो दूसरी ओर यह उलझन भी पैदा करती है कि भारतीय समाज की न केवल पुरानी बल्कि कई आधुनिक गतिविधियां भी आध्ुनिक दृष्टि से समझ में नहीं आतीं। उदाहरण के लिए गाय या भैंस को पालने की सामाजिक स्वीकृति के बाद भी कुछ जातियों को दूध बेंचने की छूट थी और कुछ को नहीं, जबकि दूध बेंचने से प्रतिबंधित जातियां प्रभावशाली और खेती-पशुपालन का रोजगार करने वाली जातियां हैं। 
आधुनिक शिक्षा में जब इकोनोमिक्स का इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें अपवाद स्वरूप भले ही बताया जाता हो कि भारत में भी अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक गतिविधियों पर गहन चिंतन एवं उन्हें नियंत्रित करने का काम हुआ है, उसे इकोनोमिक्स के इतिहास में स्थान नहीं दिया जाता क्योंकि ऐसा करने पर तो प्रचलित सारी धारणाएं ही भरभरा कर बिखर जाएंगी और इस अहंकार की तुष्टि संभव नहीं होगी कि योरप ही भौतिक ज्ञान का एक मात्र स्रोत और केन्द्र रहा है, भारत ने भले ही अध्यात्म के क्षेत्र में कुछ किया हो। ना ही इस बात का आधार बन सकेगा कि योरोपीय इकोनोमिक्स पढ़ने वालों को बड़ा पद और ऊंची तनख्वाह मिलनी चाहिए।
इस बेईमानी के कारण योरप प्रभावित आज के अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न भी पैदा नहीं होता कि आखिर उत्तर भारत के मौर्य वंश एवं दक्षिण के चोल-चालुक्य जैसे बड़े राज्यों के समय बिना किसी शास्त्र या सिद्धांत के राजकीय और सामाजिक व्यवस्था चलती कैसे होगी? एक अजीब सा झूठा मुहावरा चलाया गया है कि ‘भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है’ और उससे आगे बढ़ कर बात पीछे कहा जाता है कि ‘भारत की ग्रामीण आबादी का 70 या 80 प्रतिशत भाग केवल खेती का काम करता रहा है।’ यदि इसे ही सच मान लिया जाए तो भारत पर लगातार आक्रमण करने वाले लुटेरे क्या अनाज लूटने या जानवर लूटने आते थे? पुराने खंडहर एवं इतिहास के अन्य स्रोतों से क्या लोहा, लकड़ी या अन्य धातु से बनी कोई सामग्री नहीं मिली? यहां के लोग कपड़ा नहीं पहनते थे या चिकित्सा का कोई शास्त्र यहां नहीं था? यहां के बड़े व्यापारी क्या बेंचने दूरदूर तक जाते थे? इतनी बड़ी मात्रा में सोना बार बार इकट्ठा कैसे हो जाता था? ऐसे अनेक प्रश्नों का कोई उत्तर आपको आधुनिक इकोनोमिक्स पढ़ने वाले नहीं दे पायेंगे। छोडि़ए पुरानी बातों को कुछ देर के लिए एक हाल-फिलहाल वाला सवाल है कि जब पश्चिम भयावह मंदी की चपेट में आया उस समय भारत में ऐसा क्या था कि यहां के बाजार पर उसका कोई खाश असर नहीं हुआ? सवाल बहुत सारे हैं।
केवल राज्य के साथ मिल कर या कारपोरेट लूट के अंग के रूप में व्यापार या नौकरी नहीं करनी हो, भारत के लोगों के हित में आर्थिक चिंतन या गतिविधि करनी हो और इन प्रश्नों का यदि उत्तर पाना हो तो देशी अर्थ शास्त्र को समझना ही होगा। आप यदि पूर्णतः शहरी हैं तो अपनी पूर्व धारणा को छोड़ देशी सत्य के लिए उदार बनना होगा और यदि आप देहाती क्षेत्र के हैं तो अपने बचपन से वर्तमान तक में एक क्रमबद्ध स्मृति यात्रा करते ही अनेक बातें सरलता से समझ में आने लगेंगी। उस आधार पर अपनी पिछिली पीढि़यों की स्थिति का भी आप अंदाजा आसानी से लगाकर परंपरा की परिवर्तनशील निरंतरता को सहज समझ सकेगे। 
इस क्रम में भारत की खाशियत विविधता एवं उसमें एकता को तो देखना पहचानना ही होगा। यह एैसा विषय है कि आप नहीं कह सकते कि आप इसे परिचित नहीं है या इसकी आपको कोई जरूरत नहीं है। उलटे आप भी रोजमर्रे में इसकी समस्या से जूझते-जुझाते, कुंढते-हंसते या अपनी चालाकी पर मंद-मंद मुस्कराते हुए अथवा अट्टाहास करते हुए जीते हैं। 
मैं अपने पश्चिम प्रेमी वामपंथी और दक्षिण पंथी दोनो प्रकार के मित्रों से उनके इस प्रचार के विरुद्ध जाने के लिए क्षमा भी नहीं मांग सकता कि भारत में तो कोई ज्ञान-चिंतन कभी था ही नहीं, न आज की समस्याओं की व्याख्या करने की उसमें क्षमता है, फिर भला समाधान कैसे मिलेगा? सच यह है कि आपने तो यह शब्दिक पाखंड ही इसलिए किया ताकि हमारी विशाल ज्ञान राशि और वांग्मय में आपके मौलिक होने का दावा ही न डूब जाए। कई अन्य कारण भी हैं, फिलहाल हम रुकेंगे। 
इसके लिए भारतीय आर्थिक चिंतन-ज्ञान परंपरा में एक यायावरी करते हैं और देखते हैं कि कहां क्या मिल जाता है और किसके काम का, उसमें से क्या निकलता है? आप साथ देंगे तो मेरी यात्रा का एकांत मुझे कम सतायेगा। 
आप लोगों से पूर्णतः भिन्न मुझमें ऐसी कोई मौलिकता नहीं है जो कुछ नया कहने की औकात दे सके। इसीलिए मुझे अपने पर भरोसा है कि इस कथा में कुछ न कुछ आपके लिए भी अपना कहने-समझने के लायक जरूर मिलेगा।
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