गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

हाय रे! दक्षिण/वामपंथी विद्वान


धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और इन्हे देने वाले विज्ञान पांचांे शब्दों तथा उनके शास्त्र का नाम ही ये चबा गये। कहने को तो सभी अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं लेकिन केवल अंग्रजी में या केवल संस्कृत में लिखने-पढ़ने वाले तथा स्ययंभू या अंगरेजियत समर्थित विद्वानों ने तो अपनी अक्ल ही कब की बेंच दी। अंगरेजों ने योजना बना कर पहले भारत के बुद्धिजीवियों को गुमराह करने का काम किया। 
इसके लिये उन्होंने बहु आयामी योजना बनाई और गुमराह किया। रोना यह कि धुर वामपंथी और धुर दक्षिण पंथी, संघी और कम्यूनिस्ट दोनो की समझ एक जैसी है। दोनों ही यूरोपीय समझ को प्रमाण एवं आदर्श मानते हैं। इसलिये जब भारतीय समाज संस्कृति को सीधे तौर पर मार्ग दर्शन करने वाले शास्त्रों के अस्तित्व को ही नकारने का षडयंत्र होने लगा तो ये दोनों ही उन्हीं के सुर में सुर मिलाने लगे। शिक्षा के पाठ्यक्रमों से इन्हें निकाल दिया गया। 
जो बचा वह कुल परंपरा के आधार पर क्योंकि अनेक लोगों की रोजी-रोटी उसी से चल रही थी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अपवाद छोड़ दें तो अब कर्मकांडी ‘‘धर्म शास्त्र’’ शब्द का अर्थ नहीं जानते, ‘‘अर्थ शास्त्र’’  नाम से ज्ञान की कोई व्यवस्थित धारा होगी, जो राज्य एवं समाज की आर्थिक गतिविधियों को मर्यादित करती होगी, यह लोग सोचते ही नहीं। भारत में ‘‘अर्थ शास्त्र’’ का मतलब आदम स्मिथ वाला और उसके बाद वाला इकोनोमिक्स ही लिया जाता है। ‘‘काम’’ जी हां, सेक्स से भारतीय समाज को कोई समस्या नहीं रही। यहां अनेक प्रकार के विवाह और जीवन शैलियां रही हैं तो स्वाभाविक है कि इस क्षेत्र को भी व्यवस्थित तथा मर्यादित करने के लिये शास्त्र रचा गया होगा, जी हां, इस शास्त्र की भी लंबी चौड़ी पंरपरा है। रहा बचा ‘‘मोक्ष’’ इसके अर्थ को भी बदलने के लिये पुर जोर ताकत लगाई गई और वामपंथी अभी भी लगा रहे हैं लेकिन रामकृष्ण परंमहंस जैसे अनेक महान लोगों ने इसे बचा लिया।
आम आदमी के वास्तविक जीवन जहां समाज एवं राज्य द्वारा दंड एवं पुरस्कार की व्यवस्था हो वैसे जीवन जीने के लिये जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा इनके विज्ञान का शास़्त्र फिर है क्या? धर्म के लिये न गीता है, न महाभारत, न वेद न उपनिषद, इसके लिये हैं- धर्म सूत्र, गृह्य सूत्र, स्मृतियां, उनकी व्याख्याएं और उन पर आधारित विभिन्न नव्य स्मृति ग्रंथ, उसके बाद की किताबों को निबंध ग्रंथ और निर्णय ग्रंथ कहा जाता है। अर्थ मतलब आजीविका तथा राज्य के कर/शुल्क आदि को बताने वाला शास्त्र है- अर्थशास़्त्र। आज केवल चाणक्य के अर्थ शास्त्र की बात होती है जबकि चाणक्य के पहले और बाद में भी यह परंपरा रही। काम शास्त्र के नाम पर केवल वात्सायन का काम सूत्र ही नहीं है, वह तो केवल राजाओं, सेठों और सामंतों के व्यभिचार विद्या का शास्त्र है। कुट्टनीमतम एवं अन्य अनेक ग्रथ भी है जो वेश्यागामी होने से बचाने के लिये लिखे गये हैं। सबसे मूल्यवान विज्ञान की चोरी पर तो मैं पहले ही लिख चुका हूं। मोक्ष जहां पूर्णतः दुख से मुक्ति और असीम सुख के बड़े अर्थ में लिया गया उसे, वामपंथी राजनैतिक मुक्ति तक सीमित करना चाहते हैं। धर्म को राजनीति और सत्ता पर कब्जा का प्रबल हथियार मानने वाले बेचारे अंबेदकर जी एवं उनके अनुयायी इस षडयंत्र के सबसे बड़े शिकार हुए।
अगले किश्त में जारी........... ‘‘इंडोलोजी और रायशुमारी का चक्रव्यूह’’

आषाढ़ी संवत्सर

आषाढ़ी संवत्सर
भारत में अनेक संवत्सर मनाये जाते हैं। मकर संक्रांति आधारित, और राजा विक्रमादित्य वाला सबसे प्रचलित है। लेकिन इससे लोक व्यवहार नहीं चलता, खाश कर हिंदी पट्टी में। 31 मार्च गया, 1 अप्रैल भी अतः मैं मजाक नहीं कर रहा, तब आखिर हमारा पारंपरिक व्यावहारिक संवत्सर क्या है? व्यावहारिक ममतलब लेन देन खेती गृहस्थी, मजदूरी तनख्वाह वाली। ये सब काम विक्रम संवत्सर से नहीं होते। मैं सवाल पूछ कर ज्ञान की अभिवृद्धि में आपकी सहभागिता को सादर स्वीकार करता हूं और कुछ नई जानकारियों को इकट्ठा भी करता हूं।
हमारे यहां खेत की बंदोबश्ती आषाढ़ में होती है। भूइयां, मुसहर की एक पूजा आषाढ़ी पूजा होती है। कर्ज वापसी, लेनदेन, नये खेतीहर मजदूर की नियुक्ति वगैरह सब आषाढ़ में। मार्च से इसका रिश्ता नहीं, वह अंगरेजी सरकार वाला है। पता नहीं क्यों ? वित्तीय वर्ष को 2 सालों में फंसा कर रखा गया है। वह भी 1ली जनवरी से 31 दिसंबर तक का होता तो क्या संकट आता?
मेरे मन में सवाल है कि आषाढ़ में क्यों? क्या इसका कोई पुराना आधार है या कुछ और? इतना ही नहीं पहले क्या कर सूद आदि की गणना इसी प्रकार कुल दिवसों की संख्या के हिसाब से भिन्न संवत्सरों से की जाती होगी तब तो गिनती में काफी दिक्कत आती होगी? या साल के दिनों का कोई व्यावहारिक मानक होगा?
ज्योतिष एवं भारतीय समाज के अन्य पक्षों के जानकार एवं इतिहासज्ञ कुछ इस बात पर प्रकाश डालें तो अच्छा लगेगा।