रविवार, 14 दिसंबर 2014

भारतीय साधना धारा का इतिहास

भारतीय साधना धारा का इतिहास किसने लिखा?
भारत को अध्यात्म प्रधान, अनेक प्रकार की साधना करने वाला देश कहा जाता है। इसके विपरीत अलेक लोग इसे पूरी तरह झूठ और ठगी बताते हैं। संस्कार की दुहाई देने वाले संघी भी 16 संस्कारों को न सही जन्म एवं मृत्यु संबंधी संस्कारों को भी मान्यता नहीं देते। भारत की साधना और संस्कार के गौरव का गान अनेक लोग करते रहते हैं लेकिन दोनो प्रकार के अतिवादियों में से किसी को फुर्सत नहीं लगी कि भारतीय साधना परंपराओं के बारे में कहीं एकत्र सूचनाएं संकलित की जायें।
महामना मालवीय जी ने यह काम महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज जी को सौंपा। उन्होंने किताबें लिखीं तो लेकिन बंगला में। बाद में इस काम को सुलभ बनाया गया के पं. हंस कुमार तिवारी ने। उन्होंने पंडित गोपीनाथ कविराज जी की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया। ये सारी पुस्तकें बिहार राष्ट्र भाषा परिषद, पटना से छपीं। अभी भी प्रतियां बहुत सस्ते में उपलब्ध हैं। सच्चे भारतप्रेमियों के लेखन एवं उनकी आवाज को अतिवादियों ने दबा दिया क्योंकि इनके स्वार्थी और लड़ाकू गुट नहीं बने न ही सरकारी संरक्षक मिले। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौर के प्रभाव के सिमटने के साथ यह धारा भी संभवतः लुप्त या समाप्त हो गई।

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह 3


सवाल कई हैं, जिनकी उपेक्षा की गई। भारत जब सोने की चिडि़या थी तो किस रूप में? क्या सच में केवल कृषिप्रधान समाज इतना सुखी और धनी था? क्या यहां शिल्पों/कारीगरी का विकास नहीं हुआ था? यदि हां, तो कैसा? किस रूप में? धर्म भारतीय जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा तो फिर क्या गुलामी के अतिरिक्त और उसके पूर्व यह भीतरी और बाहरी कारणों से प्रभावित नहीं रहा? यदि हां तो कैसे? हजार साल से अधिक पुराना बौद्ध धर्म भारत से खाशकर अपने पुराने आधार क्षेत्र से कैसे गायब हो गया? कोई न कोई प्रक्रिया तो बनी होगी? क्या किसी कत्लेआम की कोई सूचना मिलती है।
ऐसे प्रश्नों से आधुनिक इतिहास लेखन भागता रहा है। एक मूर्खतापूर्ण काहिलाना तर्क ढूंढ लिया गया कि गुलामी के दौरान सब समाप्त हो गया। या तो गुलामी के पहले का पूछिये या बाद का। सच यह है कि इन इतिहासकारों को समाज एवं सत्य से कोई लेना देना नहीं? मैं आये दिन इनके कुतर्कों से दुखी होता हूं। इनके निष्कर्ष प्रायः शोध के पहले ही धारणाओं के आधार पर तय किये जाते हैं। फिर सूचनाओं को उसी हिसाब से सजा दिया जाता है। वामपंथी इस तरह सजाते हैं कि सामंतवादी अत्याचार उत्पीड़न का बिंब निकले, समाजवादी वर्ग संधर्ष की जगह हर बात में वर्ण संघर्ष खोजते हैं। भाजपाइयों/संघियों ने रामराज्य पकड़ लिया है।
10 वीं शताब्दी ई के बाद पालकालीन घटनाओं, सिद्धों के प्रयास, भारतीय शिल्प शास्त्र का विकास, चिकित्सा शास्त्र की विविधता, पुराण आंदोलन, भक्ति आंदोलन पर तो आपको सामग्री इतिहास में मिलेगी ही नहीं क्योंकि संास्कृतिक इतिहास की ओर कौन सोचे? उसके लिये तो समाज में जाना होगा और समाज अपने ढंग से विकसित हुआ न कि मार्क्सवादियों या संघियों के हुक्म से।
राहुल सांकृत्यायन जैसा बौद्ध शास्त्रों के बारे में सफेद झूठ लिखने वाला नहीं मिलेगा। इसलिये पढ़े-लिखे बौद्ध भी उनकी स्थापना को प्रमाण नहीं मानते। जो पुस्तकें उन्होने ला कर दीं उनका बहुत महत्त्व है। तंत्र शास्त्र और परंपरा आम आदमी से जुड़ कर चली। यह न संस्कृत पंडितों को मान्य है न लामाओं को। मैं ने जब सीधे-सीधे पुस्तकें खोल कर उनके सामने रखीं तो सभी ने मुझे चुप रहने को कहा कि आम आदमी को सच न बताया जाय। मैं क्यों चुप रहूं? मुझे कोई पसंद करे या न करे, जिज्ञासु होगा तो तथ्यों को मिलायेगा। इसके बाद मुझे कुछ कहे की जरूरत ही नहीं।

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह 2

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह 2
भारतीय इतिहास लेखन को मेरी जानकारी में निम्न प्रकार से प्रभावित किया गया--
1 यूरोपीय शैली के विद्वान भारत को मूर्ख और अविकसित लोगों का देश साबित करना चाहते हैं ताकि यह स्थापित किया जा सके कि भारतीय लोग सदैव वैचारिक स्तर पर अपने को हीन और यूरोप को श्रेष्ठ मानें। इससे भारत में यूरोपीय शासन और आजादी बाद में भी उन्हीं के नकल को वाजिब ठहराया जा सके।
2 दुर्भाग्य से वामपंथी इतिहासकार भी इसी धारणा वाले हैं। साम्यवादी चिंतन और रेनेसां का विकास योरप में हुआ। इससे भारतीय इतिहास की कोई हानि नहीं। समस्या तब होती है कि जब यह कहा जाता है कि भारत में कुछ हुआ ही नहीं। भारतीय समाज जैसे सीधे जंगली युग से आधुनिक हो गया या अधिक से अधिक कृषिप्रधान समाज से आधुनिक युग में आ गया। वह भी योरप की कृपा से। 
3 इस शैली के इतिहास से इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते कि भारतीय वास्तु संरचनाएं कैसे इतनी जटिल एवं सुदृढ़ हैं? ये जंगरोधी बड़े-बड़े खंभे और बड़े तोप कैसे बनते रहे? वे भी पहाडि़यों की उन चोटियों पर कैसे ले जाये गये जहां हाथी जैसे जानवर का जाना ही असंभव है। ऐसे अनेक प्रश्नों की परवाह वामपंथी और साम्राज्यवादी इतिहासकार नहीं करते।
4 इतना ही नहीं संघी/दक्षिणपंथी इतिहासकार भी इन/ऐसे प्रश्नों का उत्तर ढूंढने में रुचि नहीं लेते। उनका मुख्य लक्ष्य पौराणिक गल्पों में ही अधिक रहता है क्योंकि वे सीधे-सीधे सुविधानुसार भारत की दुर्दशा के लिये मुख्यतः इस्लाम और थोड़ा बहुत ईशाइयत को जिम्मेदार ठहरा कर हर सवाल के उत्तर को स्थापित करते हैं।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह
यह मुद्दा इतिहास के छात्रों के बीच प्रायः और राजनेताओं तथा आम आदमी के बीच रुकरुक कर चर्चित होता रहता है।
भारतीय इतिहास की कुछ प्रवृत्तियां ऐसी हैं कि वर्तमान कालीन उपयोग की दृष्टि से हमेशा उलझनें ही मिलेंगी। उलझनें इतिहास में नहीं वर्तमान समाज की प्रवृत्तियों में है क्योंकि इतिहास केवल जानने और जानकारी से शिक्षा ग्रहण करने के लिये नहीं, वर्तमान विभिन्न समुदायों, जातियों एवं समूहों की परस्पर विरोधी आकांक्षाओं में हैं। इन उलझनों का प्रभाव इतना गहरा है कि भारत के सहज सामाजिक वर्गीकरणों, जैसे - परिवार, जाति, कुल-रेस, संप्रदाय, धर्म एवं आधुनिक आदर्शवादी पहचान, जैसे- साम्यवादी, समाजवादी, अंबेदकरवादी, संघी, गांधीवादी आदि वर्गीकरणों में बंटे लोग केवल अपने अनुकूल इतिहास को ही स्वीकार करना चाहते हैं।
चूंकि अतीत को तो सुधारा जा नहीं सकता अतः लोग उससे केवज अनुकूल को स्वीकार करने एं प्रकिूल को नकारने की कोशिश करते हैं। यदि कोई व्यक्ति दूसरे पक्ष को सामने लाये तो इनकी प्रतिक्रिया बहुत भयानक होती है। उसमें भी एक सुविधावादी तर्क यह है कि कुछ लोगों को, जो कुल मिला कर अल्पसंख्यक हैं, उन्हें अन्य लोगों के साथ जोड़ कर उन पर आक्रमण किया जाय और फिर उन्हें अकेला पा कर सारी समस्याओं का जड़ उन्हें ही बताया जाय। इसके बाद उन पर आक्रमण, शोषण करना आसान हो जाता है। यह पूर्णतः शत्रुता की भावना पर आधारित इतिहास लेखन है।
विडंबना यह है कि आधुनिक आदर्शवादी पहचान, जैसे- साम्यवादी, समाजवादी, अंबेदकरवादी, संघी, गांधीवादी आदि वर्गीकरणों में बंटे लोग सहज सामाजिक वर्गीकरणों, जैसे - परिवार, जाति, कुल-रेस, संप्रदाय, धर्म एवं रोजगार की दृष्टि से एक ही साथ परस्पर विरोधी पहचान वाले हो जाते हैं। उनकी सबसे अधिक दुर्गति है। एक जन्मना ब्राह्मण को कम्यूनिस्ट होने के नाते हिंदू धर्म, ही नहीं ब्राह्मण जाति को भी रोज गाली देनी होती है और इस्लाम, ईशाइयत के क्रूरता के प्रति चुप रहना ही नहीं, उसे झुठलाना होता है। इसी तरह नास्तिकतावादी और मूलतः राजनैतिक संगठन रा.स्व.से.संघ के नजरिये से ही इतिहास को लिखने की जिद ठन जाती है। वस्तुतः तथ्य की हत्या दोनो ही निर्मम ढंग से करते हैं। 
इस समस्या के कुछ अचर्चित या अल्प चर्चित मामलों की क्रमशः चर्चा होगी।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

पुराना/नया जीवन

पुराना/नया जीवन शुरू हो रहा है- 
सुनने में बात जितनी अटपटी लगे, सच्चाई में वैसा ही है। हम सभी जैसे जैसे बड़े होते हैं परिवार और समाज  हमें कुछ खांचों में साजने और मांजने लगता है। कुछ लोग बच्चों को ढालने तक की कल्पना करते हैं, जैसे कि उसकी कोई जन्मजात मौलिकता ही नहीं हो। कोई भ्रम चाहे जो पाल ले लेकिन कद-काठी की तरह मन और वाणी की बनावट में भी अनेक बातें जन्मजात रूप से मौलिक होती हैं।
कृत्रिम प्रशिक्षण से जो जितना दूर होता है, उसके व्यक्तित्व का विकास उतना ही अधिक अपनी जन्मजात मौलिकता के अनुरूप होता है।
योग साधना की दृष्टि से अपनी इस जन्मजात मौलिकता के अनुरूप संरचना में रहना स्व-भाव है। इसमें रहने का पहला पुरस्कार स्वास्थ के रूप में मिलता है। स्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ होता है- स्व में स्थित होने का भाव। हमारे यहां निरोगिता और स्वास्थ्य दानों के दो अर्थ हैं। एक योगी रोगी हो सकता है, अस्वस्थ नहीं। अस्वास्थ्य अपने मौलिक रूप में न रहने के कारण होता है। अस्वास्थ्य का आयुर्वेद में पर्यायवाची होगा ‘‘निज रोग’’ जो गलत आहार-व्यवहार और प्रज्ञापराध के कारण उत्पन्न होते हैं। जिनका कारण आंतरिक होता है न कि बाह्य। बाह्य कारण, कीटाणु, विषाणु जैसे रुद्रगण के प्रकोप और दुर्घटना या राजा और प्रकृति के प्रकोप से होने वाले रोग बाहरी हैं, जो आगंतुक हैं। इनसे पूरी तरह बच पाना संभव नहीं है। न ही स्वयं को या किसी अन्य को ऐसे रोगों के लिये दोषी ठहराना उचित है। 
अपने स्वास्थ के लिये अपनी जन्मजात मौलिकता/प्रकृति के अनुरूप जीवन जाना जरूरी होता है। इसलिये  शिक्षण-प्रशिक्षण से आई नकली बातों, मूल प्रकृति के विपरीत बातों से तन-मन को मुक्त कर पुराना/नया जीवन शुरू हो रहा है। पुराना इसलिये कि जन्मजात प्रकृति आधारित है, नया इसलिये कि बीच में प्रशिक्षण एवं भ्रम आधारित जीवन से भिन्न होगा।

समाधिस्थ बालक का सच

समाधिस्थ बालक का सच
बचपन में मेरे पास खिलौने एवं खेलने वाले दोनों की कमी थी। संयुक्त परिवार में चौथी पीढ़ी का पहला एवं दुर्लभतुल्य बालक था।
मुझे पढ़ाने के लिए विद्वानों की बैठक बुलाकर शिक्षा पद्धति तय की गई। तय यह हुआ कि इस बच्चे को (क) बच्चों की संगति से दूर रखा जायेगा (ख) विद्यालय नहीं भेजा जायेगा (ग) स्वतंत्र पाठ्यक्रम बनाकर घर पर पढ़ाया जायेगा (घ) परदादा जी की निगरानी में पढ़ाई होगी (ड़) 12-14 साल तक शास्त्रार्थ सभा में विजेता बनाया जाएगा।
मेरा गाँव सुदूर देहात में है। मेरे दो प्रपितामह थे। छोटे वाले सांख्य, वेदांत, व्याकरण साहित्य में 4 विषयों में तीर्थ अर्थात स्नातकोत्तर उपाधिधारी थे।
7 वर्ष तक में मुझे गीता एवं अमरकोश, एक कांड कंठस्थ हो गया। मैं स्वयं खिलौना हो गया। घर रिश्तेदारी के बच्चे मुझे भोंपू कहते थे, ननिहाल में बहुत मजाक उड़ता था। जैसे ग्रामोफोन ; उस जमाने में वही थाद्ध की कुंडली, घुमाकर रिकार्ड/तवा बजता वैसे ही मेरे काम में आदेश मिलते ही बुजुर्गों के सामने गीता पाठ करना एवं मिठाई फल वगैरह खाना पड़ता था। वस्तुतः मैं बहुद उदास और दुखी रहता था।खेलने पर मनाही थी और बेवजह खूब पिटाई भी होती थी। इसके साथ बुजुर्गों की अपसी बहस भी समानांतर चलती रहती कि बच्चे को पीटने से लाभ है या हानि। इस पर मैं भीतर ही भीतर सुलगता रहता क्योंकि कुछ कर तो सकता था नहीं।
एक बार मेरे बड़े प्रपितामह को काशीवास के लिए बनारस लाया गया। अस्सी घाट पर नहाकर गीता सुनाने की मेरी ड्यूटी लगी। मैं भी स्नान कर पालथी मारकर ”धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे“ से शुरू हो गया। पाठ चालू, सामने मिठाई, फल, हो सकता है कुछ भक्तों ने कुछ सिक्के भी रखे होंगे, किसी ने मना किया होगा कि हमें दान नहीं लेना। मैं तो रोज के गीता पाठ से ऊबा गंगा की धारा में खड़ी बड़ी नौका, और उसपार पतंग उड़ाते बच्चे को देख रहा था। बच्चे और पतंग में इतन निमग्न था कि मुझे न तो आस-पास का दृश्य दिखाई दे रहा था, न ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, मैं एकटक बस पंतग देख रहा था। स्नानार्थी भक्त आते-जाते रहे, टोक-टाक का भी असर नहीं हुआ तो लोगों ने घेर लिया कि कोई दिव्य, चमत्कारी बालक आया हैं। खुली आँख से समाधि लगाता है। मेरे पितामह ताड़ गए वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होेंने झकझोर कर सचेत किया। मैं फल-मिठाई लेकर डेरे पर लौटा।
बडे़ प्रपितामह तो नहीं मरे छोटे प्रपितामह मर गए। अनौपचारिक शिक्षा बंद हो गई। मेरी रुचि एवं पीड़ा को ध्यान में रखकर पितामह ने स्वयं पतंग खरीदा एवं मुझे पतंग उड़ाना सिखाया। पतंग उडाने में मुझे बहुत मन लगा।
बाद में मैं ने एक निबंध लिखा - पतंगबाजी: बच्चांे की चिदाकाश धारणा।
कायदे से पतंग उड़ाने से बच्चों की आँख की कई बीमारियाँ ठीक होती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत प्रयोग है। यह संस्मरण गांधी मार्ग में छप गया है।

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

दीक्षा तिथि की पूर्व संध्या पर

दीक्षा तिथि की पूर्व संध्या पर आप सबों को वंदन, अभिनंदन
ब्रह्मलीन गुरुदेव, स्वैच्छिक जन्म की प्रतीक्षा में लगे पितामह एवं अपने से बड़े सभी लोगों को सादर चरण स्पर्श पूर्वक प्रणाम और शिष्यों को उनके सफल होने की मंगल कामना।
मैं कल, अर्थात गीता जयंती के ब्राह्म मुहूर्त में विधिवत साधना की दृष्टि से 36 साल का हो जाऊंगा। 1978 में एकादशी द्वादशी के बीच वाले ब्राह्म मुहूर्त में दीक्षा हुई और पहले ही ध्यान में सूर्योदय हो गया। गुरु जी ने आशीर्वाद दिया जो होना था सो हो गया। मेरे जैसे अज्ञानी को भरोसा करने में ही 20 साल से अधिक लग गये। इस बीच बहुत उलझा, फिर सुलझा।
तीन युग बीत गये। चौथे में अब सब समेटने की साधना शुरू और सबसे पहले आंकांक्षाओं फिर साधना को भी तो समेटना है क्योंकि इसके बाद तो यह शरीर भी क्या पता उस लायक रहे या न रहे। उसे भी तो समेटना होता ही है।