शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

मरने को समझौता

कभी कभी अपने साथ भी समझौता करना पड़ता है। वस्तुतः जीने का मजा वही ले सकता है, जो या तो यह माने कि वह अभी मरेगा नहीं या वो, जो हमेशा मरने को तैयार हो। मुझे मरना, अपने या अपनों के लिये पसंद नहीं आया बशर्ते कि वे भारी पीड़ा में न हों। दुश्मन मरें तो मरें, उनसे अपना क्या?
जहां तक याद है 8 साल तक तो किसी के भी मरने की खबर से ही मैं मायूस हो जाता था। मेरे मुख्य प्रशिक्षक, मेरे बाबा (पितामह) को यह बात पसंद नहीं आई। इतना छोटा बच्चा, क्या जानता है मृत्यु के बारे में? उसके बावजूद? डरे, यह उचित नहीं है। इसलिये उन्होंने मृत्यु से मेरे डर को भगाने के अनेक उपाय किये और अंत में मरने की कला भी सिखा गये। पता नहीं मैं ने कितना आत्मसात किया, यह तो मेरे मरने के बाद ही पता चल सकेगा।
12 साल से 54 साल तक मुझे पूरा विश्वास था कि मैं मरने वाला नहीं अतः मौत की परवाह किये बिना अनेक काम किये, दुर्घटनाएं और मेरे ऊपर आक्रमण सालाने रूटीन की तरह रहे लेकिन 50 साल पूरे होते ही एक दिन मैं डरने लगा कि अब तो मेरा नंबर भी देर सबेर आयेगा ही। बहाना बनाने की वैसे भी अपने पास सुविधा नहीं है और यह तो बिलकुल सच है।
मैं ने सोचा कि इस प्रकार भीतर में डर बना रहे तो जीवन कैसे चलेगा? इस मुद्दे पर उन प्राचीन भारतीय मनीषियो को पढ़ना शुरू किया, जो थोथे आदर्शवादी न हो कर उतने ही व्यवहारिक और अनुभवी भी माने जाते हैं।  भर्तृहरि इसमें सबसे अच्छे लगे। उनका कथन है- ‘‘विद्या और धन की चिंता तो यूं करे कि कभी मरना ही नहीं है और धर्म का पालन इस तरह करे कि बस अभी तुरत मौत आने ही वाली है। ’’ यह बात दिल को भाई नहीं, इसमें दुहरी और नकली जिंदगी है।
फिर अचानक भीतर से सचाई कौंधी कि अपने आप को किसी भी क्षण मरने के लिये तैयार ही क्यों न कर ली जाये। मेरे पितामह ने किया था तो लगा कि लोग कर तो लेते ही हैं। मेरी पात्रता शायद उतनी नही, फिर भी यह प्रश्न जब भीतर में उठ गया तो क्यों न अभी से तैयारी शुरू कर दी जाये। मुझे 4 साल लगे किसी तरह अपने को मनाने में कि इस सत्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त तो दूसरा कोई उपाय नहीं है।
मित्रों मन फिर भी पूरी तरह नहीं माना तो एक समझौता हुआ है कि जब मरने का पता ही नहीं तो टेंसन क्यों लेना? जब मरना होगा मरेंगे, इससे डर कर तो जाना भी मुश्किल है अतः मौत से बिना डरे पहले की तरह जीन है। और जो यह सवाल है कि मौत के बाद क्या होगा तो एक दो बार तो पहले भी लगभग जीते जी मरे ही हैं तो इस बार कायदे से होश में रहते हुए अंतिम यात्रा के पहले पिछली मौतों का अनुभव कर लेते हैं, फिर अंतिम निर्णय होगा कि मरना है या नहीं?
आज 95 साल के एक सुल वृद्ध से मिल कर मेरा मनेबल और बढ़ा कि देखिये इनकी हिम्मत? अभी पढ़ते हैं, सीखते हैं, तब लौटते समय याद आया कि हमारे यहां के एक पहलवानजी ने तो संभवतः 95 साल की आयु में शादी ही की थी 85 साल की महिला पहलवान से। अभी मेरी उम्र ही क्या है?

बुधवार, 12 नवंबर 2014

एक था मैत्री क्लब

एक था मैत्री क्लब
मैं इसके कुछ सदस्यों से मिला हूं- स्व. बुधमल शामसुखा जी और श्री रुद्रमान भाई। इन दोनों से मिल कर मुझे लगा कि इस क्लब के लोग सच में लाजवाब होंगे। ये लोग यह समझ रखते थे कि मैत्री के भाव को कुछ लोग भूल गये हैं और अनेक इसमें अन्य विषयों की मिलावट के कारण इसका सुख नहीं ले पाते जबकि यह मनुष्य के विकास और तृप्ति का अनिवार्य साधन है। अतः एक ऐसे मंच/मंडली की व्यवस्था रहनी चाहिये जहां लोग मैत्री जी सकें उसका सुख ले सकें।
मैत्री क्लब के कुछ नियम थे-
1 मैत्री किसी से भी हो सकती है, इसमें लिंग, जाति, धर्म, राष्ट्रीयता की सीमा नहीं हो सकती, बशर्ते दोनो पक्ष चाहे। इस माध्यम से हम दूसरे को समझ सकते हैं, उसे एक हद तक स्वीकार कर सकते हैं और बचे अंतरों के साथ मैत्री पूर्वक जीने का राश्ता भी निकाल सकते हैं।
2 अतः अपनी ओर से मैत्री का प्रस्ताव/विज्ञापन किसी व्यक्ति के सामने या  खुलेआम दोनों प्रकार से रखा जा सकता है। परस्पर सहमति और उसमें खुशी मैत्री का मूल है।
3 इस क्लब का सदस्य किसी दूसरे सदस्य से या खुले आम किसी से कुछ भी मांग सकता है या देने का प्रस्ताव रख सकता है। दूसरे सदस्य को भी वैसे ही हक है कि वह दूसरे के प्रस्ताव को स्वीकार करे या ठुकरा दे। इस क्लब में स्वनिर्णय और परस्पर लेन-देन की भी व्यवस्था है अतः केवल बालिग व्यक्ति ही सदस्य हो सकता है।
4 मैत्री अनमोल है और उस भाव के द्वारा लिया गया या दिया गया सामान, व्यवहार या भाव भी।
5 कम से कम साल में 1 बार सभी सदस्यों को किसी एक स्थान में जुटना चाहिये और मैत्री विकास के बारे में सोचना चाहिये।
6 मैत्री व्यक्ति से आगे बढ़ कर परिवार तक में जाये इसलिये यदि कोई मित्र किसी के घर जाता है तो कम से कम 3 शाम/1 रात रहने भर की यथा संभव व्यवस्था उसे करनी चाहिये। कुछ नियम और भी हो सकते हें जो मुझे याद न हों।
प्रायः ऐसा देखा गया है कि अगर कोई प्रयोग सफल होने लगे तो संसार की हर समस्या का समाधान लोग उसी में खोजने लगते हैं और मूल उद्देश्य के साथ या उसकी जगह अन्यान्य बातें भी जोड़ने लगते हैं। परिणाम होता है कि सब डूब जाता है। मेरी जानकारी में यह मैत्री क्लब भी इस घटना के कारण बिखर गया।
यदि कोई व्यक्ति चाहे तो इस दिशा में प्रयोग कर सकता है। संयोजक बन सकता है। मैं दूसरा सदस्य बनने को तैयार हूं।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

भारत को समझने की दृष्टियां

मगध-आंध्र संबंध के क्रम में

भारत को समझने की दृष्टियां
वैसे तो अनेक लोग अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से भारत को आधा- अघूरा समझते रहे फिर भी भारत को समझने की प्रमुख 2 दृष्टियां हैं- 1 देशी 2 विदेशी। देशी दृष्टि में इसे पूरी तरह ठीक से समझना पड़ता है तो विदेशी में किसी एक पक्ष का ही अध्ययन मुख्यतः किया जाता है।

देशी दृष्टि - 
इसमें किसी क्षेत्र विशेष की संरचना एवं भारत के अन्य क्षेत्रों के साथ उसके संबंध को समझने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार के अध्ययन में उस क्षेत्र की सांस्कृतिक-राजनैतिक सीमा, चौहद्दी, भाषा, खानपान, सामाजिक मूल्य, इस संसार तथा उसके बाहर के बनावट की मूल समझ एवं विश्वास, आबादी का मूल वर्गीकरण (जातियां) तथा उन पर वर्ण व्यवस्था का प्रभाव, प्रमुख ऋषि, सिद्ध एवं वीर व्यक्ति, सामाजिक संघटन-विघटन की कथाएं, रोजगार-कृषि एवं शिल्प के प्रकार, भूमि के प्रकार उत्तराधिकार एवं परिवार व्यवस्था, मुख्य आचार संहिता अर्थात विधिमान्य/राजमान्य तथा लोकस्वीकृत धर्मशास्त्र/स्मृति ग्रंथ, बाहर से आकर बसे लोग एवं स्थानीय समाज से उनका संबंध, हार-जीत की याादें एंव कथाएं, ऐतिहासिक कृतज्ञता एवं प्रतिबद्धता, मनोरंजन के प्रकार एवं स्वरूप,  नई परिस्थितियों से तालमेल के सिद्धांत/सूत्र, शासन प्रणाली और कर, प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार का स्वरूप।
इस समग्र दृष्टि को देशी दृष्टि कहते हैं। उपर्युक्त सभी बातों को ध्यान में रख कर उस खे़ के आम लोगों की जीवन शैली तथा उसके लिये आखर संहिता तैयार की जाती थी। उसे स्मृति पंरपरा कहते हैं। समय समय पर समाज के विभिन्न वर्गों के लोग सभा कर इसमें संशोधन भी करते थे और जरूरत पड़ने पर नई किताब भी लिख ली जाती थी। इन नियमों का पालन करने वाले लोगों को स्मार्त कहा जाता है। न मानने पर इन पर राजदंड भी तय होता था। इस शास्त्र के सामाजिक पक्ष वाले शास्त्र को धर्मशास्त्र तथा शासन व्यवस्था एवं कर संग्रह वाले पक्ष को अर्थ शास्त्र कहा जाता था।
विदेशी दृष्टि- 
भारत को ठीक से नहीं समझ पाने वाले विदेशियों की दृष्टि है। इसमें किसी एक विषय या किसी एक पक्ष का अध्ययन अनजान की तरह किया जाता है। भारतीय दृष्टि की जगह अब विदेशी दृष्टि हावी हो गई है। भारतीय विद्वान भी पूरे संदर्भ को साथ रख कर अध्ययन करने की जगह कुछेक नमूनों का संग्रह कर दनजाने व्यक्ति की तरह केवल सतही जानकारी देते हैं तो उसमें जानने का सुख नहीं मिलता। 
मैं देशी दृष्टि से संबंधों को खोजता हूं, उसके लिये पहले अपने देश की समाज व्यवस्था और परंपरा को समझना पड़ता है। मगध तेलंगाना संबंध के लिये मुझे तेलगू भाषा सीखना पड़ेगा और प्राचीन मार्ग से एक बार यात्रा करनी पड़ेगी। जारी क्रमशः..........