गुरुवार, 22 मई 2014

श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा

अथ श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा भाग एक

अगर हम एक साथ किसी दुकान पर रसगुल्ला खायें और उसका अनुभव दूसरे को बतायें। अगर अनुभव समान हों तो मतलब हमारे भीतर समानता है। दुबारा अगर रसगुल्ले में कोई अंतर आयेगा तो हम आपस में उसके बारे में जानकारी बांट सकते हैं। लेकिन यह बात किसी प्लेट में परोसे गये रसगुल्ले की संख्या पर लागू नहीं होती उसके बारे में आपको लगभग एक ही प्रकार का विवरण मिलेगा।
इस मामले में प्रायः भ्रम नहीं होता, न जोड़ में न घटाव में। वह भी तो अनुभवात्मक साक्षात्कार ही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ मामलों में हम अधिक प्रामाणिक और कुछ मामलों में व्यक्तिवादी अनुभव वाले होते हैं। अगर सच में ऐसा होता हो तो इसकी जांच पड़ताल की जानी चाहिये। 

आप भी आजमा कर देख सकते हैं।

किसी जमाने में आंवले के उदाहरण से बात समझाई जाती थी कि फलां को बात इतनी आसानी से समझ में आती है जैसे हाथ में आंवला हो। आंवला शायद नये जमाने में सबको पसंद न आये तो मैंने सोचा कि किसी दूसरे उदाहरण से बात कहने की कोशिश करता हूं। शायद रसगुल्ले से बात बन जाये।
रसगुल्ले को आत्मसात करने का अनुभव तो अनेक रसिकों को होगा। ठीक इसके विपरीत अगर किसी को अपने से बड़े किसी जड़ या चेतन के साथ एकाकार होने का अनुभव हो तो बतायें, वह साक्षात्कार भी कम मजेदार नहीं होता।

अथ श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा भाग दो

रसगुल्ले का साक्षात्कार दानों तरह से होता है, निर्गुण-निराकार वाली पद्धति से और सगुण साकार वाली पद्धति से भी।

यह बात मैं साफ कर दूं कि मैं यहां बिलकुल मजाकिया मूड में नहीं हूं। एक शाकाहारी ब्राह्मण रसगुल्ले का कभी मजाक नहीं उड़ा सकता क्योंकि उस मजाक से उसके मन में दुविधा उत्पन्न हो जाती है और दुविधा के साथ रसगुल्ला खाने पर वह बिहारी पदावली में ‘सरक’ जाता है। पेट की जगह श्वास नली में घुसने लगता है तो रसगुल्ले का यह प्रकोप अति दारुण होता है। अतः रसगुल्ले का पूर्ण साक्षात्कार पूरी निष्ठा, लगन एवं शांति के साथ इत्मीनान से करना चाहिये। अति वेग में पूरा रसगुल्ला एक साथ गटकने के पहले अनेक वस्तुओं को गटकने का अभ्यास करना होगा वरना......???

मूल बात पर आते हैं कि सगुण साकार वाली विधि से साक्षात्कार करने पर यह सगुण साकार और निर्गुण निराकार वाली विधि से साक्षात्कार करने पर निर्गुण निराकार दोनों ही रूपों में ब्रह्म का अंश होने से यह उसी रूप में अनुभूत होता है।

भारतीय परंपरा में अद्वैत अवस्था भी कई प्रकार की होती है, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत वगैरह। इसी आधार पर कई दर्शन एवं संप्रदाय बने हैं। मुझे नहीं पता लोगों के अनुभव और उस पर आधारित सिद्धांत में जो अंतर है वह रसगुल्ले के अंतर के कारण है या साक्षात्कार करने वालों के अंतर के कारण। इसलिये फिर से प्रयोग कर जांच करना जरूरी लगा, तो मैं ने सोचा कि विभिन्न प्रकार से विभिन्न प्रकार के रसगुल्ले खा कर इस अंतर को समझने का प्रयास करता हूं। आप भी चाहें तो मेरा साथ दे सकते हैं। आगे का विवरण/वर्णन साक्षात्कार के बाद।
किसी योगी ने पहले भी कहा है- ‘सगुणा हो तो भरि भरि पीवे, निगुणा रहत उदासा’।


रसगुल्ला सिद्धि
गया से टेकारी जाने के रास्ते में पंचानपुर आता है। वहीं मोरहर नदी का पुल पार करने के बाद आज से 15 साल पहले तक मिश्र जी की रसगुल्ले की दुकान थी। मिश्रजी रसगुल्ला निर्माण में सिद्ध व्यक्ति थे। उनकी दुकान में मिट्टी के कुछेक बरतनों में रसगुल्ले रखे होते थे और मिट्टी के चबूतरे पर बोरी बिछी रहती थी। पूरे इलाके में विख्यात इस दुकान में व्यक्तिवादी और कंजूस का प्रवेश वर्जित था।
आद. मिश्रजी एक सिद्ध की भांति बैठे रहते थे। अब वहां पक्की दुकान हो गई है और छोटे दिल तथा औकात वाले भी रसगुल्ला खा सकते हैं। मिश्रजी आर्डर पर भी रसगुल्ला बनाते थे- 5 किलो 10 किलो के से ले कर 45 किलो तक वजन का एक रसगुल्ला। आधे किलो से कम का एक रसगुल्ला तो निहायत गरीब लोग खरीदते थे। हमारी गिनती भी उसी में थी। मात्र 3 लोग खाने वाले कभी कभी 1 किलोवाला घर लाते थे।
यह एक संदेश था कि अगर अमीर हैं तो ऐसा रसगुल्ला खरीदिये और मित्रों, परिवारों में वसुधैव कुटंबकम न सही मिल बांट कर रसगुल्ला खाने का संदेश महज एकाध किलों के टुकड़े के साथ प्रचारित कीजिये।
मिश्र जी के बड़े रसगुल्ले मानव को उसकी तुच्छता का अहसास कराते थे कि ऐ मानव! मुझे पूरी तरह आत्मसात करने के लिये तुम्हें एक बड़े दिल वाला आदमी बनना होगा। रसगुल्ले का साक्षात्कार केवल स्वयं खाने से नहीं, उसे मिल बांट कर खाने से ही होता है। म्रि जी के सिद्ध रसगुल्ले बिना कुछ कहे अनेक मुंह से बहुत कुछ कहवा लेते थे। उनके लड़के अब दुकान चलाते तो हैं लेकि मिश्रजी वाली न बुलंदी है न दृष्टि। हम लोग 1990 से 95 तक खूब मजे लिये मिश्रजी की बातो और रसगुल्ले दोनों का। यह है दिव्य साक्षात्कार।
रसगुल्ला सिद्धि
गया से टेकारी जाने के रास्ते में पंचानपुर आता है। वहीं मोरहर नदी का पुल पार करने के बाद आज से 15 साल पहले तक मिश्र जी की रसगुल्ले की दुकान थी। मिश्रजी रसगुल्ला निर्माण में सिद्ध व्यक्ति थे। उनकी दुकान में मिट्टी के कुछेक बरतनों में रसगुल्ले रखे होते थे और मिट्टी के चबूतरे पर बोरी बिछी रहती थी। पूरे इलाके में विख्यात इस दुकान में व्यक्तिवादी और कंजूस का प्रवेश वर्जित था।
आद. मिश्रजी एक सिद्ध की भांति बैठे रहते थे। अब वहां पक्की दुकान हो गई है और छोटे दिल तथा औकात वाले भी रसगुल्ला खा सकते हैं। मिश्रजी आर्डर पर भी रसगुल्ला बनाते थे- 5 किलो 10 किलो के से ले कर 45 किलो तक वजन का एक रसगुल्ला। आधे किलो से कम का एक रसगुल्ला तो निहायत गरीब लोग खरीदते थे। हमारी गिनती भी उसी में थी। मात्र 3 लोग खाने वाले कभी कभी 1 किलोवाला घर लाते थे।
यह एक संदेश था कि अगर अमीर हैं तो ऐसा रसगुल्ला खरीदिये और मित्रों, परिवारों में वसुधैव कुटंबकम न सही मिल बांट कर रसगुल्ला खाने का संदेश महज एकाध किलों के टुकड़े के साथ प्रचारित कीजिये।
मिश्र जी के बड़े रसगुल्ले मानव को उसकी तुच्छता का अहसास कराते थे कि ऐ मानव! मुझे पूरी तरह आत्मसात करने के लिये तुम्हें एक बड़े दिल वाला आदमी बनना होगा। रसगुल्ले का साक्षात्कार केवल स्वयं खाने से नहीं, उसे मिल बांट कर खाने से ही होता है। म्रि जी के सिद्ध रसगुल्ले बिना कुछ कहे अनेक मुंह से बहुत कुछ कहवा लेते थे। उनके लड़के अब दुकान चलाते तो हैं लेकि मिश्रजी वाली न बुलंदी है न दृष्टि। हम लोग 1990 से 95 तक खूब मजे लिये मिश्रजी की बातो और रसगुल्ले दोनों का। यह है दिव्य साक्षात्कार।

बुधवार, 7 मई 2014

लोक सुलभ साधना विधियों की समझ में ह्रास के कारण


लोक सुलभ साधना विधियों की समझ में ह्रास के कारण
भाई जी, श्री विजय प्रकाश शर्मा जी, प्रणामं

मैं आपके सवाल के आने के बाद से सोच रहा हूं कि इस बात को संक्षेप में कहूं तो कैसे कहूं? वैसे तो मैं इस विषय पर लोकाचार रहस्य नाम से एक किताब ही लिख रहा हूं, जिसमें इन सारी बातों की व्याख्या और संदर्भ भी रहेंगे।
आपका सवाल इससे हट कर दूसरा है कि आखिर इनका ह्रास कैसे हुआ?
 मुझे अभी कुछ सूत्र सूझे हैं-
1 वैदिकी करण, पुरुष नेतृत्व और ब्राह्मण नेतृत्व का अतिवाद। ये परस्पर एक दूसरे के समर्थक हो जाते हैं।
2 खेल खेल में या परोक्ष पद्धति से सीखने जीने में यही समस्या है कि समय की फेरबदल के समय इनमें संशोधन बिना सोचे समझे होते हैं क्योंकि सिद्धांत स्पष्ट तो हैं नहीं। अगर स्पष्ट रहे तो उस आधार पर संशोधन कर दिया जाय।
3 18 वीं शताब्दी के बाद धर्मशास्त्रों का संशोधन रुक गया, 19 वीं में संशोधन की जगह सुधारवादी संप्रदाय जैसे- आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि द्वारा सीधे वैदिक कालीन पद्धतियों की नकल बिना सोचे समझे अंगरेजों को ध्यान में रख कर निकाली गई तो साधना और लोक जीवन को समझने की ही जरूरत नहीं महसूस हुई उसमें संशोधन कर कालानुरूप बनाने की किसे हिम्मत और फुरसत।
मैं तो अपने एवं अपने लोगों के लिये विधियां संशोधित कर ही अनुष्ठान, संस्कार करता हूं। बेटे के जनेऊ में इसी तरह संशोधित कर दिया तो लोगों को हैरानी हुई कि लोकाचार पूरी तरह हटाये नहीं गये बल्कि वैदिक कर्मकांड ही अधिक हटाये गये। समावर्तन का भाग तो दुबारा पूरा किया, जब वह 24 साल का हो गया। 12 साल की उम्र में कैसे एक युवक वाली जीवन शैली का उपदेश दिया जा सकता था?
4 मेरे पिताजी एवं बाबा में मतांतर था कि व्यक्तित्व का विकास पतंग उड़ाने से अच्छा होगा या फुटबाल खेलने से? पिताजी की बात सभी समझ सकते थे अतः लोग उनका समर्थन करते थे। बाबा ने अपनी पहले से पतंग खरीदी और उड़ाना सिखाया साथ ही कभी भी पतंग उड़ाते समय विघ्न नहीं किया। मैं ने दोनों का लाभ लिया लेकिन दक्षता पतंगबाजी में मिली।
इस उदाहरण में असली अंतर व्यक्तित्व विकास की समझ का है। बाबा को एक ध्यान योग का प्रखर अभ्यासी बनाना था तो आमान में आंख टिकाने के लिये बच्चे को कैसे प्रेरित करते? बाद में मैं ने इसका उपयोग बच्चों की दूर की आंख की रोशनी ठीक करने तथा उनकी उग्रता विनारण के लिये किया। इसी तरह सामाजिक लक्ष्य बनते हैं। एक समय में यह सामाजिक लक्ष्य था कि किसी को भी ध्यान योग विद्या से अपरिचित नहीं रहने देना है। आज की साक्षरता से भी अधिक तगड़ा लक्ष्य। इसलिये हर सनातनी हिंदू को उसकी मर्जी बेमर्जी के भी उसकी अंतश्चेतना से परिचित करा देना ही है। इसके लिये एक समय सीमा तय की गई - उसके विवाह के पूर्व और उसकी जिम्मेदारी औरतों को सौंपी गई। आरंभ में जाति पांत छोड़ इस काम को पूरा सामाजिक समर्थन दिया गया। परंपरागत औरतों की उस दुनिया में तो अब कोई झांकता भी नहीं है, समझेगा कैसे?
दरसल सोदाहरण खोल कर न बताने तथा विद्याधर व्यक्ति एवं समुदाय को सामाजिक संरक्षण के अभाव ने बहुत सारी समस्याएं पैदा कर दीं। अब बिना उनके मार्ग दर्शन के झूठी नकल पर विद्या कब तक टिकती और दोनो तरफ के छल ने बहुत कुछ नष्ट कर दिया। बचा वही जो उनकी समझ में पूरी तरह नहीं आया और लोगों को उसमें रस मिलता रहा। इसलिये धर्म के तीन पक्ष ही अधिक प्रचलित हैं- उत्सव-मनोरंजन, सामुदायिकता, वर्चस्व प्रदर्शन। अन्य उपाय तो बस इन्हें एक रहस्यमयी संपुष्टि के लिये होते हैं।
5 एक और अंदरूनी बात, जैसे सबसे कमजोर और घटिया शिक्षा वाले को प्राथमिक शिक्षा में  डालने की चलन है, उसी तरह कर्मकांड की है। संस्कृत अनेक बड़े बड़े विद्वान जो कर्मकांड कराते भी रहे योग, तंत्र और धर्मशास्त्र के ग्रंथ पढ़ते ही नहीं थे। सफेद झूठ बालते थे साहित्य व्याकरण, दर्शन आदि के बल पर उनकी प्रतिष्ठा रहती थी। हम लोगों ने ऐसे पंडितों से जब जो चाहा कहवाया मानवता के पक्ष में।
इतने में कितना कह पाया, पता नहीं। कुछ संप्रेषित हो सका तो प्रयास को सार्थक मानूं।
मैं आपके सवाल के आने के बाद से सोच रहा हूं कि इस बात को संक्षेप में कहूं तो कैसे कहूं? वैसे तो मैं इस विषय पर लोकाचार रहस्य नाम से एक किताब ही लिख रहा हूं, जिसमें इन सारी बातों की व्याख्या और संदर्भ भी रहेंगे।
आपका सवाल इससे हट कर दूसरा है कि आखिर इनका ह्रास कैसे हुआ?
 मुझे अभी कुछ सूत्र सूझे हैं-
1 वैदिकी करण, पुरुष नेतृत्व और ब्राह्मण नेतृत्व का अतिवाद। ये परस्पर एक दूसरे के समर्थक हो जाते हैं।
2 खेल खेल में या परोक्ष पद्धति से सीखने जीने में यही समस्या है कि समय की फेरबदल के समय इनमें संशोधन बिना सोचे समझे होते हैं क्योंकि सिद्धांत स्पष्ट तो हैं नहीं। अगर स्पष्ट रहे तो उस आधार पर संशोधन कर दिया जाय।
3 18 वीं शताब्दी के बाद धर्मशास्त्रों का संशोधन रुक गया, 19 वीं में संशोधन की जगह सुधारवादी संप्रदाय जैसे- आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि द्वारा सीधे वैदिक कालीन पद्धतियों की नकल बिना सोचे समझे अंगरेजों को ध्यान में रख कर निकाली गई तो साधना और लोक जीवन को समझने की ही जरूरत नहीं महसूस हुई उसमें संशोधन कर कालानुरूप बनाने की किसे हिम्मत और फुरसत।
मैं तो अपने एवं अपने लोगों के लिये विधियां संशोधित कर ही अनुष्ठान, संस्कार करता हूं। बेटे के जनेऊ में इसी तरह संशोधित कर दिया तो लोगों को हैरानी हुई कि लोकाचार पूरी तरह हटाये नहीं गये बल्कि वैदिक कर्मकांड ही अधिक हटाये गये। समावर्तन का भाग तो दुबारा पूरा किया, जब वह 24 साल का हो गया। 12 साल की उम्र में कैसे एक युवक वाली जीवन शैली का उपदेश दिया जा सकता था?
4 मेरे पिताजी एवं बाबा में मतांतर था कि व्यक्तित्व का विकास पतंग उड़ाने से अच्छा होगा या फुटबाल खेलने से? पिताजी की बात सभी समझ सकते थे अतः लोग उनका समर्थन करते थे। बाबा ने अपनी पहले से पतंग खरीदी और उड़ाना सिखाया साथ ही कभी भी पतंग उड़ाते समय विघ्न नहीं किया। मैं ने दोनों का लाभ लिया लेकिन दक्षता पतंगबाजी में मिली।
इस उदाहरण में असली अंतर व्यक्तित्व विकास की समझ का है। बाबा को एक ध्यान योग का प्रखर अभ्यासी बनाना था तो आमान में आंख टिकाने के लिये बच्चे को कैसे प्रेरित करते? बाद में मैं ने इसका उपयोग बच्चों की दूर की आंख की रोशनी ठीक करने तथा उनकी उग्रता विनारण के लिये किया। इसी तरह सामाजिक लक्ष्य बनते हैं। एक समय में यह सामाजिक लक्ष्य था कि किसी को भी ध्यान योग विद्या से अपरिचित नहीं रहने देना है। आज की साक्षरता से भी अधिक तगड़ा लक्ष्य। इसलिये हर सनातनी हिंदू को उसकी मर्जी बेमर्जी के भी उसकी अंतश्चेतना से परिचित करा देना ही है। इसके लिये एक समय सीमा तय की गई - उसके विवाह के पूर्व और उसकी जिम्मेदारी औरतों को सौंपी गई। आरंभ में जाति पांत छोड़ इस काम को पूरा सामाजिक समर्थन दिया गया। परंपरागत औरतों की उस दुनिया में तो अब कोई झांकता भी नहीं है, समझेगा कैसे?
दरसल सोदाहरण खोल कर न बताने तथा विद्याधर व्यक्ति एवं समुदाय को सामाजिक संरक्षण के अभाव ने बहुत सारी समस्याएं पैदा कर दीं। अब बिना उनके मार्ग दर्शन के झूठी नकल पर विद्या कब तक टिकती और दोनो तरफ के छल ने बहुत कुछ नष्ट कर दिया। बचा वही जो उनकी समझ में पूरी तरह नहीं आया और लोगों को उसमें रस मिलता रहा। इसलिये धर्म के तीन पक्ष ही अधिक प्रचलित हैं- उत्सव-मनोरंजन, सामुदायिकता, वर्चस्व प्रदर्शन। अन्य उपाय तो बस इन्हें एक रहस्यमयी संपुष्टि के लिये होते हैं।
5 एक और अंदरूनी बात, जैसे सबसे कमजोर और घटिया शिक्षा वाले को प्राथमिक शिक्षा में  डालने की चलन है, उसी तरह कर्मकांड की है। संस्कृत अनेक बड़े बड़े विद्वान जो कर्मकांड कराते भी रहे योग, तंत्र और धर्मशास्त्र के ग्रंथ पढ़ते ही नहीं थे। सफेद झूठ बालते थे साहित्य व्याकरण, दर्शन आदि के बल पर उनकी प्रतिष्ठा रहती थी। हम लोगों ने ऐसे पंडितों से जब जो चाहा कहवाया मानवता के पक्ष में।
इतने में कितना कह पाया, पता नहीं। कुछ संप्रेषित हो सका तो प्रयास को सार्थक मानूं।

नींद का चमत्कार

सन् 81-82 की बात है। मैं उस समय का0 हि0 वि0 वि0, वाराणसी, में शोध छात्र था। मेरा गाँव, बिहार के भोजपुर जिले में पड़ता है, जहाँ के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध योद्धा बाबू वीर कुँवर सिंह रहे हैं। उनके गाँव जगदीशपुर में आज उनके किले के खंडहर के एक भाग को जो तुलनात्मक रूप से ठीक है, बिहार सरकार ने संग्रहालय घोषित कर रखा है। उनकी शेष संपत्तियों की ब्रिटिश काल में ही नीलामी हो चुकी है।
मुझे अपने अध्ययन के दौरान जैसे ही पता चला कि कुँवर सिंह की स्मृति में बने संग्रहालय पर उसी जिले के कुख्यात अपराधियांे का कब्जा है मैं निदेशक पुरातत्व से मिला तो उन्होने भी पुष्टि की और बात-बात में यह चुनौती सामने आई कि क्या इन अपराधियों से कोई संवाद भी हो सकता है? दरअसल ये इतने कुख्यात थे कि इनकी दृष्टि में सिगरेट का एक कश और एक हत्या में कोई फर्क नहीं था और ये सभी संपन्न घरों के बिगडै़ल जवान/प्रौढ़ थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच और मेरी 21-22 की थी।
संवाद की सबसे बड़ी बाधा उनके द्वारा देखते ही संदेह होने पर गोली चला देने की थी। मैं ने उस समूह के एक सरगना (आज स्व0) माल बाबू के एक शिक्षक से भेंटकर एक पत्र प्राप्त किया कि मुझे उनकी मदद की जरूरत है।
एक गर्मी की शाम 6.00 बजे मैं उनकी महफिल में पहुँचा। पहुँचते ही अपना परिचय देकर शिक्षक का नाम बताया और कहा कि जो भी व्यक्ति माल बाबू हों पत्र प्राप्त कर लें।
करीब 40-50 लोग बंदूक-रायफल वगैरह से लैस थे। मुझे एक चौकी पर (तख्त) बैठने को कहा गया। शाम की ठंढी हवा एवं थकान के कारण मुझे कब नींद आई, पता नहीं चला। नींद भी ऐसी कि रात मंे जगाने की सामान्य कोशिश के बाद भी नहीं खुली।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं भीतर से घबराया हुआ था और अपने आप को कोश रहा था और माल बाबू विस्मित, थके मुझे निहार रहे थे। मेरी उम्र के कारण झेंप रहे थे नहीं तो साष्टंाग दंडवत की मुद्रा में उन्होने कहा - बाबा (पाठक, ब्राह्मण होने के कारण) आप एकदम असाधारण चमत्कारी मनुष्य हैं, मैं यह भी समझ गया हूँ कि आप कोई छोटी-मोटी बात कहने नहीं आए होंगे फिर भी आपके बिना कहे भी यह मैं वादा करता हूँ कि आप जो भी कहेंगे उसका अक्षरशः पालन होगा, केवल वह बात सम्मान के विरूद्ध नहीं होनीं चाहिए।
मैं ने अपनी नींद को कोसा, माफी माँगी कि आपको मेरी रक्षा में रात भर जगना पड़ा। माल बाबू ने कहा - जिसके भय से पूरा इलाका थर्राता है। जनता-प्रशासन ठीक से सो नहीं पाती उस दल के बीच ऐसी नींद तो किसी असाधारण आदमी को ही आ समती है, आप महान हैं, मैं आपको गुरू बनाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं स्वयं सहमा और ग्लानि ग्रस्त था। मैं स्वये जानता हूं कि मैं सनक में न रहूं तो कितना बड़ा डरपोक हूं।
मैं ने उस संग्रहालय भवन को खाली करने का प्रस्ताव रखा। माल बाबू हँसे, बोले, एकदम ठीक, मैंने ठीक समझा था। मैं फिर फेरे में पड़ा, मालबाबू फिर हँसे, बोले बाबा आज के पहले माल बाबू से कोई यह बात कह नहीं सका। आप नहीं जानते कि अब तक गोली आपको छेद चुकी होती और आप यह नहीं समझ रहे कि कितनी बड़ी बात आपने मुझसे कही और माँगी है। माल बाबू अड्डा छोड़ दें, कारोबार छोड़ दें, रुतबा छोड़ दंे सचमुच मेरी लिए भी बड़ी बात है फिर भी वादा सो वादा।
इसका सम्मान जनक राश्ता यह निकाला गया कि माल बाबू स्वयं संग्रहालय की मरम्मत कर सभा आयोजन कर विदा होंगे।
बड़े सम्मान से मुझे बस में बिठाया गया। मैं जब पुरातत्व निदेशक के पास पहुँचा तो ेपहले तो वे चकित हुए फिर जातिवादी पेंच फंसाया कि कुंवर सिंह तो ठाकुर/राजपूत थे। आप को इस पचड़े से क्या लेना वगैरह-वगैरह। मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
माल बाबू तो मान गए लेकिन जातिवादी रंग मे रंगे निदेशक श्री सीताराम जी को कुँवर सिंह, खटकते रहे क्योंकि वे उनकी जाति के नहीं थे।
एक दिन आरा (जिला मुख्यालाय) की कचहरी पर मालबाबू गिरोह के सभी सदस्य मिल गए। मुझे बचते देख माल बाबू ने बुलाया सबसे परिचय कराया मुझे गुरु बताया। मेरी भारी दुर्गति, डर कि घर तक खर खबर जायेगी कि मैं गुडांे की टीम में हूँ। खैर, मैंने हार मानी, निदेशक वाली बात बताई। माल बाबू की आँखो में मेरी विवशता पर आँसू आ गए। कुछ वर्षों बाद पला चला कि माल बाबू की भी हत्या हो गई।

सोमवार, 5 मई 2014

चैता गायन: यक्ष परम्परा का अनुष्ठान

चैता गायन: यक्ष परम्परा का अनुष्ठान

मगध क्षेत्र साधना की अनेकविध शैलियों का केंद्र रहा है। भगवान बुद्ध से लेकर सिद्धों तक ने विविध प्रकार से आत्मकल्याण की साधना-पद्धतियों का उपदेश किया। मगध की जनता ने उन्हें अपने जीवन में उतारा एवं आत्मकल्याण की विविध अवस्थाआंे की उपलब्धि की। परवर्ती काल में, जब बौद्ध एवं वैदिकों का भेद बहुत कम हो गया। विविध स्थानीय उपासना शैलियाँ भी लोकजीवन का अंग बन गईं और उनकी स्वतंत्र पहचान विलुप्त हो गई। ऐसे अनेक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अवशेष वर्तमान संस्कृति एवं परंपरा में प्राप्त होते हैं। यक्ष एवं यक्षिणियाँ मगध क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं। यक्षों का स्वभाव एवं इनका स्थान देवों एवं असुरों के बीच का है। इन्हें परम प्रतापी माना जाता है। ये मांगने पर देते हैं किंतु इन्हें जो भी देने का वचन दिया गया हो उसे देना ही पड़ता है। इनकी साधना शीघ्र सफल होती है। ये कामातुर और रुधिरप्रिय माने गए हैं। इन्हें मद्य, विशेष कर मैरेय नामक सुरा प्रिय है। इन्हें सामूहिक नृत्य-गान, जिन्हें ऊँचे सुर से गाया जाता हो, काफी प्रिय हैं।
मूर्तिशास्त्र के ग्रथों में इनकी देहाकृति का वर्णन विस्तार से मिलता है। पुराणों में हाहा, हूहू नामक दो यक्षों का उल्लेख प्रायः मिलता है। वस्तुतः हाहा, हूहू यक्षों के बीज मंत्र हैं। बीज मंत्र ही देवता के नाम हो गए हैं। इन दोनों मंत्रों का संपुट लगाना आज भी चैता एवं होली/फगुआ गायन में मगध में जरूरी है। शास्त्रीय संगीत के चैता एवं चैती से इस गायन का अनिवार्य संबंध नहीं है।
पुराणों में वर्णित हाहा, हूहू के अतिरिक्त अन्य यक्ष, यक्षिणियों की भी पूजा लोग करते हैं। भल्लिनी का प्रसिद्ध मंदिर भलुनी गांव में है। वहां के पुजारी भलुनियार ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार चँवरी, अन्धारी आदि यक्षिणियों के नाम वाले भी अनेक गॉंव मगध में हैं।

चैत माह में एक विशेष शैली में गाया जाने वाला गायन चैता के नाम से जाना जाता है। मगध क्षेत्र में गॉंव की आम ंिजंदगी चैत महीने में चैता गायन के बिना अधूरी है। वर्तमान गया, पटना एवं शाहाबाद प्रमंडलों में चैता गायन बहुत लोकप्रिय है। जो लोग चैता गायन से परिचित हैं, उनके लिए यह भले ही किसी विशेष महत्त्व की बात न हो लेकिन मगध क्षेत्र से बाहर के लोगों को चैता के आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व को समझने के लिए चैता गायन के स्वरूप को बताना जरूरी है।
यह गायन गोलाकर, मंडलाकार एक या दो घेरे में बैठकर संपन्न किया जाता है। मंडल के मध्य में वादक, मुख्य रूप से ढोलक बजाने वाला या उनके सहयोगी अन्य नाल आदि बजाने वाले बैठते हैं। वृत्त की परिधि पर सहयोगी गायकगण झाल, करताल आदि के साथ बैठते है। वादक एवं गायकों के बीच इतनी दूरी रखी जाती है कि एक या दो स्त्री वेशधारी नर्तक सुविधापूर्वक मंडलाकार दायरे में नृत्य कर सकें। इस नर्तक को देेहाती क्षेत्रों में आदरपूर्वक जोगिन कहते हैं। परिधि पर बैठे हुए लोगों में से कोई एक व्यक्ति गायन का संचालन करता है। यह कोई जरूरी नहीं है कि कोई एक व्यक्ति ही मंडलाधिपति हो या गायन-समूह का प्रधान हो।
चैत्य देवगृह को कहते हैं, जिसमें भगवान बुद्ध के किसी स्वरूप अथवा बौद्ध परंपरा में स्वीकृत किसी देवता-विशेष की प्रतिमा स्थापित हो । प्रारंभ में मन की विविध अवस्थाओं पर ध्यान करनेे के लिए या विविध शैलियों के प्रचार-प्रसार के साथ न केवल धारणियों का विकास हुआ  अपितु अवलोकितेश्वर, वैरोचन आदि पुरूष देवों तथा मामकी तारा आदि देवियों को भी साधना में स्थान दिया गया। मन को अंतर्मुख करने के लिए जिन विविध पथों, मार्गो या अध्वाओं का अवलंबन किया जाता हैं, उनमें चेतना, प्राण, मन के साक्षात् क्र्रिया-व्यापार, ध्वनि, प्रकाश एवं विविध रंगों का संयोजन आदि प्रमुख हैं।
सबके समानांतर तंत्र परंपरा में ध्वनि का स्वतंत्र महत्व है। ध्वनि की चार अवस्थाएँ मानी गई हैं। वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। वैखरी वाणी स्वरूपात्मक एवं संदर्भात्मक दोनों है। गो शब्दरूपी ध्वनिसमूह (वाचक) से पशुविशेष (वाच्य) का बोध होना वाच्य-वाचक संबंध का उदाहरण है। किंतु श  ध्वनि का तालु से उच्चरित एवं गरम होना उसका स्वरूप है। यहाँ वाच्य-वाचक संबंध नहीं है। वाच्य-वाचक संबंध भी किसी न किसी व्यवहार के समय उस संदर्भ में प्रगट होता है अतः संबंध संदर्भात्मक भी है। संदर्भ बदलने पर एक ही शब्द का भिन्न अर्थ भी हो सकता है। वाच्चार्थ के वाचक शब्द के रूप में यह संदर्भात्मक है और वर्णमाला की ध्वनियों के रूप में या संगीत के आरोह-अवरोह के साथ नाद श्रुितयों के रूप में यह स्वरूपात्मक है। आध्यात्मिक साधना में वैखरी ध्वनि के उभयविध रूपों का उपयोग किया जाता है। स्तोत्र वाच्य-वाचक भाव से परिपूर्ण हैं। उनके छंद स्वरूपात्मक हैं। बीज मंत्र तथा धारिणियाँँ साक्षात् स्वरूपात्मक है। धारिणियाँँ पूर्णतः स्वरूपात्मक हैं।
इस संक्षिप्त पृष्ठभूमि के साथ यदि चैत में गाये जाने वाले लोकभाषा में निबद्ध चैता के पदों को देखें तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध बहुत कम हैं। मूलतः वे स्वरूपात्मक हैं। चैता के पदों की स्वरूपात्मकता ही प्रधान है। एक पद है - ‘आज चइत हम गाइब हो रामा, एहि ठईयाँँ’। यह पूर्णतः संकल्पात्मक है। इस पद का अर्थ है कि आज मैं इस स्थान पर चैता गायन करूॅंगा । इस तरह के एक पंक्ति वाले अनेक चैता पद मिलते हैं जिनमें कोई कथानक नहीं होता है। होरी, फाग, बारहमासा केे पदों में कथानक या वर्णन हुआ करते हैं। उसके स्थान पर चैता पदों के लिए उसकी गायन शैली ही प्रमुख होती है। फागुन वसंत का प्रारंभ है। चैत वसंत की प्रौढ़ावस्था है। मनुष्य के भाव में वसंत में रति का प्रवाह अपने चरम पर होता है। इसलिए चैता गायन में कठोरता होती है। आलाप के साथ आरोह की ओर गायक बढ़ते हैं लेकिन अवरोह की कोई व्यवस्था नहीं होती है। दोगुन, तिगुन और चौगुन में संपूर्ण गायक एवं श्रोता समूह मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। देशकाल का बोध उस क्षण ठहर जाता है, मन में चंचलता मिट जाती है और चरम पर पहुॅंचने के बाद जब एक बार हा ध्वनि के साथ विराम किया जाता है ता़े थोड़ी देर के लिए व्यक्ति का मन स्वतः चंचलता से रहित हो जाता है। यह साधकों को मन की अंतर्मुखी छवि से परिचय कराने का एक रास्ता है। हा ध्वनि और हू ध्वनि, इन दोनों का तंत्र परंपरा में अपना महत्व है। चैता गायन की पूर्णाहूति हा के साथ होती है। हा ध्वनि के उच्चारण से मणिपुर चक्र या नाभि केंद्र आंदोलित होता है।
आज भी चैता गायन तो होता है किंतु चैता गायन के साथ जुड़ी साधना का कड़ी टूट गई है। तंत्र में विधि प्रमुख होती है। तंत्र की विधियाँँ ही परोक्ष रूप से मन की चंचलता को एकाग्रता में परिणत करती हैं इसलिए बाहर से देखने में वे बहुत अटपटी लगती हैं लेकिन लोकमानस के अनुरूप होने के कारण लंबे समय तक संस्कृति का अंग बन्ने की योग्यता उनमें पायी जाती है। चैता गायन में ध्वनि और दृश्य का संयोजन इस प्रकार से किया गया है कि गाने वाले का मन पूर्णतः विरामावस्था में पहुँँच जाय । ध्वनि इतनी तालबद्ध होती है कि बीच में मन को भटकने का अवसर नहीं मिलता है। सामूहिक गायन में सुरीलेपन का कोई महत्व नहीं होता है। ध्यान इस बात पर साधा जाता है कि गायन में आप अपनी पूरी शारीरिक ऊर्जा को उडे़लते हैं या नहीं।
ऐसी कल्पना/मान्यता है कि जितने गायक हैं, वे साधक हैं और  बोधिसत्व या वज्राचार्य की शक्ति मानवीकृत रूप में जोगिन बनकर मंडलाकार पथ में तालबद्ध नृत्य कर रही है। चूँँकि तंत्र परंपरा में रति स्वीकृत है। अतः नर्तकी का अंग संचालन, मुद्राएं एवं श्रृंगार रस के पद भी पूरी आत्मीयता के साथ स्वीकृत है। आज नर्तकी के रूप में विरले ही कोई औरत नाचती है। प्रायः मर्द ही नर्तकी का रूप धारण करते हैं। नर्तकी के रूप में यह जोगिन रूप, छटा एवं श्रृंगार के सभी आह्लाद कणों को मानो सबके ऊपर बिखेरती है। इसके लिए मौन का नियम आज भी अपरिहार्य है। वह बोलती या कहती नहीं है। कल्पना है कि वह बुद्ध की तरह समाधिस्थ है। मौन  आनंद में तरंगायित है। लोगों के चित्त की चंचलता को अगाध करुणा से अपने में समेटे हुये है और चंक्रमण से, गोल गोल घूमने से जनमनमोहिनी बनकर सबको समाधि का सुख दिलाने वाली है।
चंक्रमण ध्यान भगवान बुद्ध की खोज है। घंटे दो घंटे बाह्य लोक से विमुख होकर ध्यानावस्था में जाना वैदिक परंपरा है और ठीक इसके विपरीत सदैव ध्यानस्थ रह कर जीवन के कृत्य का संपादन करना बौद्ध साधना में प्रारंभिक स्तर के प्रशिक्षण का विषय है। इसमें जोगिन चंक्रमणशील है और चैता गायक बौद्ध उपासक है। चैता के पद ‘हा’ धारिणी से युक्त होकर धारिणी का काम कर रहे है। वृत्ताकार आसन मंडल है। सभा का मुख्य कर्ताधर्ता हा ध्वनि के उच्चारण के साथ मौन का आदेश देनेवाला मंडलाधिपति है। मंडलाधिपतियों की जिम्मेवारी होती है कि वे सबके लिये अनुकूल स्थान योगिनी एवं मद्य की व्यवस्था करें, क्योंकि मद्य शरीर को थकने से रोकता है। नींद से मुक्त करता है और तात्कालिक ऊर्जा प्रदान करता है। चित्त की चंचलता को कम करता है। एकाग्र होने से सुविधा प्रदान करता है। मन की चंचलता को कुंद करता है और दृष्टि मार्ग से जो चंचलता बढ़ती है वह चंचलता जोगिनी के वृत्ताकार परिभ्रमण से बंध जाती है। बीच में बैठा हुआ ढोलक बजाने वाला ध्वनि का केंद्र होने के कारण ध्यान का केंद होता है। ध्यान की बार बार आवृत्ति से व्यक्ति का मन ध्वनि में डूब जाता है और अंतर्मुख होने के लिए अत्यंत ही सुविधापूर्ण परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। भीतर की वासना, आक्रोश, गुस्सा सारे बाहर ही संस्कृत, लयबद्ध और तालबद्ध होकर ढोलक एवं मंजीरे के थाप में संगीत का अंग बन जाते हैं।
आज सारी चीजें तो हैं लेकिन दुर्भाग्यवश अंतर्मुख करानेवाला मंडलाधिपति नहीं है। मंडलाधिपति शब्द से अधिपति गायब हो गया है। मंडल की उपाधि आज भी यादव/अहीर जाति के लोगों में स्थापित है। इस उपर्युक्त स्वरूप को जब शास्त्रीय संदर्मों के साथ जोड़ा जायेगा तब विद्वानों को भी इसकी ऐतिहासिक छवि दिखाई देगी।

शुक्रवार, 2 मई 2014

क्या आयुर्वेद वस्तुतः कोई गुप्त या गोपनीय शास्त्र है?


आयुर्वेद के विषय में एक विचित्र आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा है। यह वैसा ही आरोप है जैसा आज से पचास सौ वर्ष पहले योग एवं तंत्र पर लगा करता था और आज भी लगा करता है।
आयुर्वेद के ग्रंथ गोपनीयता की वकालत करते हैं। वैद्य अपनी विद्या को गुप्त रखते हैं। अनेक वैद्य अपनी विद्या को दूसरे को बताए बगैर ही मर गए। इससे विद्या भी नष्ट हुई और शास्त्र का भी अहित हुआ, आदि।
उपर्युक्त आरोप को ठीक से समझे बिना आयुर्वेद के प्रति नाहक विरोध एवं भ्रम फैला है, आयुर्वेद केवल कुपात्र को विद्या देने का विरोधी रहा है। ऐसा वर्णन नहीं मिलता कि इस विद्या को केवल अपने कुल या जाति के लोगों को सिखाना चाहिए। अपात्र हैं- अयोग्य, कृतघ्न, जड़बुद्धि, लालची, निर्लज्ज एवं निर्मम। क्या इन दुर्गुणों से युक्त चिकित्सकों से आज भी जनता पीडि़त नहीं है। इसी कारण पात्रता परीक्षा के लिए शर्त रखी गई कि शिष्य बनाने के पहले छे महीने तक उसे सेवा में रखकर तब उसे अंतर्वासी (साथ में रहनेवाला) बनाकर उसके गुण-दोष की परीक्षा करनी चाहिए। तब उसे शिष्य बनाना चाहिए। पात्रता की इस परीक्षा में जाति, लिंग, देश आदि का कहां कोई भेद है कि निंदा की जाए।
गुरू परंपरा एवं कुल परंपरा में बंधा हुआ आदमी धर्म, लोक लज्जा, प्रतिज्ञा और अंतत‘ सहपाठियों के सामाजिक बहिष्कार के भय से वह गुरु के प्रति केवल कृतज्ञ ही नहीं होता था अपितु की गई प्रतिज्ञा के पालन का भी भरसक प्रयास करता रहता था। प्रतिज्ञा के अंदर विद्या की रक्षा एवं सेवा की शर्तें होती थीं। आज एलोपैथ में भी यह परंपरा चलन में है ही।
कुल परंपरा यदि ज्ञान पर अधिकार देती थी तो उस ज्ञान के रक्षा की जिम्मेवारी भी उसकी होती थी। मन-बे-मन उसे कुल की विद्या को सीखना एवं नियमों का पालन करना होता था। इसके लिए रक्त संबंधों का बंधन उसे विकट एवं विपरीत स्थिति में भी विद्या से अलग नहीं कर पाता था। बचपन से सहज सन्निकटता विद्या को सुगम भी बनाती थी। यह परंपरा सामाजिक व्यवस्था का भाग थी न कि केवल आयुर्वेद पर यह बात लागू थी।
ज्ञाान के साथ-साथ उस विद्या या शिल्प की सहायक सामग्री का संरक्षण भी परंपरा में अनिवार्य होता था। हल्दी की खेती करने के लिए यह अनिवार्य था कि जो भी व्यक्ति हल्दी की खेती शुरू करेगा उसे बारह वर्षों तक लगातार हल्दी की खेती करनी ही होगी। चाहे हल्दी की कीमत घटे या बढ़े।
बाजारवादी दृष्टि से ये सब बातें उटपटांग लगती हैं हल्दी भारत में एक अपरिहार्य खाद्य पदार्थ हैं हल्दी न खाना अशुभ है। यदि उत्पादन को अनिवार्य न बनाया जाए तो कोई भी व्यक्ति हल्दी की मनमानी कीमत वसूल कर सकता है और हलदी की इतनी अघिक आवश्यकता भी नहीं होती कि बहुत अधिक उत्पादन किया जाय। अनिवार्यता के कारण परंपरा में हल्दी की खेती स्थानीय आवश्यकता भर ही होती थी। समाज की इस अंतर्दृष्टि को समझे बिना हल्दी उत्पादन संबंधी नियम को सही या गलत कहना संगत नहीं है। यदि हल्दी एवं पान का पौधा कोई दूसरे को नहीं देता एवं उसके परिष्करण की जानकारी नहीं देता फिर भी आप हल्दी या पान की कीमत में आज भी अनाप-सनाप उछाल या गिरावट नहीं पाएंगे।
आज परिस्थितियां बदल रही हैं। सभी जाति के लोग पारंपरिक पेशे के बंधन से मुक्त होकर किसी भी विद्या के प्रति बचनबद्धता एवं कृतज्ञताहीन एवं विकास करना चाहते हैं। जो जितनी ही ऊँची डिग्री हासिल करता है उसकी नीयत में उतनी ही लालच पाई जा रही है। ब्रेन ड्रेन शब्द प्रतिष्ठित रहा है। विदेश भागना आम बात है। खर्च देश का, लाभ विदेशी उठाएं या भगोड़े विद्वान।
पारंपरिेक शोध की जहाँ तक गोपनीयता का प्रश्न है यह आरोप बेबुनियाद है। वास्तविकता यह है कि एक बैद्य देश, काल, पात्र एवं रोग के अनुरूप औषध रचना में कितना दक्ष है यह उसके अनुभूत योग से प्रकट होता था। अनुभूत स्वतंत्र योगों का पहले चिकित्सकों के बीच आदान-प्रदान होता था। बाद में जब कोई वैद्य योग संग्रह की पुस्तक लिखता था उनका समावेश कर देता था। योग संग्रह की इस परंपरा का रोचक उपयोग एवं उल्लेख राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ स्वामी नामक पुस्तक में किया है।
दरअसल सारा झगड़ा व्यक्तिगत अनुभूत योगों को भारतीय कंपनियों तथा उन अयोग्य चिकित्सकों द्वारा अकृतज्ञतापूर्वक अपनाए जाने का एवं उसे पेटेंट कराने का है। जहाँ तक आयुर्वेदिक दवाओं की गोपनीयता का प्रश्न है, इसे ठीक से समझना चाहिए।  आयुर्वेद दवाएँ तीन रूपों में वर्णित होती हैं - 1. मूल दवा एवं उनके गुण, 2. शास्त्रीय दवाएँ , 3. अनुभूत योग । अनुभूत योग पर ही केवल भारतीय पेटेंट कानून लागू होता है। अनुभूत योग में से कुछ दवाएँ पेटेंटीकृत करा ली गयी हैं।
मूल दवा एवं उनके गुणों का विस्तार से वर्णन चरक संहिता आदि मूल ग्रंथों में तो है ही इसके लिए स्वतंत्र रूप से माधव निघंटु, भाव प्रकाश निघंटु जैसी कई पुस्तकें प्रकाशित या लिखित रूप में उपलब्ध हैं। शास्त्रीय दवाओं एवं उनके निर्माण की पुस्तकें भी कई हैं। जैसे भैषज्य रत्नावली, भैषज्य सार संग्रह, योग रत्नाकर आदि। इनमें वर्णित दवाओं की संख्या हजारों है। प्रायः इन्हीं दवाओं का प्रयोग होता है। ये सब गुप्त कहाँ हैं। हिंदी अनुवाद आ जाने पर तो कोई भी इसे पढ़-समझ सकता है। रही बात व्यक्तिगत अनुभूत योग एवं उनके पेटंेटीकृत रूप की तो पहली बात यह है कि प्रयोगकालीन फार्मूलों एवं अनुभवों का चिकित्सकों के बीच गोपनीय रहना अपराध नहीं है। जब तक परिणामों की विश्वसनीयता सुनिश्चित न हो जाए तब तक उसे क्यों शास्त्रीय दवाओं की सूची में डालकर प्रकाशित करना चाहिए? यह तो गलत बात होगी। इसके बाद बचे खुचे पेटेंट योगों पर यदि प्रयोग का कोई अपना  विशेषाधिकार रखना चाहता या रखता है तो इसके लिए सारी आयुर्वेदिक परंपरा पर ही गोपनीयता का आरोप लगा देना ठीक नहीं है।
जो स्वयं योग निश्चय एवं भैषज्य कल्पना (दवा बनाने की विधि) में दक्ष नहीं रहे हैं वे केवल दूसरे के योगों को लेने की स्थिति में ही रह सकते हैं, देने की स्थिति में नहीं। अतः वास्तविक वैद्य अपना योग इन्हें क्यों देते? मामला दवा कंपनियां का है जो एक ओर वैद्यों से उनका अनुभूत योग मुफ्म में हासिल करना चाहती थीं ओर दूसरी ओर वैद्यों के द्वारा घर में दवा निर्माण को सरकारी स्तर से प्रतिबंधित भी करवा रही थीं कि इससे राजस्व की हानि होती है। पेटेंट प्रप्त कर दवाओं की मनमानी कीमत रखने के अपने षडयंत्र में जब दवा कंपनियां एवं उससे जुड़े और विफल हुए अपात्र लोगोें को आयुर्वेद ही गोपनीय लगने लगा।
इसी तरह का आरोप संस्कृत भाषा सीखने से कतराने वाले नए आयुर्वेदिक डाक्टर लगाते रहे। पुराने  वैद्यों में भी जो अल्पज्ञ थे उन्हें इन नये लोगों को नचाने एवं अपना भाव बढ़ाने के लिए अच्छा लगा कि कहें कि केवल ये योग ही नहीं चिकित्सा की असली क्रिया भी मेरी कुल परंपरा में गुप्त है। रही बात नाड़ी विद्या की तो इसे सीखने के लिये गुरु के साथ अभ्यास करना ही होता है। सारे प्रायोगिक विषयों पर यह बात लागू है। नाड़ी विद्या के लक्षणों पर पुस्तकें उपल्ब्ध हैं फिर गोपनीयता कहां है?