बुधवार, 21 अगस्त 2013

रक्षा बंधन मंत्र का सीधा अर्थ

रक्षा बंधन का मंत्र
रक्षा बंधन पूरा हो गया, अनेक लोगों ने बंधने-बांधने का काम किया मिठाइयां खाईं। दक्षिणा भी दी गईं। भारत जैसे उत्सवप्रिय देश में सब चलता है। भावना और आस्था पर तर्क नहीं। मैं ने भी राखी बंधवाई, मिठाई ही नहीं बहन के घर पूरा भोजन किया, रक्षा बंधन के मंत्र पर हम लोग खूब हंसे। इसी बहाने कुछ और मंत्रों का भी हाल देखा गया।
वायदे क अनुसार मंत्र का सीधा अर्थ लिख रहा हूं। मेरी जानकारी में मंत्र है-
येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तंन त्वां प्रतिबध्नामि रक्ष मा चल मा चल।
इसका अन्वय और अर्थ हुआ (हिंदी वाक्य रचना के अनुसार शब्दों की सजावट) - येन= जिससे दानवेन्द्रो महाबलः राजा बलिः= दानवों के महाबलशाली राजा बलि बद्धो=बांधा गया था उसी से मैं तुम्हें बांधता/बांधती  हूं। रक्षा करना, हिलना मत, बिलकुल मत हिलना।
सीधा अर्थ तो यह हुआ। इसके पीछे की बात पर मतांतर हो सकते हैं। मैं अपनी राय यहां सार्वजनिक  करूं तो कुछ लोगों को लगेगा कि गौरवमयी, दैवी संस्कृति जो विशुद्ध वैदिक ही है, उस पर आघात हो रहा है, कुछ को लगेगा कि अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन हो रहा है। इसलिये सीधा सा प्रस्ताव है कि पूरे संदर्भ को जानने के लिये मेरे ब्लाग पर पधारें। दरसल यह देव एवं असुर विचार  पद्धति तथा जीवन शैली के संघर्ष एवं वर्चस्व का एक उदाहरण है। ऐसे उदाहरणों की भरमार है। मैं देव या असुर किसी एक का पक्षधर नहीं हूं। भारतीय संस्कृति के विकास में असुरों का योगदान, खाश कर जप, तप, पुरुषार्थ एवं विद्या के विकास में देवताओं से अधिक है। पुण्यात्मा इतने कि किसी देवता के द्वारा उस टक्कर के किये गये एक भी अच्छे कार्य का उदाहरण नही मिलेगा। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को इस प्रसंग से अलग कर विचार करें।
मेरी अपनी मजबूरी है। मैं एक प्रकार से असुर कुल के आराध्य की परंपरा वाला हूं। बाबा भोले नाथ का सिद्धनाथ रूप हमारा कुलाराध्य रूप है। भगवती सिद्धेश्वरी कुल देवी हैं। इनका स्थान बिहार प्रदेश के मगध क्षेत्र की बराबर पहाड़ी है। यह दक्षिण के राजा बलि की तरह लोकप्रिय प्रजापालक बाणासुर की तपो भूमि है, जिसके शीर्ष पर बाबा भोले नाथ का सिद्धनाथ रूप प्रतिष्ठित है। गया के समस्त पिंडदान के पुण्य एवं माहात्म्य का मूल आधार गयासुर का पुण्य शरीर है। जी हां, ये वही बाणासुर हैं, जिनका कृष्ण से महाभारत के बाद युद्ध हुआ था। अपना घर संभलता नहीं तो कभी सांब को बेवजह शाप देते हैं, कभी बाणासुर से युद्ध लड़ने आ जाते हैं। रिश्तेदारी पहले भी थी कंस के यहां, फिर हो गई बाणासुर के यहां, मर्द ने औरत का अपहरण किया तो  उचित और अगर औरत मर्द को उड़ा ले जाय और मर्द उससे विवाह करने को तैयार तो अहंकार को चोट लगी। यही कथा है। ऐसे बड़े लोगों की बेवजह लड़ाई में मगध का समझदार ब्राह्मण किनारे रह कर पंचायती कर झगड़ा सलटाये कि मूर्खों की तरह देव पक्ष या दानव पक्ष में हुआं हुआं करता रहे।
मित्रों, भारत कब का कितना विराट हो गया जिसमें देव, असुर, नाग, किन्नर, वानर, यक्ष राक्षस सभी घुलमिल गये और कुछ मित्र अभी भी पता नहीं किस संस्कृति को केवल वैदिक, दैवी वगैरह कहने में लगे हैं।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

भारत को समझने की उदारता

भारत को समझने की उदारता - किश्त 1
भारतीय संस्कृति को दिल एवं दिमाग की उदारता के साथ ही समझा सकता है। इसे समझने का न कोई शार्ट कट है, न नपा तुला फार्मूला। इस उदारता के अनुरोध में कुछ प्रश्न और कुछ उत्तर प्रस्तुत हैं। आप भी विचार कर सकते हैं।
कार्यक्रम बड़ा या उसका समय
यह प्रश्न मेरे मन में बहुत दिनों तक घूमता रहा। अनेक ऐसे कार्यक्रम होते हैं जिनके समय का निर्णय करना बहुत कठिन होता है। खाश कर वैसे कार्यक्रम जिन्हें हर साल सही समय पर दुहराना होता है। ऐसे कार्यक्रमों में व्रत, पर्व, उत्सव, श्रद्धांजलि, श्राद्ध, जयंती, जन्मदिन आदि होते हैं। जो मामले धर्म के साथ जुड़े रहते हैं, उनके मामले में तो तिथि एवं मूहूर्त अर्थात छोटी अवधि के निर्णय की जिम्मेवारी कर्मकांडियों और ज्योतिषियों के मत्थे फेंक कर, उनका मजाक बना कर अन्य लोग निश्चिंत हो जाते हैं लेकिन यह समस्या तो व्यापक है।
कोई भी व्यक्ति पैदा चाहे जब हुआ हो, उसके पैदा होने का काल ठीक-ठीक वैसा ही दुबारा कहां आने वाला? यह तो असंभव जैसा है। इतना ही नहीं जब रिकार्डेड और गैर रिकार्डेड तौर पर जन्म काल भिन्न हो तो प्रेमी , मित्र, अनुयायी सब फंस जाते हैं कि बधाई किस दिन दें।
मैं अपना ही उदाहरण देना चाहता हूं। जन्म पत्रिका के अनुसार आषाढ़ शुक्ल द्वितिया को मेरा जन्म हुआ है। मुझे इतना ही याद रहता है। मेरे घर के बधाई प्रेमी लोगों ने अंगरेजी कलेंडर के अनुसार 8 जुलाई ढूंढ निकाली, सरकारी रिकार्ड में मास्टर साहब ने कुछ और लिख दिया, उनका हिसाब वे जानें। साल तो ठीक है पर तारीखें सभी अलग-अलग आती हैं। क्या मैं इस समस्या के लिये किसी को दोषी ठहरा सकता हूं, नहीं। जब साल की गणना के भौतिक/खगोलीय आधार ही अलग हों तो साल भी अलग अलग चलता ही हैं। जब साल अलग तो तिथियां भी अलग। इसमें संगति बनाने की कोशिश करनी पड़ती है, फिर भी संगति नहीं बैठ पाती। मुझे सुविधा एवं संस्कार के कारण विक्रम संवत वाली तिथि याद रहती है, मेरे पुत्र को 8 जुलाई और पत्नी को दोनो लेकिन मेरा जन्म तो किसी एक निश्चित समय पर ही हुआ होगा। ऐसी अन्य दुविधाएं भी होती हैं, उन पर बाद में लिखूंगा।

आजादी से अधिक दुखी आत्माएं

इस आजादी से अधिक दुखी आत्माएं
आजादी के 66 साल बाद भी इस आजादी से लोग पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं। आम आदमी, नौकरी पेशा अफसर, किसान, छात्र, सवर्ण, असवर्ण, दलित, वुद्धिजीवी, अनपढ़, कंपनी वाले, मजदूर  सभी लोग। किसका किसका नाम गिनायें कुछ ही होंगे जो पूरी तरह संतुष्ट होंगे। सबकी असंतुष्टि के अलग अलग कारण हैं। यह असंतुष्टि कुछ लोगों की यह समझ बनाती है कि इस आजादी में बहुत सारी कमियां हैं जिन्हें दूर कर देने पर यह आजादी सार्थक हो जाती। इसके विपरीत अनेक लोग  तुलना करते मिलेंगे कि इस आजादी का क्या फायदा? इससे बेहतर तो आजादी के पहले वाली पुरानी व्यवस्था ही थी, यह देश सुधरने वाला ही नहीं, यहां के लिये तानाशाही ही ठीक है, इस आजादी में तो संभ्रांत, बुद्धिमान, शरीफ और संस्कारी लोगों की पूछ ही नहीं, इत्यादि।
ये दूसरे प्रकार के लोग सामान्य लोग नहीं हैं। इन सबों की अपनी मानसिक ग्रथियां हैं। इन्हें पहचानना चाहिये और स्वयं को उससे बचाना चाहिये। मैं कुछ उदारण दे रहा हूं-
1 आजादी और लोक तंत्र के प्रति अगंभीर लोग-
एक बार मुख्य चुनाव आयुक्त श्री शेषन ने कहा था कि जो चीज कीमती होती है, लूट उसी की होती है। आजादी और उसके परिणामस्वरूप मिले मतदान के अधिकार की रक्षा और उसके लिये संघर्ष तो करना ही पड़ेगा क्योंकि यह कीमती है। अति सुविधा भोगी लोग, अति डरपोक और पूर्णतः विसंगठित लोग हमेशा अपनी जिम्मेवारी दूसरे पर लादते हैं। राजनैतिक समझ को ही बेकार बताने वाले धूर्त ऐसे लोगों की खूब प्रशंसा कर उन्हें महान बताते हैं। यह लोक तंत्र के लिये खतरा है।
2 बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जिन्हें इस आजादी के प्रति घृणा बिरासत में मिली है। अभी भी कुछ लोग जो बचे ही हैं, जो आजादी के समय किशोर या बच्चे थे और ऐसे लोगों की तो अभी भी पर्याप्त संख्या है, जिनके घर में गुलामी के समय के किस्से बताने वाले मौजूद हैं। इन बुजुर्गों ने अपनी अगली पीढ़ी को समझाया है कि उनकी निजी पारिवारिक समस्याओं का मूल कारण यह आजादी है, वरना पुराने जमाने में उनकी हुकूमत चलती थी। हिंदू जंमींदारों से अधिक मुस्लिम जमींदार इस दुख से दुखी रहते हैं कि अंगरेजों को तो मुल्क छोड़ के जाना था तो हुकूमत हम सभी राजा, महाराजाओं, नवाबों को सीधे सौंप कर जाना चाहिये था। उनकी अपनी सीधी हुकूमत वाली सत्ता तो कांगेसियों की जगह मुस्लिम हुक्मरानों को ही मिलनी चाहिये थी, आखिर वे ही तो अंगरेजों के पहले के शासक थे।
3 जो हिंदू राष्ट्र का सपना देखने वाले थे उन्हें पीड़ा सताती रही कि इनते लंबे समय के बाद जो आजादी मिली उसके बाद भी एक हिंदू बहुल राष्ट्र में भी हम हिंदू पंरपरा एवं संस्कृति को तरजीह नहीं दे सके, मिला भी तो बराबरी का दर्जा और वह।
4 हिंदू वादियों में भी अनेक उदास हो गये कि बहुसंख्यक बहुलतावादी सनातनी हिंदू संस्कृति के पक्ष में तो कोई है ही नहीं। न कांग्रेसी, न कम्यूनिस्ट, न संधी। इसीलिये आर.एस.एस के समानांतर हिंदू महासभा और रामराज्य परिषद का भी गठन हुआ। स्व. नाथूराम गोडसे को अपना मानने का दावा आर.एस.एस के समानांतर हिंदू महासभा आज भी करती है। रामराज्य परिषद पारंपरिक विचारों वाला खुला राजनैतिक संगठन था, जो अपनी कालबाह्य एवं अनुदार विचार के कारण भारतीय समाज में स्वीकृत नहीं हो सका। स्वामी करपात्री जी ने काशी के सुप्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर के समानांतर एक नया काशी विश्वनाथ मंदिर भी बनवा डाला। अनेक सेठ एवं राजा, जमींदार कुछ दिनों तक इनका समर्थन करते रहे लेकिन चुनावी राजनीति में इन्हें सफलता नहीं मिली।
5 1952 से शुरू हुए जमींदारी ऊन्मूलन, प्रीवी पर्स समाप्ति, खदानों के राष्ट्रीय करण, निजी बैंकों का राष्ट्रीय करण, भूमि हद बंदी आदि कार्यक्रमों ने पुराने सुविधा भोगी वर्ग को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि इससे तो अच्छा अ्रगरेजों का ही राज्य था।
अंगरेजी अत्याचार की जानकारी देने वाली किताबों की कोई कमी नहीं है। आप आज की उपलब्धियों को सामने रख कर खुले दिल विचार करें कि क्या सच में आज जैसी भी आजादी हमारे पास है, उससे बेहतर अंगरेजों का कंपनी राज ही है। 

सोमवार, 19 अगस्त 2013

रक्षा बंधन : एक युक्ति

देवता एवं असुर के बीच सामंजस्य की एक युक्ति रक्षा बंधन
रक्षा बंधन साल में केवल एक ही बार नहीं होता। हां, भाई बहन के बीच वाला एक ही बार होता है। वर्तमान में रक्षा बंधन की जो चलन है वह कई बातों की मिली जुली खिचड़ी है। वैसे सावन पूर्णिमा के दिन जो कई प्रकार के व्रत तथा उत्सवों की पुरानी पंरपरा थी, जिसकी बहुत लोगों को आज जानकारी भी नहीं है, मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूं। 
मेरी बात केवल रक्षा बंधन तक सीमित है। प्रश्न है किसके द्वारा किसको बांधना और क्यों? ताज्जुब यह कि जिसे बांधा जाय उससे ही रक्षा की उमीद भी। बांधने वाला कमजोर और बंधने या बंधवाने वाला मजबूत। मोटे तौर पर जिसकी चर्चा फेसबुक पर जरूरी होने पर भी अन्य किसी मित्र के द्वारा नहीं की जायेगी मैं अपनी सीमित जानकारी आप तक पहुंचाने का प्रयास करूंगा।
भारत विभिन्न समुदायों, जीवन शैलियों के संघर्ष तथा समन्वय से बना है। संघर्ष तो समुदायों के बीच हुआ लेकिन इस संघर्ष के साथ-साथ संघर्षशील समुदाय एक बृहत् समाज के भाग भी बनते चले गये। समन्वय ऐसा हुआ कि पहचानना कठिन। आज मुझे ऐसी अच्छी बातों को विश्लेषित कर इसलिये बताना जरूरी लगता है क्योंकि पाश्चात्य अक्लमंदी से सम्मोहित अनेक आधुनिक संप्रदाय लोगों को उलटी-सीधी बातें बताते हैं। हमारे बहुरंगी समाज को केवल एक ही रंग में रंगना चाहते हैं।
यक्ष-यक्षिणियों की पूजा हमारा समाज करता रहा है। वे भी भारतीय संस्कृति के अभिन्न भाग हैं। इसी तरह राक्षसों की कथा के बगैर जिन्हें असुर, दैत्य आदि शब्दों से भी संबोधित कर घालमेल का प्रयास किया गया संस्कृति की कथा पूरी नहीं होती। छल एवं बल मोटे तौर पर अपराध की ये दो आधार हैं। देवता छल में विश्वास करते हैं, राक्षस बल में। असुरों/राक्षसों की वचनबद्धता सुप्रतिष्ठित है। देवता वचन दे कर भी मुकरने का बहाना बनाने में दक्ष हैं। इन्होंने पुण्यात्मा असुरों को भी खूब सताया, ऐसी पीड़ा शायद ही किसी असुर ने किसी देवता की दी हो।
यक्षों के समक्ष अगर समर्पण कर उनसे मांगा जाय तो वे देने से नहीं कतराते। अगर उनकी प्रतिज्ञा को स्मरण करा कर कोई धागा या कुछ भी कहीं बांध दिया जाय  तो वे रक्षा का काम भी करते हैं। वह रक्षा सूत्र, ताबीज या आभूषण कोई अपने शरीर के किसी भी भाग पर बांध सकता है। बौद्धों का रक्षा सूत्र देखने में बिहार में प्रचलित जीउतिया के धागे जैसा होता है। राक्षस वचन के तो पक्के हैं पर उनसे रक्षा का वचन पाने के लिये उनकी ही कलाई पर सूत्र बांधना पड़ता है। 
कालांतर में राक्षस ही नहीं हर मजबूत की कलाई पर बांधना होता है। सामान्य पूजा पाठ के उपरांत बांधा जाने वाला धागा आज फैसन, रंगदारी, एक खास राजनैतिक दल आदि का प्रतीक बनाने की प्रक्रिया तो चल रही है जो विविधता के गर्त में गिर कर कोई निश्चित अर्थ ग्रहण नहीं कर पायेगा यह यक्ष परंपरा वाला है और जजमान के घर जा कर उसकी कलाई पर बांधा जाने वाला और बहन के द्वारा भाई की कलाई पर बांधा जाने वाला राक्षस परंपरा का जो आज बिलकुल घुल मिल गया है। आज न कोई देवता है, न असुर, न यक्ष, न राक्षस, न शक, न हूण, न यवन, न किरात। सभी मिल कर भारत बन गये। सबों ने सबकी बातों को अपनी सुविधा एवं जरूरत के साथ अपना लिया। बिहार में तो राजा बलि की दुहाइ्र दे कर ही रक्षा बांधी जाती है। बाकी के लोग अपना मंत्र मिला सकते हैं।

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

योग तंत्र के अनुभव सच्चे या झूठे


योग तंत्र के अनुभव सच्चे या झूठे
1. नशा का अनुभव भी अनुभव तो है ही, वह नशे के उतरने के बाद भी सच है या झूठ यही निर्णायक बात है। हम नशा एवं नशे के अनुभव को झुठला नहीं सकते। गहरी आस्था में हमें वे हीं बातें सच लगने लगती है, जो हम पसंद करते हैं। यह कल्पना लोक वाला अनुभव है। यह अनेक बार झटके खाकर डरता है।
2. मूर्ति से लाख सच्ची भक्ति जान नहीं बचाती। आज तक तोड़े गए सभी प्रसिद्ध मंदिरों की मूर्तियाँ अपनी रक्षा नहीं कर सकीं। किसी जमाने में नालंदा गया और आज तिब्बत की हालात आपके सामने है। तंत्र से न कोई आक्रांता डरा ही नहीं। मूर्ति तो साधना का आरंभ बिंदु और एकाग्रता का आलंबन मात्र है।
3. आँख, नाक, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों से जो अनुभव होता है उसके अतिरिक्त इसी मन-मस्तिष्क द्वारा स्वप्न, निद्रा, स्मृति, कल्पना आदि क्रियाएँ एंव अनुभव भी होते हैं। इन आंतरिक अनुभवों को कैसे झुठलाया जा सकता है। ये अनुभव हमारे व्यवहार को बाहरी अनुभव से कम प्रभावित नहीं करते। योग एवं तंत्र में इन आंतरिक अनुभवों, उनकी कार्य प्रणाली, मन-मस्तिष्क की कार्य प्रणाली का साक्षात्कार एवं जीवन में उसके सदुपयोग की विधियाँ सिखाई जाती हैं।
सम्मोहन एवं विमोहन दोनों सिखाया जाता है। प्रकृति में स्थित सूक्ष्म ध्वनियों, शरीर की सहज क्रिया से उत्पन्न होनेवाली ध्वनियों, तरंगों सबके साथ अनुकूल रिश्ता बनाना सिखाया जाता है। ये सब वास्तविक है। मार्डन सायंस वाले अब धीरे-धीरे यंत्रों द्वारा इन्हें मापने लगे हैं। इसे एक साधक स्वयं अनुभव करता है और जरूरत के अनुसार उन्हें नियंत्रित भी करता है। आप भी कर सकते हैं। पतंजलि की धारा में साधना अकेले की जाती है। तंत्र एवं कर्मकांड में सामूहिक सामाजिक तौर पर। यहां तो जबरन भी उच्च अनुभव करा ह दिये जाते हैं। जैसे राजा का राज्याभिषेक कर सामाजिक स्वीकृति के बल पर उसे महान बना दिया जाता है, उसी तरह अभिषेक की विधियों द्वारा 1 सप्ताह, 9 दिन 21 दिन एवं 3 महीने के अंतंर्गत वर्षो की साधना में होने वाले अनुभव बहंत कम समय में सुरक्षित वातावरण में सिखा दिये जाने के तरीके प्रचहलत हैं।
एक छोटा उदाहरण लेते हैं। सभी वर वधू को दांपत्य में यौन सुख एवं प्रजनन कार्य में लगना होता है लेकिन उनके दांपत्य की सफलता संयम में होती है असंवेदनशीलता या नपुंसकता में नहीं। तंत्र प्रधान इलाकों में 10-15 वर्षाें पूर्व तक घर की बड़ी-बूढ़ी स़्ित्रयों के नेतृत्व मेंल्दी उबटन एवं अभिषेक की विधि से यह अभ्यास करा कर एवं वरवधू के अनुभवात्मक संयम की परीक्षा कर उसे दांपत्य के योग्य बना दिया जाता था। सबसे कड़ी परीक्षा मिथिला में ली जाती रही है। मुझे आज का हाल मालूम नहीं है। मंदिरों में होनेवाली शादी की चलन में इसके लिये समय नहीं मिलता। मजेदार यह है कि घर की शादी के लिये समय नहीं निकालने वाले कुछ लोग फिर किसी तांत्रिक मंडली के सदस्य बन कर, मोटी दक्षिणा दे कर असुरक्षित वातावरण में उसी अनुष्ठान को दुहराते हैं। इसलिये समझने एवं समझाने की सार्थकता है।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

स्वतंत्रता और आजादी


स्वतंत्रता , ‘‘स्व’’ अर्थात अपनी ‘‘तंत्रता’’ व्यवस्था का होना यह भारतीय शब्द एवं समझ है, उसी तरह जैसे- स्वस्थ, स्वाध्याय आदि। इसमें तंत्र अर्थात व्यवस्था का भी ‘स्व’’ की तरह महत्त्व है। आजादी के लिये मुक्ति शब्द अधिक करीब है। आजादी लोगों को अधिक पसंद आती है। इसमें कोई बंधन जो नहीं हैं लेकिन दूसरे की आजादी को महत्त्व देने पर कोई न कोई व्यवस्था तो अपनानी ही होगी। आज तक की सभी व्यवस्थाओं में कोई न कोई कमी रह ही गई है क्योंकि धूर्त तथा अत्याचारी सबसे पहले व्यवस्था के भीतर ही पक्षपात को सम्मिलित कर उसे नैतिक रूप देने का काम कर देते हैं, जैसे- आज का नव उदारवादी मुक्त बाजार सिद्धांत, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सारी समस्याओं का समाधान मानना आदि। परिणाम स्वरूप वर्तमान शासन का आदर्श है इनके पक्ष में काम करना फिर चाहे हमारा तंत्र लोक तंत्र हो या कोई दूसरा।
मेरा जन्म 1959 में हुआ, आजादी के बाद, आजादी के लिये लड़ने वाले (पैत्रिक परिवार) एवं अ्रगरेजों की फौज-पुलिस में काम करने वाले जंमीदार (ननिहाल) परिवारों के बीच। इसलिये मेरे बचपन में आजादी मिलने का जोश बचा हुआ था। अपने पितामह की जेल की डायरी मेरे निजी पाठ्य पुस्तकोें में से एक थी, जो 3 खंडों में थी, पूरा मिलाकर एक समकालीन पैनोरमा क्योंकि जिला स्तरीय क्रंातिकारी नेताओं को तत्कालीन कलेक्टर से अधिक काबिल बनाने का लक्ष्य रखने वाले गुरु लोग भी जेल में होते थे। क्रांतिकारी कूप मंडूक हो यह मान्य नहीं था। ऐसे ही एक स्वतंत्रता सेनानी मेरे बाबा थे और उन्हें जेल में पढ़ाने वाले गुरु थे स्वामी विज्ञानानंद। मेरे बाबा पुराने शाहाबाद जिले के और स्वामी विज्ञानानंद पुराने छपरा जिले के।


मंगलवार, 6 अगस्त 2013

श्मसान में उत्सव

श्मसान में उत्सव
परसों रविवार दिनांक 4 अगस्त 2013 को मेरे जीवन में दूसरी बार श्मसान में उत्सव का अनुभव हुआ। मैं ज्योतिष का छात्र नहीं हूं अतः इसे किसी मुहूर्त की परिभाषा में नहीं कह सकता फिर भी यह कैसा अचरज कि अपने जीवन में सदैव हंसते-हंसाते रहने वाले स्व. शिवकुमार पाठक का शव ले कर जैसे ही हम श्मसान घाट पर प्रवेश कर ही रहे थे कि हमारा ‘राम नाम सत ह’ै की आवाज बैंड बाजे की आवाज में गुम हो गई। ट्रैक्टर पर बैंड बाजा तो बज ही रहा था उस पर लगे माइक से भी समानांतर रूप से फिलमी गाने का प्रसारण हो रहा था सभी मस्ती में।
हमने जैसे ही जमीन पर अर्थी रखी तब तक एक और बैंड बाजे के साथ अर्थी पहुंची , फिर एक और। इसके बाद सभी बैंड ग्रुपों में प्रतियोगगिता शुरू हो गई और वह भी नियम तोड़। अर्थात आम तौर पर बैंड वाले चिता से कुछ दूरी पर रुक कर बैंड बजाते हैं लेकिन आज इनमें से 2 बैंड वाले तो चिता के सिरहाने ही बजाने लगे और हटने का नाम ही न लें। सभी को शायद अच्छी बक्शीश पाने की होड़ लगी थी। वहां शेड के अंतर्गत  ऐसी भीड़ लगी कि साथ आये लोगों के बीच धक्कामुक्की जैसी स्थिति बन गई। पेशेवर फोटोग्राफर भी परेशान। नीचे पड़ी अंगारे वाली बुझी चिताओं पर से भी लोग बेहिचक आ जा रहे थे। कुछ लोग तो बिना तनाव के मति भ्रम में पड़ने लगे कि किस चिता के लिये कौन सी लकड़ी है। बैंड की आवाज में न तो पंडित जी का मंत्र, न डोमराजा की बात, न सगे संबंधियों की आवाज, कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रही थी। कुछ देर के लिये अफरा तफरी रही।
स्व. पाठक जी के दामादों ने बेल एवं आम की लकड़ी का इंतजाम तो 9 मन का किया था परंतु उसमें ठीक से आग सुलगाने की चिंता ही नहीं की। सभी अपने कारोबारी गप में जैसे ही व्यस्त हों चिता जले, फिर बुझे स्व पाठक जी ने शायद सोचा होगा कि कोई परवाह नहीं कुछ देर तक मैं भी मुफ्त वाले बैंड बाजे का आनंद क्यों न लूं? खैर मुझे भागना था तो मैं ने खुद ही हाथ लगाया कि बस अब और नहीं आप जाइये। फिर से चिता को प्रज्वलित करवाया। जब तक चिता जलती रही आनंद का माहौल रहा। न क्रंदन, न चीत्कार न लेन देन का झगड़ा। हां, एक 75-80 साल के सज्जन अपने मित्र के पहले प्रयाण पर दारू पी कर चिंता भूमि में ही भस्माच्छादित हो कर अपने मित्र को पूरे दम से कोस रहे थे और उसे देख लने की धमकी दे रहे थे। उनका हाफ पैंट एवं शर्ट देख कर लग रहा था कि वे रिटायर्ड सिंपाही हों या किसी ने वैसा कपड़ा दे दिया हो। ऐसा अनुभव बिरला ही होता है। ज्योतिषी गण शोध कर सकते हैं- समय 11 बजे दिन से अपराह्न 2 बजे तक।